शनिवार, सितंबर 26, 2020

आजकल मैं समय लिख रहा हूँ

 


वे उन दिनों कम ही निकल रहे थे घर से। जब कभी दिखते भी तो हाथ में एक डायरी और कलम जरूर लिए रहते। मैंने दो तीन बार उनसे जानना चाहा कि आजकल कहाँ रहते हैं और यह डायरी और कलम साथ में लेकर चलने का क्या राज है? हर बार वह अजीब सा मुँह बनाकर कहते कि ‘बस ऐसे ही, तुम नहीं समझोगे।‘

मैं इस विचारधारा का घोर समर्थक रहा हूँ की जब व्यक्ति स्वयं की ही हरकत समझ नहीं पाता तब ही दूसरे के पूछने पर कहता है कि तुम नहीं समझोगे। ऐसा मैं आज अपने चारों ओर देख रहा हूँ। कुछ लोगों ने तो इसी के चलते पूछने पर ही पाबंदी लगा दी है ताकि यह भी न कहना पड़े कि ‘तुम नहीं समझोगे?’

खैर, एक दो दिन बाद फिर वह चौक पर नजर आए। वैसे ही  हाथ में डायरी और कलम थामें। आज खुद उन्होंने आगे बढ़ कर प्रणाम किया। ऐसा वो प्रायः तभी करते हैं जब उनको आपसे कोई काम निकलवाना हो जैसे  हमारे नेता चुनाव के दौरान करते हैं। बाकी समय तो वो मान कर चलते हैं कि ‘तुम नहीं समझोगे।’ इससे पहले कि वो कुछ कहते, हमने फिर वही प्रश्न दोहराया। कहने लगे कि चलो, उस चाय की दुकान पर बैठ कर बताते हैं। चाय नाश्ता भी हो जायेगा और चाय पर चर्चा भी।

चाय नाश्ता आते ही वह चर्चारत हुए। कहने लगे कि ‘आजकल मैं समय लिख रहा हूँ’ समझे? मेरे कानों में महाभारत टीवी सीरियल का ‘मैं समय हूँ’ गूँज उठा पूरे शंखनाद के साथ। मैंने पूछा कि वो महाभारत वाले समय की आत्मकथा लिख रहे हैं क्या? मुस्कराते हुए कहने लगे- मैं जानता था कि तुम नहीं समझोगे। चलो तुमको इसे सरल शब्दों में समझाता हूँ।

एकदम से मुझे पुनः ख्याल आया कि मैं इस विचारधारा का भी घोर समर्थक रहा हूँ कि जब कोई अपनी ही कही किसी बात को सरल शब्दों में समझाने की पेशकश करे, तो यह तय है कि सरल शब्द पहले कही गई बात से भी अधिक कठिन होने वाले हैँ अन्यथा तो वो पहली बार में ही अपनी बात सरल शब्दों में कर लेते और मामला यहाँ तक न पहुंचता।

नेताओ को मंचों से अपने प्रस्तावित विधेयकों को आम जनता को सरल शब्दों में समझाते देखने और सुनने के घोर अनुभव के बाद ही मैं उपरोक्त विचारधारा का समर्थक हुआ हूँ।

वह सरल शब्दों में बोले कि दरअसल मैं भविष्य का इतिहास लिख रहा हूँ।

अब वह मेरे चेहरे पर उभरे प्रश्न चिन्ह को मुस्कराते हुए पढ़ रहे थे। कहने लगे कि एक चाय और मंगाओ, मैं तुम्हें विस्तार से समझाता हूँ। हालांकि मैं उस विचारधारा का भी घोर समर्थक रहा हूँ जिसमें इंसान सामने वाले को विस्तार से समझाने के लिए इतना आमादा हो जाता है कि सामने वाला समझने पर हो जाये।

