शनिवार, मार्च 23, 2019

जुमलों की शेल्फ लाईफ बहुत थोड़ी होती है




रंग बिरंगी दुनिया मॆं कितने ही सफहें हैं अलग अलग रंगो के. हर वक्त हर व्यक्ति के लिए कोई न कोई नया रंग.  सब जोड़ कर देखो तो एक एकदम इन्द्रधनुषी दुनिया नजर आये. होना भी यही चाहिये.
कल ही होली के रंगो से सारोबार मस्ति में नाचते गाते लोग आज उसी रंग के निशानों को दाग बताने में जुटे हैं. यह भी हमारी गिरगिटिया मानसिकता का बदलता रंग ही तो है. होली के रंग दाग में तब्दील होते होते जब तक  गुम हो जायेंगे, उसके पहले देश पूरा चुनाव के रंग में रंग जायेगा.
चुनावों को कौन सा रंग कितना रंगता हैं वो ही निर्धारित करेगा कि आगे देश किस रंग में रंगेगा. भगवा, हरा, नीला, लाल और भी जाने कौन कौन से रंग उछाले जायेंगे. उछालने को क्या है, कीचड़ भी लोग उछालेंगे ही. अब आप चाहो तो उसे मटमैला मान लो या चितकबारा, क्या फर्क पड़ता है? मगर इस रंग से देश को रंग देना भी तो ठीक नहीं होगा. इन्द्रधनुषी देश मनभावन होता है और नजारा नयनाभिराम. काश!! सब रंग मिलजुल कर इन्द्रधनुष ही बनायें तो बेहतर!!
शायद इन्हीं चुनावों को रंगने के लिए एक देश भक्ति का रंग भी पूरे कैनवास पर ऐसा रंगा गया कि लगा हमारा नेता खुद ही हाथ में तलवार उठाये दुश्मन मुल्क में घर में घुस घुस कर मार रहा है. पुरजोर माईक से चीखा कि हम वो हैं जो घर में घुस कर मारते हैं. चीख चाख कर जब अपने ही लोगों के बीच से गुजरा तो जेड सिक्यूरिटी से घिरा हुआ निकला ताकि कोई अपना ही उनको उनके घर में घुस कर न मार दे. जिसे अपनों से मिलने और छूने में इतना डर लगता हो कि जेड सिक्यूरिटी का दायरा कभी छूटता ही नहीं. जो अपनों से ही सीधे बात चीत करने में डरता हो. जो बस रेडियो से मन की बात करता हो जिसमें सिर्फ सुनाने की क्षमता है, सुनने के नहीं. वो दुश्मन को घर में घुस कर मारने की बात करे, शोभा नहीं देता. यह हास्यास्पद है. यह तो हमारी सेना की शहादत, उनके शौर्य, उनकी वीरता को अपने खाते में लिख लेने जैसी बात हुई जो कतई बरदास्त करने योग्य नही.
कभी देश के लिए फांसी पर हंसते हुए अपने प्राणों की आहुति देने वाले देश प्रेमी एवं देश भक्त भगत सिंह गाते थे:
रंग दे बसन्ती चोला
मेरा रंग दे बसन्ती चोला माई रंग दे बसन्ती चोला।
इसी रंग में गांधी जी ने नमक पर धावा बोला।
मेरा रंग दे बसन्ती चोला।
उसी गाँधी को ढोंगी करार देने वाले उसके हत्यारे गोडसे की पूजा करने वाले आज वो ही गाना गा रहे हैं देश भक्ति में:
मेरा रंग दे बसन्ती चोला।
क्या विडंबना है!!
शायद वो वक्त अगर आज का होता तो बसन्ती भगवा होता और ये तथाकथित देश भक्त गा रहे होते:
मोहे रंग दे भगवा चोला!!
इसी रंग ने बावरी पर धावा बोला
मोहे रंग दे.
मुझे नहीं याद पड़ता वो भारत २०१४ के पहले का, जो कभी इस तरह के रंग भेद से प्रताड़ित रहा हो. मगर रंग बिरंगी दुनिया का क्या.. गिरगिट तो गिरगिट है..रंग बदलते रहना स्वभाव है!!
सब बदल सकता है मगर स्वभाव नहीं!
साँप आस्तीन में पालोगे तो एक दिन डसेगा ही!!
स्वभाव पहचानो. रंग परखना सीखो. इन्द्रधनुष से प्रेम करो, अकेले रंग से नहीं!!
दुनिया ब्लैक एण्ड व्हाईट से निकल कर रंग बिरंगी हुई है इन सत्तर सालों में. भ्रम में आना इनके जुमलों के कि ७० साल में कुछ हुआ ही नहीं, वरना आज रंग अपना अस्तित्व तलाश रहे होते और आप आँख मलते हुए सच में पूछ रहे होते कि क्या पिछले ७० साल  ही व्यर्थ गये?
जुमलों की शेल्फ लाईफ बहुत थोड़ी होती है. सजग रहना जरुरी है.
-समीर लालसमीर

भोपाल से प्रकाशित दैनिक सुबह सवेरे में रविवार मार्च २३, २०१९ को:
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4 टिप्‍पणियां:

Gyan Vigyan Sarita ने कहा…

None is complete in isolation. Therefore punchline of existing like Rainbow iz excellent.

The only tragedy is ambition of ibdividuals, which leaves little of a sustainable Rainbow.

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (25-03-2019) को "सबके मन में भेद" (चर्चा अंक-3284) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

M VERMA ने कहा…

सब बदल सकता है मगर स्वभाव नहीं
यकीनन

HARSHVARDHAN ने कहा…

आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन फ़ारुख़ शेख़ और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।