शनिवार, दिसंबर 19, 2020

विकास की रेल यात्रा

 


चार दिन बाद गोरखपुर, उत्तर प्रदेश से लौटा. बचपन में भी हर साल ही गोरखपुर जाना होता था. ननिहाल और ददिहाल दोनों ही वहाँ हैं. तब तीन दिन की रेल यात्रा करते हुए राजस्थान से थर्ड क्लास में जाया करते थे. कोयले वाले इंजन की रेल. साथ होते लोहे के बक्से, होल्डाल, पूरी, आलू और करेले की तरकारी. सुराही में एकदम ठंडा पानी. रास्ते में मूंगफली, चने, कुल्हड़ में चाय. फट्टी बजाकर गाना गा गा कर पैसा मांगते बच्चे.राजनित और न जाने किन किन समस्याओं पर बहस करते वो अनजान सहयात्री जिनके रहते इतने लम्बे सफर का पता ही नहीं चलता था.तीन दिन बाद जब घर पहुँचते तो कुछ तो ईश्वरीय देन( खुद का रंग) और कुछ रेल की मेहरबानी, लगता कि जैसे कोयले में नहाये हुए हैं. इक्के या टांगे में लद कर नानी/दादी के घर पहुँचते थे. फिर पतंग उड़ाना, मिट्टी के खिलोने-शेरे, भालू.हर यात्रा याददाश्त बन जाती. जैसे ही वापस लौटते, अगले बरस फिर से जाने का इन्तजार लग जाता.घर लौट कर फट्टी वालों की नकल करते, उनके जैसे ही गाने की कोशिश,

इस बार जब गोरखपुर से चला तो वही पुराने दिनों की याद ने घेर लिया. मगर एसी डिब्बे में वो आनन्द कहाँ? और यात्रा भी मात्र १६ घंटे की. यही सोच कर एसी अटेंडेन्ट को सामान का तकादा कर कुछ स्टेशनों के लिए जनरल डिब्बे में आकर बैठ गया. कितना बदल गया है सब कुछ. काफी साफ सुथरा माहौल. न तो कोई बीड़ी पी रहा था. न बाथरुम से उठती गंध, न मूंगफली वाले, न कुल्हड़ वाली चाय. जगह जगह ताजे फलों की फेरी लगाते फेरीवाले, प्लास्टिक के कप में बेस्वादु चाय, कुरकुरे और अंकल चिप्स बेचते नमकीन वाले. बस्स!! लोहे की संदुक की जगह वीआईपी और सफारी के लगेज जिनके पहियों ने न जाने कितने कुलियों की आजिविका को रौंद दिया, वाटर बाटल में पानी. आपसी बातचीत का प्रचलन भी समाप्त सा लगा, अपने सेलफोन से गाने बजाते मगन लोगों की भीड़ में न जाने कहाँ खो गये वो हृदय की गहराई से गाते फट्टी वाले बच्चे और राजनित पर बात करते सहयात्री.

कहते है सब विकास की राह पर है. वाकई, बहुत विकास हो रहा है. आम शहरों में न बिजली, न पानी, न ठीकठाक सड़कें..बस विकास हो रहा है. बच्चे बच्चे के हाथ में सेल फोन, तरह तरह की गाड़ी, सीमित जमीनों के बढ़ते दाम, लोगों के सर पर ऋणों का पहाड़, हर गांव-शहर से महानगरों को रोजगारोन्मुख पलायन करते युवक, युवतियाँ. भारत शाईनिंग-मगर मुझे पुकारता मेरे बचपन का भारत-जिसे ढ़ूंढ़ने मैं आया था, न जाने कहाँ खो गया है और अखबार की खबरें कहती है कि इसी के साथ ही खो गई है वो सहिष्णुता, सहनशीलता, आपसी सदभाव और सर्वधर्म भाईचारा. सब अपने आप में मगन हैं.

मुझे बोरियत होने लगती है. मैं उठकर अपने एसी डिब्बे में वापस आ जाता हूँ.

-समीर लाल ‘समीर’

भोपाल से प्रकाशित दैनिक सुबह सवेरे के रविवार दिसम्बर २०, २०२० के अंक में:

http://epaper.subahsavere.news/c/57148406

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रविवार, दिसंबर 13, 2020

अगर ससम्मान जीवन जीना है तो वक्त के साथ कदमताल करो

 


किसी ने कहा है कि अगर ससम्मान जीवन जीना है तो वक्त के साथ कदमताल कर के चलो अर्थात जो प्रचलन में है, उसे अपनाओ वरना पिछड़ जाओगे. अब पार्ट टाईम कवि हैं, तो उसी क्षेत्र में छिद्रान्वेषण प्रारंभ किया. ज्ञात हुआ कि वर्तमान प्रचलन के अनुसार, बड़ा साहित्यकार बनना है तो दूर दराज के विदेशी कवियों की रचनाऐं ठेलो.

पोलिश कवियत्री, रुमानिया का कवि, उजबेकिस्तान का शायर, फ्रेन्च रचनाकार, और साथ में इटेलियन चित्रकार की चित्रकारी ससाभार उसी चित्रकार के, जैसे कि उसे व्यक्तिगत जानते हों. वैसे, बात जितनी सरल लग रही है, उतनी है नहीं. मन में कई संशय उठते हैं. अतः मैने अपने मित्र को किसी के द्वारा प्रेषित एक बड़े साहित्यकार द्वारा छापी एक विदेशी कवि की रचना मय चित्र भेज कर उसके विचार जानने चाहे. त्वरित टिप्पणी में उसे हमसे भी ज्यादा महारथ हासिल है. तुरंत जबाब आ गया. कहते हैं कि कविता तो खैर जैसी भी हो, विदेशी होते हुए भी हिन्दी पर पकड़ सराहनीय है.

मैं माथा पकड़ कर बैठ गया. लेकिन फिर सोचता हूँ कि इसमें उसकी क्या गल्ती है. अव्वल तो ऐसी कविताओं के साथ लिखा ही नहीं होता कि यह अनुवाद है या भावानुवाद या किसने किया है और अगर गल्ती से लिख भी दें तो कहीं कोने कचरे में हल्के से और कवि का नाम और उनका देश बोल्ड में.