उन्होंने अबकी बार विस्तार से समझाना शुरू किया। अपनी डायरी खोल कर दिखाई। पहले दो पन्नों में अपना नाम, पावन जन्म स्थल, जन्म तिथि, परिवार, बचपन से कुशाग्र बुद्धि के मालिक एवं कुछ उनके शौर्य के किस्से एवं बहादुर  होने का परिचय, प्रारंभिक शिक्षा आदि का विवरण, घर से भाग जाने का विस्तृत वृतांत, फिर एकाएक ‘उच्च शिक्षा -स्नातक एवं स्नातकोत्तर’ वाले हिस्से में शीर्षक के बाद एक पैराग्राफ की खाली जगह, फिर प्रारंभिक संघर्ष गाथा जिसमें साइकिल चलाना सीखने से लेकर उसी साइकिल से शहर तक चले आने, जिसे उन्होंने देशाटन का नाम दिया, की कथा। फिर कुछ खाली पंक्तियों के बाद नया शीर्षक ‘उपलब्धियां एवं गौरव’ के बाद पूरी कोरी डायरी।

दो लिखित और ९८ अलिखित पन्नों की डायरी को जब उन्होंने विस्तार से समझाया, तब निश्चित ही मेरी  मंदबुद्दि के बावजूद उसमें कुछ प्रश्न कौंधे कि यह ‘उच्च शिक्षा -स्नातक एवं स्नातकोत्तर’ और ‘उपलब्धियां एवं गौरव’ वाले हिस्से खाली क्यूँ हैँ?

वे पुनः मुस्कराये कि तुम नहीं समझे न? मुझे मालूम था कि ‘तुम नहीं समझोगे।’ यह ‘उच्च शिक्षा -स्नातक एवं स्नातकोत्तर’ वाला हिस्सा तो चुनाव जीतते ही भर जायेगा। बस, जरा पावर हाथ आने दो। बाकी सब सेट है।

मैंने कहा कि चलिए वो तो मान भी लें लेकिन ‘उपलब्धियां एवं गौरव’? उसका क्या – आज तक तो आपने ऐसा कोई काम किया नहीं है जिसे उपलब्धियां एवं गौरव गिना जा सके। ले दे कर मोहल्ले के जिस मकान में आप किराये पर रहते थे, उसके अहाते में आपने वृक्षारोपण समारोह कर बरसों पहले एक फल का पेड़ लगाया था। पेड़ जब बड़ा हुआ तब लोगों को पता लगा कि पेड़ तो बबूल का था और उसकी जड़ें भी विकास करते हुए इतनी विकसित हो गई कि अहाते की दीवार ढहा गईं और फल के नाम पर कांटे ही कांटे। यह ‘उपलब्धियां एवं गौरव’ वाला डायरी का हिस्सा तो कोरा का कोरा ही रह जाने वाला है।

चाय नाश्ता कर लेने के बाद दूसरी चाय भी अब खत्म हो चुकी थी अतः वे पुनः मुस्कराये और बोले ‘तुम नहीं समझोगे।’

दरअसल एक बार चुनाव जीत कर मुझे कुर्सी पर काबिज तो हो जाने दो फिर तो मेरे चाहने वाले इस हिस्से को खुद ही लिख लिख कर इतना भर डालेंगे कि इतने पन्ने भी कम पड़ जायेंगे। इसके लिए मुझे कुछ भी करने की जरूरत नहीं है।

वाकई वो कितना सही कह रहे थे और मैं मूर्ख समझ ही नहीं पाया। ‘उच्च शिक्षा -स्नातक एवं स्नातकोत्तर’ वाला हिस्सा तो चुनाव जीतते ही भर गया और ‘उपलब्धियां एवं गौरव’ वाले पन्नों पर पन्ने भरते चले जा रहे हैं और उनको कुछ करने की जरूरत भी नहीं पड़ रही है।

-समीर लाल ‘समीर’


भोपाल से प्रकाशित दैनिक सुबह सवेरे के रविवार सितंबर २७,२०२० के अंक में:

http://epaper.subahsavere.news/c/55240664


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5 टिप्‍पणियां:

Gyan Vigyan Sarita ने कहा…

Again an exciting article with paradox of phrase घोर समर्थक, great....

दिव्या अग्रवाल ने कहा…

आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज रविवार 27 सितंबर 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

बहुत सुन्दर।
--
पुत्री दिवस की बधाई हो।

सुशील कुमार जोशी ने कहा…

लाजवाब

Manish Mahawar ने कहा…

बहुत शानदार!
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