बुधवार, मई 30, 2018

बंदी है कि हरी झंड़ी है?



Published in 7th Quarterly  e-Bulletin – Gyan Vigyan Sarita:शिक्षा dt 1st April’2018
एक नया कॉलम : अंदाज ए बयां - समीर लाल ’समीर’ by renowned author in Hindi, settled at Canada.


दिल्ली के मच्छर भी अगर बस मलेरिया के कारक हों तो फिर दिल्ली में रहने का क्या फायदा? मलेरिया तो गली गली, गाँव गाँव की बात है. दिल्ली में रहने की ठसक अलग होती है. ग्रेजुएट गाँव में पटवारी बनता है और १२ वीं पास  दिल्ली में मंत्री, वो भी ऐसा वैसा नहीं- शिक्षा मंत्री. इसी सम्मान का ध्यान रखते हुए दिल्ली के मच्छर भी मलेरिया नहीं, डेंगू देकर जाते हैं.
एक फिल्म में नाना पाटेकर को कहते सुना था कि एक मच्छर आदमी को हिजड़ा बना देता है. तब ताली बजाकर मच्छर मारे जाते थे. अब एक मच्छर आदमी को घर बैठे बेडमिन्टन की प्रेक्टिस करा देता है. आजकल जिसे देखो रेकेट से मच्छर मारता दिखता है. ताली बजाने का काम अब मंच से भाषण देते हुए जनता को चिढ़ाने के लिए किया जाता है अपने आप को सफल बताने के लिए. हालांकि ताली बजाकर मच्छर ही मार रहे होते हैं, इससे बड़ा तो कोई काम दिखता नहीं जो किया हो.
दिल्ली में चाहे जो भी दे दो उसका विरोध होता ही है फिर वो चाहे आरक्षण हो या अनुदान. अतः डेंगू जैसा मच्छरों के द्वारा प्रद्दत इस समस्यायुक्त जीवन की मुक्ति का सुगम मार्ग भी विरोध का सामना करने लगा. सारे बाबा आजकल मुक्ति के सुगम मार्ग पर ही प्रवचन दे दे कर पूरे देश को लूट रहे हैं. सब को धन मोह से मुक्त करा कर अपना खजाना भर रहे हैं. उसी जीवन से मुक्ति का मार्ग जब यह बेचारे दिल्ली के मच्छर प्रद्द्त करते हैं तो उन्हें मार डालने के उपाय पर चर्चा होती है. उनके नाम पर राजनिती होती है. दिल्ली सरकार कहती है कि दिल्ली में गंदगी की जिम्मेदार नगर महापालिका है जो हमारी पार्टी की नहीं है, जिसमें यह मच्छर पैदा होते हैं. फिर हमारे अंडर में दिल्ली पुलिस भी नहीं है कि हम इन मच्छरों को गिरफ्तार कर सकें. केन्द्र सरकार इन मच्छरों को संरक्षण दे रही है ताकि हम बदनाम हो जायें.
सुझाव आया कि दिल्ली में फॉग मशीन से धुँआ करवा कर इन मच्छरों को मरवा दिया जाये. मच्छर हैं कोइ गाय तो है नहीं कि इनको मारना धर्म विरोधी बात हो जाये. मगर जो फॉग मशीन नें धुँआ छोड़ा वो दिल्ली के वातावरण में ऑलरेडी घुले गाड़ियों के धुंए से कम जहरीला सा साबित हुआ और मच्छर तो मानो खुश होकर खुली हवा में दुगनी गति से साँस लेने लगे. उन्हें इन्तजार रहने लगा कि कब फॉग वाली गाड़ी आये और उन्हें बेहतर आबो हवा मिले.