मगर फैशन है तो है. सब लगे हैं तो हम क्यूँ पीछे रहें. शायद इसी रास्ते कुछ मुकाम हासिल हो.

मूल चिन्ता यह नहीं की कैसे करें? मूल चिन्ता है कि किसकी कविता का अनुवाद करें? वो बेहतरीन रचना मिले कहाँ से, जो हिन्दी में भी बेहतरीनीयत कायम रख सके? घोर चिन्तन और संकट की इस बेला में हमें याद आया हमारा पुराना संकट मोचन मित्र. उसकी दखल हर क्षेत्र में विशेषज्ञ वाली है और इसी के चलते कालेज के जमाने में उसे संकट मोचन की उपाधि से अलंकृत किया गया था हम मित्रों के द्वारा. संकट कैसा भी हो, उन्हें पता लगने की देर है और वो उसे मोचने चले आयेंगे. अतः हमने खबर भेजी कि संकट की घड़ी है, चले आओ और वो हाजिर.

विषय वस्तु समझने, सुनने और अनेकों उदाहरण जो मैने प्रस्तुत किये, देखने के बाद पूरी अथॉरटी से बोले: ’यार, तुम भी तो कविता लिखते हो? एकाध गद्यात्मक कविता निकालो अपनी डायरी से.’ हमने धीरे से अपनी एक कविता बढ़ा दी. एक नजर देखकर बोले, हाँ, यह चल जायेगी क्यूँकि कुछ खास समझ नहीं आ रही कि तुम कहना क्या चाह रहे हो!!’

फिर उन्होंने इन्टरनेट का रुख किया और गुगल सर्च मारी: ’स्विडन के फेमस लोग’. सर्च के जबाब में ओलिन सरनेम चार पाँच बार दिखा, नोट कर लिया. दूसरा सरनेम दो बार दिखा तो वहाँ से फर्स्ट नेम ’पीटर’ निकाल लाये और शीर्षक तैयार ’स्विडन के प्रख्यात जनकवि पीटर ओलिन की कविता’. मेरा तो नहीं मगर इस संकट मोचक का दावा है कि बहुतेरे लोग इसी तरह चिपका रहे हैं अपनी रचनाऐं विदेशी नाम से और चल निकले हैं.

आगे के लिए भी सलाह दी है कि अगर कविता तैयार न हो तो किसी भी जगह से ८-१० लाईन का अच्छा गद्य उठा कर कौमा फुलस्टाप की जगह बदलो. शब्दों की प्लेसिंग बदलो, थोड़ा कविता टाईप शेप देकर ठेल दो, तुम तो कवि हो, इतना तो समझते ही हो. एक विदेशी नाम मय देश के चेपों और बस, चल निकलोगे गुरु.

 

संकट मोचन तो हमारा संकट मोच चले गये, कहीं और किसी और का संकट मोचने और हम खोज रहे हैँ एक नया विदेशी नाम अपनी अगली कविता के लिए.

अपना काम का श्रेय किसी और को देने वाला हम जैसा दानवीर साहित्यकार कहीं न देखा होगा। इतिहास में नाम दर्ज होकर रहेगा.

-समीर लाल ‘समीर’

 

 

भोपाल से प्रकाशित दैनिक सुबह सवेरे के रविवार दिसम्बर १३ , २०२० के अंक में:

http://epaper.subahsavere.news/c/56998010

 

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शनिवार, दिसंबर 05, 2020

बहुत कमजोर होता है जिज्ञासुओं का पाचन तंत्र

 


तिवारी जी का कहना है कि आजकल वो फैशनेबल हो गए हैं। अचरज बस इस बात का है कि तिवारी जो पहले भी इसी लिबास में रहते थे और आज भी, चलते भी उसी साइकिल पर हैं पिछले कई दशकों से, फिर फैशनबेल होने से क्या फरक पड़ा?

जिज्ञासुओं का पाचन तंत्र हमेशा से कमजोर माना गया है। कोई भी जिज्ञासा पचा ही नहीं पाते। इसीलिए जिज्ञासु अच्छे नेता नहीं बन पाते होंगे। कठोर त्वचा और घनघोर पाचन क्षमता तो नेतागिरी के लिए आवश्यक तत्व हैं। गाली खाने से लेकर पैसा पचा जाने तक में न कोई शर्म आए और न ही डकार, तो ही आप सफल नेता बन सकते हैं।

जिज्ञासु प्रवृति का होने की वजह से मैं भी अपनी जिज्ञासा पचा न पाया और उनसे पूछ बैठा कि आप अपनी ही बात कर रहे हैं न? मुझे तो आप बिल्कुल पहले वाले ही नजर आ रहे हैं, क्या बदला है आपके फैशनेबल हो जाने से?

तिवारी जी उन्हीं जानी पहचानी नजरों से मुस्कराते हुए मुझे देखा जिसमें वो बिना बोले ही बोल जाते है कि तुम कितने बड़े बेवकूफ हो, कुछ समझते ही नहीं? इन नजरों का फायदा उनको तब पक्का मिलेगा जब कभी वो चुनाव जीत कर मंत्री बन जाएंगे। हर नेता चुनाव जितने के बाद उनके वादे याद दिलाने पर ऐसे ही तो मुस्कराता है और बिना बोले बोल जाता है कि तुम कितने बड़े बेवकूफ हो!!

मुस्कराने के बाद करीबी संबंधों की वजह से उन्होंने बताया कि आजकल वो अधिकतर समय स्व-उत्थान में लगा रहे हैं। सफलता के सिद्धांत सीख रहे हैं। जीवन में तरक्की करने के सूक्ष्म सूत्र समझ रहे हैं। ऐसी ऐसी गहन विधायें जान गए हैं कि किसी भी मनचाही मंजिल पर पहुँचने के लिए मंजिल खुद चल कर आप तक आए।

मैं आश्चर्य चकित सा उनकी बात सुन रहा था। मैंने कहा कि आप कहाँ से और कैसे सीख रहे हैं यह बाद में बताइएगा मगर पहले यह बतायें कि उम्र के इस पड़ाव में, जहाँ से इंसान ढलान पर उतरने की तैयारी करता है, तब आप चढ़ने के गुर सीखने निकले हैं?

