शनिवार, मई 05, 2018

बयानों की सत्ता है या सत्ता के बयान हैं?


लोकतंत्र में बयानों की बड़ी महत्ता होती है. एक जमाने में दुबई के सहरा में बेली डांस देखा था. नृतकी के शरीर की लचक इतनी ज्यादा थी कि लगता था शरीर में कोई हड्डी है ही नहीं. आज जब इन नेताओं के बयानों को सुनता हूँ और हर थोड़ी देर में उसके बदलते अर्थ के बारे में खबर आती है, तब उन बयानों की लचक अहसासता हूँ और सोचने को मजबूर हो जाता हूँ कि बेली डांसर की लचक भी कोई लचक में लचक थी. इनके बयान देखो ऐसे लचकदार कि जब भी देते हैं, सामने वाले तक पहुँचते पहुँचते लचक कर मतलब ही बदल जाता है. जितने कान, उतने मायने. सब अलग अलग लचक देखते हैं. नेता जी बयान देते हैं और जैसे ही कोई सुन कर अपना क्षोब प्रकट करता है, नेता जी कहने लगते हैं कि मेरे कहने का मतलब वो नहीं था जो आपने समझा. मीडिया को दिये बयान के साथ साथ ही नेता जी को यह बयान भी दे देना चाहिये कि यह जो मैं बयान दे रहा हूँ और यह जो आप सुन रहे हैं, वो मीडिया आपको तोड़ मरोड़ कर दिखा रहा है. मेरे कहने का मतलब वो नहीं है जो आप समझ रहे हैं.
मीडिया भी इन नेताओं के बयानों की इस लचक को पहचानता है. इसी के चलते वो कई बार तो बयान आने के पहले ही उसे तोड़ मरोड़ कर पेश कर देता हैं. फिर डीबेट में चीख चीख कर बयान उसी नेता के मूँह में डाल कर उगलवा भी लेता है. हालत तो यहाँ तक है कि एक नेता ने पिछले चुनावों में एक चैनल का बहिष्कार करते हुए उस पर आना छोड़ दिया तो हर डीबेट में वो एंकर उस नेता की नाम की खाली कुर्सी रखवा कर चिल्ला चिल्ला कर पूछा करता था कि आपको जबाब देना होगा..आपको बयान देना होगा..जनता जानना चाहती है. इण्डिया वान्टस टू नो..चीख इतनी तेज कि कई बार तो कुर्सी घबरा कर बयान देने की तैयारी में दिखने लगती थी.
बयान के नाम पर जो बयान टिकाऊ और कानूनी तौर पर मान्य होता है वो मृत्यु के जस्ट पहले दिया गया बयान होता है. इसके पीछे शायद मान्यता यह रही हो कि जो बंदा मर रहा है, वह झूठ क्यूँ बोलेगा? झूठ तो इंसान कुछ पाने या बचने के लिए बोलता है. मरने वाले को क्या बचना और क्या पाना? इसीलिये सच कहेगा. मगर जमाना ऐसा बदला कि आज जिसे देखो वो ही इस फिलासफी में यकीन किये बैठा है कि हम तो डूबेंगे मगर साथ तुम को भी ले डूबेंगे सनम!! हो भी क्यूँ न!! बुजुर्गों की इज्जत तो कर नहीं रहे हो जो वह तुमको आशीर्वाद देकर मरें. उनको तो आपने मार्गदर्शक मंडल में बैठाकर अपने आभामंडल की चमक से ऐसा बेइज्जत किया है कि मरते मरते भी अगर उनको मौका मिलेगा तो याद रखना, लेकर जरुर डूबेंगे साथ में.
वैसे राजनिती के सिद्ध लोग बयान को देने के वक्त और तरीके को देखकर बता लेते हैं कि बंदा इस बयान को देने के बाद माफी मांगेगा या इसकी काट में दूसरा बयान देगा या मीडिया के सर तोड़ने मरोड़ने का आरोप जड़ देगा.
कभी लगता है कि इन नेताओं के बयानों को भी मौत की तरह ही वरदान प्राप्त है कि बयान पर कभी गलत होने की बदनामी नहीं लगती. गलत होता है या तो बयान देने वाला या उसे सुनने वाला या उसे समझने वाला या उसे तोड़ मरोड़ कर प्रस्तुत करने वाला. ठीक वैसे ही जैसे कि मौत की कभी बदनामी नहीं होती, वो कभी बुढ़ापे के कारण, कभी दुर्घटना के कारण, कभी बीमारी के कारण के या अन्य किसी न किसी कारण के होती है, खुद से कभी नहीं होती.
लोकतंत्र में बयानों का एक स्वभाव यह भी है कि जो बयान आप विपक्ष में रहते हुए देते हैं, ठीक उसका उल्टा बयान आप सत्ता में आते ही देने लगते हैं. जिन बयानों का विपक्ष में रहते विरोध करते थे, सत्ता में आते ही वही बयान आप खुद देने लगते हो. एफ डी आई, जी एस टी, आधार कार्ड आदि सब इसी के उदाहरण हैं. यूट्यूब पर सब दर्ज है, इसमें झूठ बोलने की भी गुंजाईश नहीं है.
सब देखकर तो यही नतीजा निकलता है कि इन नेताओं की अपनी कोई सोच और विचारधारा नहीं होती है. विचारधारा की लचक इनके बयानों को लचकदार बनाती है. विचारधारा सिर्फ सत्ता और विपक्ष की होती है जिसे यह नेता सिर्फ पक्ष विपक्ष की भूमिका निभाने के लिए अपनाते हैं.
बेवकूफ बनना जनता के हिस्से में आता है, सत्ता और विपक्ष का तो सिर्फ चेहरा बदलता है, बयान वही रह जाते हैं.
समझ नहीं आता कि बयानों की सत्ता है या सत्ता के बयान हैं?
-समीर लाल ’समीर’

भोपाल से प्रकाशित दैनिक सुबह सवेरे में रविवार मई ६, २०१८ को प्रकाशित:  


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1 टिप्पणी:

Gyan Vigyan Sarita ने कहा…

समीर जी, बहुत खूब !!!,

अब न "रामराज्य" रह गया है ना शिवाजी का "स्वराज्य" जब राजा जनता के प्रति अपने को उत्तरदायी समझ कर स्वतः के प्रति कठिन निर्णय लेता था | यहाँ उन निर्णयों की समीक्षा करना उद्देश्य नहीं है परन्तु उनकी सोच पर आत्मचिंतन करना जरूरी है |
दुर्भाग्य हमारा की आज हम जिस गणतंत्र में जी रहे है सभी नेता सत्तालोलुप है और उसकी सिद्धि के लिए हर मार्ग अपनाने के लिए तैयार है, बेजिझक बाद में माफ़ी क्यों न मांगना पड़े | इसे यदि सुविधा एवं स्वार्थ का तर्क "Lohic of convenience and self-interest" कहें तो उचित होगा | इनका उद्देश्य सिर्फ सत्ता, अधिकार और उससे जुड़े फायदे हैं , हम तो सिर्फ उनके शतरंज के मोहरे है जो अपने शृद्धा,भय अथवा बहकावे से जुड़े स्वार्थ के कारण मर -मिटने के लिए तैयार हैं। .
समीर जी, अगली लेहनी के इन्तजार में....