किसी ज्ञानी ने सलाह दी कि ये ऐसे न मानेंगे.इनको मार कर क्यूँ हत्या का पाप लेना सर पर.इनकी नसबंदी करा दो..जैसे जैसे मरते जायेंगे..कम होते जायेंगे और धीरे धीरे खत्म हो जायेंगे. फिर पुराने नसबंदी के आंकड़े निकाले गये. उस पर आधारित शोध पत्र को जांचा गया और पाया गया कि भारत की जनसंख्या की वृद्धि में जितना नसबंदी का योगदान रहा है, उतना तो आयुर्वेदिक शिलाजीत का भी नहीं रहा. इमरजेंसी में जबरन नसबन्दी के बाद एकाएक भारत की जनसंख्या में जो बढ़ोतरी हुई वो कई कम आबादी वाले देशों को नसबन्दी के लिए प्रेरित करने के लिए पर्याप्त है. ये ठीक वैसा ही है जैसे जब जब भी सरकार ने भ्रष्टाचार को रोकने के लिए कड़क कदम उठायें हैं, भ्रष्टाचार एकाएक बढ़ता चला जाता है. मानो कड़क कदम न हों..फर्टीलाईजर हो..कि भ्रष्टाचार की फसल लहलहा उठी.
दरअसल बंदी शब्द ही हमारे देश में कमाल करता है. नशाबंदी वाले प्रदेशों में शराब की धड़ाधड़ बिक्री, नोटबंदी के बाद हजारों करोड़ के घोटालों का आंकड़ा, नसबंदी के बाद आबादी की वृद्धि, यहाँ तक कि नाकाबंदी को धता बताकर विदेश निकल लेने की आजादी में सुलभता..मानो बंदी न हो कर हरी झंड़ी हो. बंदी का रिकार्ड देखते हुए तो लगता है कि भारत में एक बार ईमानदारी पर पाबंदी लगा कर देखना चाहिये. कौन जाने भ्रष्टाचार बंद हो ही जाये.
फिर तय पाया कि इन मच्छरों को सम्मेलन बुलाकर इनको समझाईश दी जाये कि दिल्ली की जनता तुम्हारी दुश्मन नहीं हैं. उनके साथ मिल जुल कर प्रेमपूर्वक रहो. अगर तुमको खून ही पीना है तो तुम्हारे लिए सरकार ब्लड बैंक के दरवाजे खोल देगी. वो खून तो यूँ भी जरुरतमंदों तक कभी पहुँच ही नहीं पाता और अगर पहुँच भी जाये तो पीना तो तुमको ही है. तुम लोग सीधे ही पी लेना. समझाईश देने के लिए पेशकश करने वाले बाबा श्री ने बताया कि वे मच्छरों को आर्ट ऑफ बिना काटे लिविंग सिखायेंगे और इसके लिए जमुना किनारे मच्छरों का महा सम्मेलन बुलवाया जायेगा. पिछले इंसानी सम्मेलन का कचरा अब तक वहाँ पसरा है जो मच्छरों के लिए मुफीद माहौल रहेगा.
पिछले इंसानी सम्मेलन का जिक्र आते ही सरकार सतर्क हो गई और फिर नये सिरे से बदनामी न हो जाये ऐन चुनाव के पहले, इस हेतु यह पेश्कश भी दर किनार कर दी गई.
एकाएक इस ताजी सलाह पर सरकार गंभीरता से विचार कर रही है कि इन मच्छरों को बैंकों से तगड़ा लोन दिलवा दो ..ये खुद ही विदेश भाग जायेंगे.
फिर न मच्छर रहेंगे..न डेंगू.
सरकार इन मच्छरों का पासपोर्ट केंसल कर अपने हाथ झाड़ लेगी...फिर विदेश वाले अपनी देखें.
-समीर लाल समीर    