तिवारी जी पुनः उन्हीं जानी पहचानी नजरों से मुस्कराये। फिर बोले उसका भी जबाब देता हूँ।  मगर पहले यह जान लो कि यूट्यूब पर ज्ञान का सागर है। आजकल यही फैशन ट्रेंड है। हजारों मोटिवेशनल स्पीकर सुबह से शाम तक यही सिखा रहे हैं। बस आपमें सीखने की ललक होना चाहिए। पिछले दो दिनों से तो एक स्पीकर को सुन कर मैं चार बजे सुबह उठ जाता हूँ यूट्यूब सुनने के लिए। वो बता रहे थे कि यदि आप २१ दिन तक कोई भी कार्य लगातार करें तो वह आपकी आदत बन जाता है। २१ दिन के बाद ४ बजे सुबह उठना मेरी आदत बन जाएगा। मैंने तिवारी जी से पूछा तो नहीं किन्तु जो बंदा रात में नींद की गोली खाकर सोता हो, वो चार बजे सुबह जागने की आदत डालने पर क्यूँ उतारू है? और अगर आदत पड़ भी गई तो जाग कर करेगा क्या? सारा दिन जो चौक पर पान की दुकान पर बैठा समय काटता है, उस अकेले के लिए पान वाला चार बजे तो दुकान खोलने से रहा। वैसे भी इन मोटिवेशनल स्पीकर्स को जरूरत से ज्यादा सुनने में और गंजेड़ी हो जाने में कोई खास फरक नहीं है। दोनों ही  निष्क्रियता के चरम पर बैठे मंजिल के खुद चले आने की ललक जगाए बैठे हैं।

तिवारी जी आगे बोले कि उम्र की तो हमसे बात करो मत – जब ७८ साल में बंदा अमरीका का राष्ट्रपति बन सकता है तो मैं कुछ तो बन ही सकता हूँ। मैं उनको क्या बताता कि वो ७८ साल की उम्र में राष्ट्रपति बना जरूर है मगर वो इसके पहले सारा जीवन पान की दुकान पर बैठा ज्ञान नहीं बाँट रहा था।

मैंने उनको समझाया कि नेता बनने के लिये ही अगर यह सब सीख रहे हैँ तो २१ दिन लगातार झूठ, वादा खिलाफी, गुंडई, रिश्वतखोरी, असंवेदनशीलता, अमानवीयता, घड़ियाली आँसू बहाने की प्रेक्टिस करके इन सबको   अपनी आदत बनाइये, फिर देखिए कैसे सफलता की मंजिल आप तक खुद चल कर आती है।  कैसे आपका ही नहीं आपके जानने वालों का जीवन भी सफल हो जाता है।

तिवारी जी आज पहली बार कुछ अलग तरह से मुस्कराये, मानो कह रहे हों कि मैं भी कहाँ यूट्यूब के चक्कर में पड़ा था, असली गुरु तो तुम निकले। आज पहली बार तिवारी जी एकदम मोटिवेटेड दिखे।

उनके इस भाव को देखकर मेरा मन हो रहा है कि मैं भी अपना यूट्यूब चैनल शुरू कर ही दूँ मोटिवेशनल स्पीकिंग का। लोग यही तो चाहते हैं इसीलिए फैशन में भी है।

-समीर लाल ‘समीर’

 

भोपाल से प्रकाशित दैनिक सुबह सवेरे के रविवार दिसम्बर ६, २०२० के अंक में:

http://epaper.subahsavere.news/c/56820874

 

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रविवार, नवंबर 29, 2020

सच की उम्र भला होती ही कितनी है?



पहनते तो अब भी वो धोती कुरता ही हैं और मुँह में पान भी वैसे ही भरे रहते हैं मगर कहते हैं कि  अब हम एडवान्स हो गए हैं। साथ ही वह यह हिदायत भी दे देते कि हम जैसे टुटपुंजिया और बैकवर्ड लोग उनसे कोई फालतू बहस न करें। 

नये नये रईस, नये नये नेता और नये नये एडवान्स हुए लोगों की समस्या यही है कि वो अपने इस नयेपन में अपना आपा खो बैठते हैं । एकाएक उन्हें उनके वर्ग के अलावा सब टुटपुंजिया नजर आने लगते हैं । दो दशक पहले यही हाल रेपीडएक्स इंग्लिश स्पीकिंग कोर्स से २१ दिन में नया नया अंग्रेजी बोलना सीखे लोगों का था। उन्हें वही दुकानदार, जिससे उन्होंने रेपीडएक्स इंग्लिश स्पीकिंग कोर्स की किताब के बारे में सुनकर किताब खरीदी थी, भी टुटपुंजिया नजर आने लगता है। वे अब उस दुकान पर जाना भी अपनी तौहीन समझते हैं और उस दुकान पर दिखाई पड़ते हैं, जहाँ सिर्फ अंग्रेजी की किताबें नहीं, इंग्लिश बुक्स मिला करती हैं।

पोमेरियन कुत्ते पालने वालों का मिजाज भी इनसे ही मिलता जुलता होता है। देशी नस्ल के कुत्ते उनको बैकवर्ड नजर आते हैं । ऐसे में अगर कोई देशी नस्ल का कुत्ता पाल ले वो तो बिल्कुल ही टुटपुंजिया कहलाएगा। भले हमारा आज का रहनुमा लाख सर पटक पटक कर देशी कुत्तों की बेहतरीन नस्लों की तारीफ और खूबियों के पुल बांधे, कोई फरक नहीं पड़ता। फरक शायद पड़ सकता था अगर उसकी बाकी कही बातें जैसे दिया, बाती, मोर, ताली आदि जाली न होती और अपना कुछ असर दिखाती। सियार आया सियार आया चिल्ला कर बेवजह भीड़ एकत्रित कर लेने की आदत वाले को जिस दिन सच में सियार आता है, कोई बचाने वाला भी नहीं मिलता।

खैर बात उनके एडवान्स हो जाने की थी। मैंने जानना चाहा कि आप किस बिनाह पर अपने आपको एडवान्स समझ बैठे हैं और हमसे दूरी बना रहे हैं?

उन्होंने स्पष्ट किया कि मैंने तुमसे पहले ही कह दिया है कि तुम जैसे जैसे टुटपुंजिया और बैकवर्ड लोग मुझसे कोई फालतू की बहस न करें। 

मैंने उन्हें जब आश्वस्त किया कि यह बहस नहीं मात्र मुझ अज्ञानी की जिज्ञासा है तब वह खुले।

उन्होंने बताया कि अब उन्होंने तकनीकी में महारत हासिल कर ली है और फिर सदी के नायक अमिताभ की स्टाइल अपनाते हुए उन्होंने मुझसे पूछा – मेरे पास ईमेल एकाउंट है, फेस बुक, ट्विटर, इंस्टाग्राम, व्हाट्सएप पर खाता है और तुम्हारे पास क्या है? हांय?

मुझे कुछ जबाब न सूझा और अनायास ही मुँह से निकल पड़ा- ‘मेरे पास!! मेरे पास कहने के लिए सच है!’ मैं बैकवर्ड ही सही – एक लिफाफा, ५ रुपये का डाक टिकट, एक कोरा कागज मेरे एक सच को बहुत दूर तक ले जाएगा।

वह मुस्कराये और बोले जैसा मैंने सोचा था तुम वैसे ही निकले। उनकी मुस्कान देखकर मैं समझ गया कि उन्होंने मुझे क्या सोचा था अतः उसे उगलवाना जरूरी न समझा। कौन खुद को बेवकूफ कहलवाना पसंद करेगा भला।

फिर उन्होंने आगे बताया कि कुछ फॉरवर्ड बनो – कब तक बैकवर्ड बने रहोगे? आज फॉरवर्ड का जमाना है। देखो सोशल मीडिया पर जो जितना फॉरवर्ड होता है, वो उतना ही बड़ा सच हो जाता है। आज जब वायरस से डरे लोग घरों में बंद एक दूसरे से बात करने से वंचित हैं, तब सच वही कहला रहा है जो सोशल मीडिया पर वायरल हो रहा है।

तुम लाख कागज पर सच लिखते रहो, जब तक तुम्हारा सच लोगों तक डाक से पहुंचेगा वो खंडहर में तब्दील इतिहास हो चुका होगा।  किसे समय है आज इतिहास जानने का। आज का युग तो एक पल पूर्व घटित सच को अगले पल वायरल हुए झूठ की चकाचौंध में भुला देने का है।  वरना किसी निरीह दामिनी के जधन्य रेप को कोई कैसे ऑनर किलिंग का नाम दे कर सच को रफा दफा कर देता?

मेरी मानो तुम भी आ जाओ सोशल मीडिया पर – मेरा खाता तुम लाइक कर देना, तुम्हारा खाता मै और हम तुम मिल कर एक झूठ को सच बनाने का वो व्यापार करेंगे जो आज की दुनिया में सबसे ज्यादा पनपता व्यापार है।

इसी फॉरवर्ड के व्यापार के कारण शायद कभी भविष्यदृष्टा ज्ञानियों ने कहावत बनाई होगी कि ‘बार बार बोला गया झूठ कुछ ही पल में सच हो जाता है।‘

वाकई अब लगने लगा है कि आज इस झूठ के बाजार में सच की उम्र भला होती ही कितनी है? सच की उम्र होती भी है या नहीं, कौन जाने।

-समीर लाल ‘समीर’  

 

भोपाल से प्रकाशित दैनिक सुबह सवेरे के रविवार अकतूबर २५, २०२० के अंक में:

http://epaper.subahsavere.news/c/55904874

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शनिवार, नवंबर 21, 2020

सब सो भी जायें तो भी वक्त आगे बढ़ता रहता है

पिछले कई दशकों में बहुत कुछ बदला मगर जो न बदला वो है नेताओं का किरदार और दूसरा बारात में बजते बैंड पर दो गाने – पहला ‘आज मेरे यार की शादी है’ और दूसरा ‘नागिन धुन’। तमाम गाने बज जायें मगर जब तक ये दो गाने न बजें, तब तक बारात मुकम्मल नहीं मानी जाती।

आज घंसु की बारात निकल रही थी। तिवारी जी ने, जैसा की इस खुशी के मौके का विधान है, शराब पी रखी थी और पीते ही जा रहे थे। वो नागिन धुन पर कुछ ऐसे नाचे कि लगा सड़क पर नागिन खुद बल खाकर नाच रही हो। हालाँकि तिवारी जी ने खुद कभी शादी नहीं की किन्तु बारात में जाने का तजुर्बा ऐसा कि घुड़ चढ़ी से लेकर द्वारचार के सभी रीति रिवाजों पर उनसे राय ली जाती। वैसे भी शिक्षा मंत्री शिक्षित भी हो ऐसा तो कोई जरूरी नहीं। कुछ तो पहली बार विश्वविद्यालय ही तब पहुंचे जब शिक्षा मंत्री बनने के बाद उन्हें भाषण देने बुलाया गया।  

तिवारी जी ने शराब के नशे में नाचते हुए बताया कि छोटे भाई की बारात में नाचने का आनंद ही अलग है। यह आनंद वैसे वो सदियों से उठाते आ रहे हैं। आज तक वो जिस भी बारात में दिखे, सब में घोड़ी पर उनका छोटा भाई ही होता था और वो शराब की नशे में धुत्त सड़क पर लोट लोट कर नागिन नाच रहे होते थे। मोहल्ले की शादियों में तिवारी जी को वो ही दर्जा प्राप्त था जो घोड़ी को होता है। बिना दोनों के बारात की कल्पना करना ही मुश्किल था। ऐसा नहीं था कि कोई भी बारात उनके बिना नहीं निकली हो लेकिन उनमें वैसा ही सूनापन होता जैसा कोई नेता खादी का कुर्ता पायजामा पहनने की जगह शर्ट पैन्ट में खड़ा भाषण दे रहा हो या कोई दरोगा बुलेट मोटर साइकिल की जगह लूना लिए चले जा रहा हो।

बारात जब दरवाजे लगती तो तिवारी जी लपक कर समधी से ऐसा गले लपटते कि अक्सर असली समधी वाली माला उनके गले में होती और असल लड़के का बाप गैंदे की माला पहने घूमता नजर आता। ये लपक कर गले लपटने की आदत उनको एक दिन राजनीति में विश्व स्तर पर विख्यात करायेगी, ऐसा आज के विश्व विख्यात नेता को देखते हुए मेरा दावा है।

दावत खाते हुए तिवारी जी से जब पूछा कि घंसु की भविष्य की क्या योजना है? तब उन्होंने बताया कि अब घंसु वंश आगे बढ़ायेंगे। हालांकि मेरे पूछने का तात्पर्य यह था कि घंसु करते धरते तो कुछ हैं नहीं, आगे जीवन कैसे चलायेंगे? लेकिन अपने यहाँ विडंबना यह रही है कि जो खुद को आगे बढ़ाने तक में सक्षम नहीं है, वो भी वंश आगे बढ़ाने में जुटा है। जिनकी अपनी कोई पहचान नहीं, वो भी न जाने किस वंश का नाम आगे बढ़ाने में लगे हैं। जो अपना घर तक न चला पाया वो देश चलाने लग जाता है। जिससे अपना खुद का अपना परिवार न संभला, वो भी आंखे मूंदे वसुधैव कुटुम्बकम् की माला जप रहा है। इन सबसे भी बड़ी विडंबना यह है कि वंश आगे तभी बढ़ेगा जब लड़का पैदा हो, लड़की नहीं। ओलम्पिक में तीर निशाने पर मार कर देश का नाम रोशन करने वाली लड़की वंश का नाम रोशन न कर पायेगी, यह कैसी सोच है?  

स्वाभाविक प्रश्न था अतः पूछ लिया कि तिवारी जी, आपने अपना वंश क्यूँ नहीं आगे बढ़ाया? शादी क्यूँ नहीं की?

तिवारी जी अहंकार भाव से मुस्कराये और कहने लगे कि तुम और बाकी लोग पैदा होते हैं। हम जैसे कम होते हैं, जो जन्म लेते हैं। हमारे जन्म लेने का एक उद्देश्य होता है। हम वंश नहीं, देश चलाने के लिए पैदा हुए हैं। हमारा जीवन बड़े उद्देश्य को ..... बोलते बोलते तिवारी जी बारात की मेहमानी भूलकर नशे में तारी कुर्सी पर ही सो गए।

अब समझ में आया कि न सिर्फ देश चलाने के नशे में इंसान मुख्य मुद्दे को भूल कर सो जाता है बल्कि देश चलाने का सपना भी उतना ही मादक और नशे में चूर करने वाला होता है।

घंसु सात फेरे लेने में व्यस्त थे ताकि वो वंश आगे बढ़ा पायें और मैं देश के भविष्य को कुर्सी पर सोता छोड़ कर घर चला आया।

देश आज आगे बढ़ रहा है और देश कल भी आगे बढ़ता रहेगा। सब सो भी जायें तब भी वक्त तो आगे बढ़ता ही रहता है।

-समीर लाल ‘लाल’

भोपाल से प्रकाशित दैनिक सुबह सवेरे के रविवार नवम्बर २२, २०२० के अंक में:

http://epaper.subahsavere.news/c/56505783

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शनिवार, नवंबर 07, 2020

सेलीब्रेटी का ज्ञानी होना कहाँ जरूरी है?

 

दिवाली आ रही है। सभी साफ सफाई और रंग रोगन में लगे हैं। तिवारी जी भी दो दिन से चौराहे पर नजर नहीं आ रहे। पता चला कि साफ सफाई में व्यस्त हैं।

कुछ लोगों का व्यक्तित्व ऐसा होता है जिनके लिए कहावत बनी है कि ‘कनुआ देखे मूड पिराए, कनुआ बिना रहा न जाए’ यानि कि वो दिख जाए तो सर दुखने लगे और न दिखे तो मन भी न लगे। अतः तय पाया गया कि उनके घर चल कर मिल लिया जाए।

घर पर तिवारी जी अपने लैपटॉप में सर धँसाए बैठे थे। नौकर ने बताया कि दो दिन से सारा दिन बस चाय पर चाय पी रहे हैं और लैपटॉप पर बैठे जाने क्या कर रहे हैं।

मैंने तिवारी जी से पूछा कि चौराहे पर तो खबर है कि आप साफ सफाई में व्यस्त हैं और आप तो यहाँ लैपटॉप लिए बैठे हैं। घर बिखरा पड़ा है और रंग पुताई का भी कुछ पता नहीं है। क्या चक्कर है? आप भी राजनीतिज्ञों की तरह ही व्यवहार करने लग गए हैं। खबर में कुछ और असल में कुछ?

कहने लगे कि तुम नहीं समझोगे। दरअसल हम अपना घर ही साफ कर रहे हैं। अब हम वर्चुअल दुनिया के वाशिंदे हैं। यूँ चौराहे पर और मोहल्ले भर में मिला जुला कर हमको से ३०० – ४०० लोग जानते होंगे। उनमें से भी १००-१५० तो सिर्फ बहस करने और मजाक उड़ाने वाले लोग हैं। मगर फेसबुक पर देखो – पूरे पाँच हजार मित्रों से खाता भरा हुआ है। न जाने कितने मित्र निवेदन स्वीकृति की प्रतीक्षा कर रहे हैं। ये फेसबुक की वर्चुअल दुनिया बस यहीं एक मामले में असल दुनिया जैसी है। हमारे चाहने वालों की तादाद देख कर जलती है। पाँच हजार के ऊपर मित्र बनाने ही नहीं देती। अब किसी को नया मित्र बनाना है तो पुराने किसी से मित्रता खत्म करो। बस, उसी साफ सफाई में लगे हैं। जिन लोगों ने हमसे बहुत दिनों से नमस्ते बंदगी नहीं की है, उन्हें अलग कर दे रहे हैं। ऐसे दोस्तों का क्या फायदा जिन्हें आपके हाल चाल लेने की भी सुध न हो।

बात तो सही है। असल जिन्दगी में भी ऐसे मित्रों का क्या फायदा जो आपके सुख दुख में साथ न आयें। मैं तिवारी जी से सहमत था। मगर आश्चर्य बस इस बात का था कि जिनसे साक्षात मिलने से दुनिया कतराती हो उनके फेसबुक पर पाँच हजार मित्र और उसके बाद भी अनेक मित्रता निवेदन प्रतीक्षारत हैं! न तो वो कोई ऐसी ज्ञान की बात करना जानते हैं, न ही कोई साहित्यकार हैं, फिर आखिर लोग किस बात की भीड़ लगाए हैं उनके वर्चुअल दर पर?

साफ सफाई करते हुए वो बात करते जा रहे थे। मैंने उनसे निवेदन किया कि आप मुझे भी अपना लिंक भेज दीजिए तो हम भी आपके वर्चुअल दोस्त बना जाएँ। उन्होंने हामी भरते हुए कहा कि ठीक है, भेज देंगे। तुम निवेदन भेज देना। अभी तो बहुत सारे प्रतीक्षा में हैं, जब तुम्हारा नंबर आएगा तब देखेंगे। आशा है तुम मेरी मजबूरी समझोगे और अन्यथा न लोगे। मेरा व्यवहार तो तुम जानते हो। मैं परिवारवाद और व्यक्तिगत संबंधों को अलग से बिना मेरिट के फायदा पहुंचाने वाली मानसिकता से परे रहना चाहता हूँ। इससे वर्चुअल दुनिया में मेरी सेलीब्रेटी स्टेटस को आघात पहुँच सकता है। उनकी वाणी से ठीक वैसा ही अहसास हो रहा था जैसा कि जब आपका जानने वाला एकाएक मंत्री हो जाता है। वो संबंधों के चलते आपसे पैसा खा नहीं सकता, अतः एकाएक आपके लिए वह अपने को सिद्धांतवादी घोषित कर देता है।

घर आकर देखा तो व्हाट्सएप पर उनका लिंक आया हुआ था। जिज्ञासा थी कि देखा जाए ऐसा क्या कर रहे हैं तिवारी जी कि सेलीब्रेटी हो गए हैं?

उनका फेसबुक का पन्ना खोल कर देखा तो रोज सुबह गुड मार्निंग की तस्वीर और रात में गुड नाइट की तस्वीर के सिवाय कुछ था ही नहीं, फिर भी इतने मित्र!

तभी एकाएक उनकी प्रोफाइल पर नजर पड़ी और सारा माजरा एक पल में साफ हो गया। जिस तरह राम और कृष्ण अंग्रेजी में रामा और कृष्णा हो जाते हैं, उसी तरह कमल तिवारी जी फेसबुक प्रोफाइल पर अंगरजी में कमला तिवारी हो गए थे और कमला नाम से गूगल सर्च करके जो तस्वीर मिली, उसे अपनी प्रोफाइल में लगाए हुए थे। मुझे यह भी ज्ञात है कि तिवारी जी ने यह जानबूझ नहीं किया होगा। उनको तो जब उन्होंने फेसबुक का खाता खोला होगा, प्रोफाइल पिक्चर का अर्थ भी नहीं मालूम रहा होगा। अतः गूगल सर्च कर ली होगी कि कमला की प्रोफाइल पिक्चर और लगा दी होगी।

सेलीब्रेटी का ज्ञानी होना कहाँ जरूरी है? फिर वो चाहें वर्चुअल दुनिया हो या असली।

-समीर लाल ‘समीर’    

भोपाल से प्रकाशित दैनिक सुबह सवेरे के रविवार नवम्बर ८, २०२० के अंक में:

http://epaper.subahsavere.news/c/56216407

 

 

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शनिवार, अक्तूबर 31, 2020

हर अभियान पूर्ण समर्पण माँगता है..

 

हाल ही में तिवारी जी को प्रदेश नशा मुक्ति अभियान का संयोजक नियुक्त किया गया। बड़ा पद है। राज्य मंत्री का दर्जा प्राप्त है। जैसा की होता है ऐसे पदों पर आकर लोग किताबें लिखने लग जाते हैं। कोई जन आंदोलन पर लिखता है तो कोई स्वराज पर। अतः तिवारी जी भी ‘नशा एवं समाज पर उसके दुष्प्रभाव’ नाम से किताब लिखने लगे हैं. . .  

पद पर रहते हुए किताब लिखने का फायदा यह रहता है कि किताब के न बिकने की संभावना बिल्कुल समाप्त हो जाती है एवं ऊपर वाले की कृपा से यदि कार्यकाल बढ़ता गया तो हर बार एक नया संस्करण भी आता जाता है और न सिर्फ आता है बल्कि आते ही बिक भी जाता है। अब चूंकि विभाग वही है तो ठेकेदार और सप्लायर भी आमूमन वही होते हैं। मगर इसके बावजूद भी हर बार नया संस्करण वो ही ठेकेदार और सप्लायर पुनः न सिर्फ उसी ऊर्जा के साथ खरीदते हैं बल्कि दुगनी ऊर्जा के साथ पढ़कर और लेखक की लेखन क्षमता पर गदगद होकर पुनः बधाई भी देते हैं। लेखक महोदय भी हर बार उसी किताब के लिए उन्हीं लोगों से नई बधाई लेकर अपने लेखन को माँ शारदा का आशीष बताते हैं।

आजकल तिवारी जी सुबह से शाम तक जगह जगह नशा बंदी पर सेमीनार करने और अनेक ऐसे ही कार्यक्रमों की अध्यक्षता करने में व्यस्त रहते हैं। निजी सचिव भी मिला है। आदत छूटने में समय लगता है अतः अपने निजी सचिव जो कि सरकारी सेवा से पदस्त किया गया है, उसे अक्सर सर बोल देते हैं और उसके आने पर कभी कभी प्रणाम करते हुए खड़े भी हो जाते हैं। उनके इस व्यवहार को उनके आस पास के लोग उनकी विनम्रता बताते हैं।

निजी सचिव जो भाषण लिख कर हर समारोह के लिए देता है, उसे वह एक फाइल में सहेज रहे हैं। फाइल का नाम उन्होंने अपने हाथ से ‘किताब’ लिखा है। आज वह एक वृद्धा आश्रम का उदघाटन करने गए थे। लौट कर उसका भाषण भी ‘किताब’ फाइल में फाइल करने जा रहे थे। फिर निजी सचिव के मना करने पर फाइल नहीं किया। इन पॉलिटिकल नियुक्तियों वालों की एक बात तो खास होती है कि भले किसी की सुनें या न सुनें, अपने निजी सचिव की और अंगरक्षक की जरूर सुनते हैं।

बहरहाल नशा मुक्ति अभियान चलाते चलाते और भाषण देते देते तिवारी जी को एक तो पॉवर का, दूसरा किताब जल्दी से जल्दी छपवा कर अपने आपको बुद्धिजीवी साबित करवा लेने का नशा सा लग गया है। दिन रात उसी नशे में डूबे डूबे नशा मुक्ति अभियान चला रहे हैं। जैसे गरीबों को गरीबी से मुक्त करके अमीर बनाते बनाते नेता जी खुद और अमीर हो जाते हैं और गरीब वहीं का वहीं रह जाता है।

इसी भागा दौड़ी में तिवारी जी रोज इतना थक जाते कि जहाँ पहले दो पैग पीकर अच्छी नींद आ जाया करती थी, वहीं आजकल चार चार पैग पीकर भी ठीक से नहीं सो पाते हैं। हर वक्त नशा मुक्ति अभियान को सफल बनाने की चिंता खाए जाती है।

आज बहुत दिनों बाद मेरी उनसे देर शाम घर पर मुलाकात हुई। थके हारे अभियान की सफलता को लेकर चिंतित अभी अभी शहर के लिकर किंग जयसवाल जी की बेटे की शादी की दावत से लौटे थे। पद का सम्मान करते हुए शादी में उन्हें कोक में मिला कर शराब परोसी गई थी – आखिर जयसवाल जी उनके एकदम नए खास मित्र जो ठहरे। सबको पता था किन्तु जो भी तिवारी जी से दावत में मिल रहा था, उसे तिवारी जी जरूर बताते कि कोक पी रहे हैं।

चलते चलते जयसवाल जी ने उनकी गाड़ी में दो क्रेट शराब रखवा दी थी। तिवारी जी ने अपने लिए ग्लास बनाते हुए मुझे भी ऑफर किया। मेरे मना करने पर मेरे लिए बनाए ग्लास की भी अपने ग्लास में मिला ली।

मैंने जानना चाहा कि आप दिन भर नशा मुक्ति पर बोलते हैं। इसी पर किताब लिख रहे हैं।  इस अभियान की सफलता हेतु जितना चिंतित रहना चाहिए, उससे कई गुना ज्यादा चिंतित रह रहे हैं। फिर भी आपका शराब का उपभोग दूना हो गया है पहले से। यह तो ठीक नहीं।

तिवारी जी ने बुद्धिजीवियों वाली गंभीर मुद्रा से मेरी तरफ देगा। एक बड़ा घूंट गटकाया और बोले – गूगल करके देखो तो जरा कि जब से गोरक्षा अभियान ने जोर पकड़ा है, तब से आजतक बीफ का निर्यात कितना गुना बढ़ गया है? जब से किसानों की चिंता में उनकी भलाई के लिए सरकार अभियान चला रही है, किसानों की आत्महत्याओं में कितना गुना इजाफा हुआ है?

तुम समझते नहीं हो, इसी तरह तो अभियान चलाए जाते हैं। इतना कह कर तिवारी जी ने अपना अगला ग्लास बना लिया और मैं उन्हें नशा मुक्ति अभियान के प्रति उनके समर्पण भाव हेतु साधुवाद देकर घर वापस चला आया।

-समीर लाल ‘समीर’             

 

भोपाल से प्रकाशित दैनिक सुबह सवेरे के रविवार नवम्बर १,२०२० के अंक में:

http://epaper.subahsavere.news/c/56052451



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शनिवार, अक्तूबर 17, 2020

आर्टिफिशियल इंटेलिजेन्स और मशीन लर्निंग से बदलती दुनिया

 



पान की दुकान पर मुफ्त अखबार के अध्ययन से ज्ञान प्राप्त करने को अगर विश्व विद्यालय किसी संकाय की मान्यता देता तो तिवारी जी को निश्चित ही डॉक्टरेट की उपाधि से नवाजा जाता। डॉक्टरेट बिना मिले भी वह पान की दुकान पर प्रोफेसर की भूमिका का निर्वहन तो कर ही रहे थे। जो कुछ भी अखबार से ज्ञान प्राप्त करते, पान की दुकान पर उन्हीं की तरह फुरसत बैठे लोगों को अपना छात्र मानते हुए उनके बीच ज्ञान सरिता बहाते रहते। सब कुछ व्यवस्थित है, एक मान्यता को छोड़ कर। मान्यता नहीं है, इसलिए तो प्रोफेसर तिवारी को इस हेतु कोई तनख्वाह मिलती है और ही छात्रों से कोई शुल्क लिया जाता है।

छात्रों की हाजिरी भी तिवारी जी बस मुस्कराते हुए ऐसे लेते किजिंदा हो? कल दिखे नहीं’? छात्र का मन हो तो जबाब दे वरना पान सुरती दबाए चुप खड़ा मुस्कराता रहे। बस इसी मामले में इनकी कार्यशैली और व्यवहार सरकारी विद्यालयों से मिलता है।

आज तिवारी जी हाल ही में हुए विश्व स्तरीय सम्मेलनआर्टिफिशियल इंटेलिजेन्स के क्षेत्र में भातर के विश्वगुरु बनने की संभावनापर व्याख्यान दे रहे थे। यह विषय तो उपस्थित छात्रों के लिए एकदम अनजाना था। अतः तिवारी जी बिना व्यवधान के खुद की समझ के अनुसार सही गलत जैसा भी हो, बोल रहे थे। अनजाने विषय में यह सुविधा रहती है। जिस तरह हमारे शहरी नेता कभी CAA तो कभी NRC तो कभी कृषि बिल पर जनता को समझाने लगते हैं जबकि पता उन्हें भी कुछ नहीं होता।

तिवारी जी बता रहे हैं कि भविष्य वर्तमान से एकदम अलग होगा। अब तक तो निरबुद्ध चालाक लोग आपको बुद्धू बनाते थे किन्तु इस योजना के तहत असली बुद्धि वाले लोग आर्टिफिशियल इंटेलिजेन्स (कृत्रिम बुद्धि) वाली मशीनें बनाएंगे जो इंसानों की तरह काम करने लगेंगी। उनके अंदर इंसानों की तरह ही अनुभव और माहौल से नित सीखते जाने की क्षमता (मशीन लर्निंग) भी होगी।

इंसान को गलतियों का पुतला माना गया है। इंसान के जोड़ घटाने में गलती हो सकती है इसीलिए केलकुलेटर से जोड़ कर उसे सत्यापित किया जाता है। इस सत्यापन की विधि से तो कुछ लोग आज भी इतना प्रभावित हैं कि कंप्यूटर  से जुड़ कर निकले बिल को पहले जुबानी जोड़ते हैं और फिर केलकुलेटर से जोड़ने के बाद ही उसे सही मानते हैं।

आर्टिफिशियल इंटेलिजेन्स वाली मशीन और इंसानों में यही फरक है। वो भी पहले पहल ऐसा ही करेगी। फिर वो सीख जाएगी कि कंप्यूटर  से निकला जोड़ बार बार सही रहा है अतः उसे आगे से सही मानकर पुनः सत्यापित करने की आवश्यकता नहीं हैं।

सम्मेलन में बताया गया कि कैसे और कब चीन विश्व का मैन्युफैक्चरिंग हब बना। अब भारत आर्टिफिशियल इंटेलिजेन्स का हब बनने की काबिलियत रखता है। अगले २० से २५ साल के अंदर ऐसा हो जाने की संभावना है।  हालांकि जो कुछ पिछले -  बरसों में हो जाने की संभावना थी, उसमें से क्या हुआ और क्या नहीं, उसके ट्रेक रिकार्ड को खंगालने की आवश्यता नहीं है। सदैव आगे देखो और चलते रहो की नीति पर चलना ही विश्व गुरुतत्व प्राप्त करने का मार्ग है।

इतना ज्ञान पटकने के बाद तिवारी जी ने अपनी वाणी को विराम दिया और नया पान मुँह में भर कर गलाने लगे।

लोगों के दिमाग में तरह तरह के प्रश्न रहे थे कि जब हर तरफ मशीनें काम करने लग जाएंगी तो हमारे रोजगार जो बिना इनके हुए भी खत्म होते जा रहे हैं, उनका क्या होगा। कोई सोच रहा था  कि माना मशीन गल्तियों का पुतला हो तो भी गलती तो कर ही सकती है। कहीं गलती हो गई और मिसाईल वगैरह छोड़ दी तब?   

अब बारी तिवारीजी के सबसे मेधावी छात्र घंसू की थी। घंसू जानना चाहता है कि इसमें भिन्न क्या है?

आज असली बुद्धिमान इंसान याने कि मास्साब अपने असली छात्रों की बुद्धि में असली ज्ञान का भंडार भरते हैं और तब असली बुद्धि वाले अपने ही द्वारा निर्मित मशीनों की कृत्रिम बुद्धि में असल ज्ञान भर रहे होंगे।

असली छात्र बुद्धिमानी लेने के साथ साथ अपने आसपास के माहौल और तौर तरीकों से सीखता हुआ समाज में अपनी दक्षता के हिसाब से स्थापित हो जाता हैकोई अधिकारी बनाता है। कोई कामगार तो कोई नेता और कोई ज्ञान गुरु बाबा। कोई व्यापारी बन जाता है तो कोई अभिनेता। कोई चोर तो कोई डकैत। कोई ईमानदार तो कोई भृष्ट।

कृत्रिम बुद्धि वाली मशीनें भी अपने आस पास के माहौल से सीखेते सिखाते समाज में इन्हीं को तो रिप्लेस करेंगी और उन्हीं बातों को अंजाम देंगी। बल्कि बिना गलती के और आज से अधिक तेजी से।

आज जब सरकारी कछुआ चाल ने इतने सालों में सोने की चिड़िया को एक विलुप्त प्रजाति बना दिया है और दूध की नदियों का दूध पानी में बदल दिया है। तब घंसू सोच रहा है कि जब यह आर्टिफिशियल इंटेलिजेन्स वाली मशीनें इंसानों को रिप्लेस कर देंगी, तब सोने की चिड़िया को स्मृति से भी विलुप्त होने में और नदियों के दूध से बदले पानी को भाप हो कर गुम जाने में कितने दिनों का वक्त लगेगा?

अरे अगर कुछ बनाना ही है तो ऐसा कुछ बनाओ जो आज के असंवेदनशील हो चले समाज की बुद्धि में कुछ ऐसा भर दे कि उसकी संवेदनाएं पुनः जागें। वो एक बार फिर सहिष्णु हो जाये। इंसान जब सुबह उठ कर आईना देखे तो उसमें उसे इंसान ही नजर आए -हैवान नहीं।   

तिवारी जी ने इतनी देर से मुँह में गलता पान, स्वच्छता अभियान में अपने योगदान स्वरूप एक जोरदार पीक के साथ सड़क पर थूका और अपने घर की राह पकड़ी।

कल फिर जो हाजिर होना है अखबार से अर्जित अगले ज्ञान के साथ।

-समीर लालसमीर

भोपाल से प्रकाशित दैनिक सुबह सवेरे के रविवार अकतूबर १८, २०२० के अंक में:

http://epaper.subahsavere.news/c/55742528

 

 

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