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शनिवार, मई 26, 2018

परदेस में बैठ कर देश की गर्मी की याद!


कनाडा में रहते हुए इतने बरस बीत जाने के बाद भी गर्मी का नाम सुनते ही भारत का मई, जून का महिना याद आने लगता है. जहाँ भीषण लू याद आती है तो वहीं कूलर और एसी की मस्त ठंडक भी. मच्छरों के डंक याद आते हैं तो साथ ही हिट, ऑल आऊट की टिक्की और कछुआ छाप अगरबत्ती का धुँआ भी याद आता है. बाद में तो खैर जब लोगों ने सारे खेल फोन और कम्प्यूटर पर खेलना शुरु कर दिये तो बेडमिंटन के रेकेटनुमा औजार लिए चट चट मच्छर मारते लोग नजर आने लगे थे. शायद प्रकृति ने लोगों को खेल की याद दिला कर स्वस्थ रहने का संदेश इसी बहाने भेजा हो वरना तो खेलकूद लोगों के जीवन से बाहर ही होता जा रहा है. गनीमत बस इतनी है कि अभी जिम जाने का और मैराथन दौड़ने का नया फैशन फोन पर ही जिम कर लेने और मैराथन दौड़ने में नहीं बदला है.
हालांकि नित गर्मी में एसी से निजात पाने के लिए पेड़ लगाने के जितने संदेशे व्हाटसएप से आ रहे हैं उतनी कोशिश अगर संदेश फॉरवर्ड करने की बजाये वाकई पेड़ लगाने की होती तो अब तक करोड़ों वृक्ष लग चुके होते. इस नये जमाने में सोशल मीडिया का वर्चूयल समाज हमारे एक्चूयल समाज पर अपनी फोटोशॉपिक पैकेजिंग लगा कर बैठ गया है. किसी के पास अब पैकेजिंग हटाकर असली माल देखने का समय नहीं है. जो दिखता है वो बिकता है बस!!
खैर, बात गरमी की चल रही थी तो गरमी के नाम से जहाँ आम, खरबूजा, तरबूजा, जामुन, लीची याद आते हैं, वहीं हमारे समय के लोगों को बेल का शरबत, आम का पना और गाजर की कांजी भी याद आती है. हाल के समय में जिस तरह अचार और पापड़ ने अधिकतरों घरों की छत और आंगन को छोड़ कर बाजार में शीशीयों और प्लास्टिक के पैकेटों में जगह बना कर जिन्दगी बचाई है, शायद कल को बेल का शरबत, आम का पना और गाजर की कांजी टेट्रा पैक में बिकती नजर आये वरना नई पीढ़ी इन्हें भूलकर कोक और आरेंज ही याद रख पायेगी. बाजार समाज पर हाबी है और वही तय करता है कि क्या रखवाना है और क्या भुलवाना है?
मगर गर्मी के नाम पर अब मौसम के साथ साथ देश की और ढ़ेर सारी गर्मियाँ भी याद आ जाती हैं. जैसे पैसे और पावर की गर्मी. इस गर्मी का हाल तो यह है कि ये गर्मी जिसे होती है, वो तो ऐश काटता है और परेशान सामने वाला होता है. जिससे पैसे कमा कर और जिनके कारण पावर मिला है, वही इसकी गर्मी में झुलसता है. इस गर्मी का हाल यह है कि मैं ही तुमको तलवार बना कर दूँ और तुम मेरा ही गला रेत कर उसकी धार चैक करो.
एक गर्मी ऐसी होती है जिसे सरगर्मी कहते हैं. यह अक्सर चुनावों में देखी जाती है. चुनाव की सरगर्मी ऐसी गर्मी होती है जिसमें सभी आनन्दित होते हैं क्या नेता और क्या प्रजा. हर नेता को यह विश्वास रहता है कि वो जीत रहा है और जनता हर नेता से कहती है कि हम तुम्हारे साथ है, बस तुम ही जीत रहे हो और इसकी एवज में नगद, दारु, कम्बल, खाना और जाने क्या क्या बटोर लेते हैं. इस गर्मी को शायद दो वजहों से सरगर्मी कहा गया होगा. एक तो जब यह गर्मी चढ़ती है तो सबके सर चढ़ती है. फिर जब चुनाव हो जाते हैं और यह उतरती है तो जीता हुआ नेता सर उठाकर इतना उपर देखने लगता है कि उसे अपने जिताने वाले भी नजर आना बंद हो जाते हैं और हारे नेता मय जनता के अगले पांच साल तक अपना सर धुनने को बाध्य हो जाते हैं कि यह क्या कर डाला हमने गर्मी के आगोश में आकर?
शायद इसीलिए बुजुर्गों के द्वारा मना किया गया होगा कि जब गुस्से की गर्मी चढ़े या दारु की और जब तुम अपना आपा खो चुके हो इस गर्मी के चलते तो चुपचाप जाकर सो जाओ और जब गर्मी उतर जाये, तब सोच समझ कर निर्णय लेना मगर सरगर्मी के दौर में क्या करना है वो तो बुजुर्ग भी न बता कर गये तो सर धुनने के सिवाय करें भी तो क्या करें?
काश!! लोकतंत्र की इस चुनावी सरगर्मी की काट के लिए भी कोई एसी बनें तो राहत मिले मगर आने वाले दिखते समय में तो ऐसे किसी अविष्कार की आहट दिखती नहीं है मगर इन्तजार करने के सिवाय उपाय भी क्या है?
आहट तो विकास की भी नहीं दिखती है मगर सब मिलकर इन्तजार तो कर ही रहे हैं न!!
अंदर की बात बताऊँ तो एक बार एक नेता की आँख में किसी गैर की मौत पर सचमुच के आंसू देखे थे..आश्चर्य तो हुआ था मगर तब से मानने लगा हूँ कि कभी कभी करिश्मा भी हो ही जाता है अतः विश्वास नहीं खोना चाहिये!!
-समीर लाल ’समीर’
भोपाल से प्रकाशित दैनिक सुबह सवेरे के रविवार मई २७, २०१८ के अंक में:

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शनिवार, मई 19, 2018

जीत नही मीत चाहिये सरकार बनाने के लिए


वक्त चलायमान है और वक्त की चाल के साथ जमाना लगातार बदलता रहता है. बदलते बदलते एक दिन इतना बदल जाता है कि आप भौच्चके से बस देखते रह जाते हैं.
उदाहरण के तौर पर, पहले शादी का गठबंधन लड़के और लड़की के घर के बड़े बुजुर्ग मिल बैठ कर पसंद करके तय करते थे. लड़का लड़की माँ बाप की पसंद का सम्मान करते हुए विवाह के गठबंधन में बँधकर जीवन भर साथ निभा देते थे. तलाक जैसी बातें अपवाद के तौर पर ही सुनने में आती थीं और समाज तलाकशुदा लोगों को हेय दृष्टि से देखता था. तब समाज की महत्ता होती थी.
समय आगे बढ़ा तो लड़के लड़कियों ने खुद से एक दूसरे को पसंद करके विवाह के गठबंधन में बँधना शुरु कर दिया. खुद की पसंद थी तो किसको दोष देते अतः निबाह तो चलता रहा. मगर चूँकि जब माँ बाप की चिंता न की तो समाज का सम्मान भी कम हुआ और तलाक की संख्या में इज़ाफा भी हुआ.
फिर साथ साथ रहकर, एक दूसरे को परख कर तब यह तय किया जाने लगा कि शादी का गठबंधन करना भी है या नहीं वरना कोई दूसरा तलाशें. समाज का डर दो कौड़ी का बचा. तलाक और शादी, सब खेल हो गया.
समाज का स्वभाव भी डर के स्वभाव के समान होता है. जितना डरोगे, उतना ही डराता है. नई पौध ने तो समाज की चिंता ही करना छोड़ दिया तो समाज भी न जाने कहाँ दुबक कर जा बैठा? ये जितने पावरफुल लोग बैठे हैं न सत्ता में, इनका पावर भी है ही इसीलिए कि आप उनसे डरते हो. जिस दिन आप डरना छोड़ दोगे, इनका पावर भी फुस्स होकर रह जायेगा. नार्थ कोरिया तक पानी भरने लगा जब अमरीका ने उससे डरना छोड़ दिया.
समय बढ़ा तो शादी के गठबंधन में भी भौच्चका कर देने वाला बदलाव आया. अब लड़का लड़के से और लड़की लड़की से शादी के गठबंधन में बँधने की जिद करने लगे. हम मिजाज यह मानने लगे हैं कि उनके साथ अत्याचार हो रहा है. इस भावना नें उन्हें एक साथ संगठित किया जाति धर्म से आगे उठकर एलजीबीटी कम्यूनिटी के रुप में. वे अपने आपको सही बताने और आमजन के बीच खुलकर अपनी भावना प्रदर्शित करने के लिए रेनबो परेड निकालने लगे और अपनी इच्छा के अनुसार जीवन जीने के अधिकार के लिए आवाज उठाने लगे.
तब राजनितिज्ञों को इसमें वोट बैक नजर आया और इसके चलते अनेक देशों में यह मान्यता प्राप्त गठबंधन हो गये हैं. देखते देखते ताकत बढ़ रही है इस संगठित समाज की. लोग खुल कर सामने आ रहे हैं अपनी ख्वाहिश जाहिर करने. वो दिन दूर नहीं जब सभी देश इसे मान्यता देकर इस वोट बैंक को लुभा रहे होंगे.
दरअसल सरकार का ध्यान आप पर जाता ही तब है जब आप वोट बैंक हो जाते हैं. किसानों की खराब हालत की जिम्मेदार यही वजह है कि वो खुद को वोट बैंक नहीं बना पाये अतः फांसी लगाने को मजबूर होते गये. राजनितिज्ञ जानते हैं कि कैसे आपको संगठित नहीं होने देना है और वो आपको किसान होने से इतर यादव, कुर्मी, पटेल, पाटीदार, मुसलमान, दलित आति में बांटते रहे. एक बात बताऊँ कि आप भले ही न कुछ और सीखना इस एलजीबीटी कम्यूनिटी से..मगर जाति धर्म से उठकर कर्म और सोच के आधार पर संगठित होने की कला जरुर सीख लेना. तब आप भी जाति, धर्म से उठकर किसान वोट बैंक हो जाओगे..मजाल है कि फिर कोई सरकार आपको नजर अंदाज कर जाये.
वैसे गठबंधन चाहे परिवार बनाने के लिए किया गया हो या सरकार बनाने के लिए, व्यवहारिक परिवर्तन तो दोनों का ही लगभग एक ही तरह के दौर से गुजरता है.
हाल में सरकार बनाने के लिए गठबंधन में आये परिवर्तन को देखकर डर लगने लगा है कि वो दिन दूर नहीं जब परिवार बनाने वाले गठबंधन के लिए बंदा दूसरे की बीबी उठा लायेगा और टोकने पर कहेगा कि तुम उस समय कहाँ थे जब रावण सीता जी को उठा ले गया था? तब तो तुमने कुछ नहीं कहा तो अब क्यूँ?
अब इन्हें कौन समझाये कि कोई बुरी बात सिर्फ इसलिए अच्छी नहीं हो जाती क्यूँकि कोई इसे भूतकाल में कर चुका है. गलत गलत ही रहेगा. मगर आजकल नया फैशन चला है कि गल्ती करो, मनमानी करो और अगर कोई टोके तो उसे कोई पुरानी सही या गलत, गल्ती दिखाकर आँख दिखा दो और खुद को सही साबित कर लो.
क्या कहें..जमाना बदल गया है. बस ध्यान इतना रहे कि परिवर्तन संसार का नियम है, कुछ भी स्थाई नहीं. तुम भी नहीं तो फिर अंहकार कैसा?
वैसे देखकर लगा कि आज के दौर में जीत नही मीत चाहिये सरकार बनाने के लिए!! फिर वो चाहे सरकार बनाने के लिए आमंत्रण की बात हो या फ्लोर पर बहुमत साबित करने की.
 -समीर लाल समीर
 भोपाल से प्रकाशित दैनिक सुबह सवेरे में रविवार २० मई, २०१८:

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शनिवार, मई 12, 2018

आँधी चाहे जितनी भी तबाही मचा ले, आखिर में उसे शान्त होना ही है.!!



भारत में मौसम विभाग का मजाक एक जमाने से बनता आया है. किसी पुरानी फिल्म में देखा था कि बंदा अपनी बीबी से कह रहा है कि छाता निकाल कर दे दो, मौसम विभाग ने रेडियो से बोला है कि आज आसमान साफ रहेगा. आजकल नये दावों की मानें तो देश में पिछले ६७ साल में न कुछ हुआ है और न ही कुछ बदला है, यह बाकी क्षेत्रों के लिए भले ही चुनावी जुमला हो मगर मौसम की भविष्यवाणी के लिए एकदम सही है.
मौसम की भविष्यवाणी में हम न जाने क्यूँ हमेशा ही फेल हो जाते हैं. न हम सुनामी भांप पाये और लाखों जिन्दगियाँ चली गई. न भूकम्प, न बद्रीनाथ केदारनाथ की बाढ़ भांप पाये. सब जब भीषण तबाही मचा कर चले गये तो हम पूरा ज्ञान टीवी के माध्यम से बांट देते हैं कि किस कारण से आया. क्या वजहें रहीं और मौसम का पूरा विज्ञान जन जन तक पहुँचा देते हैं. रेक्टर स्केल क्या होती है और सेस्मिक ज़ोन कहाँ होती है..कितना मेग्निट्यूड होता है..यह सब सारा देश सीख जाता है मगर मौसम विभाग जस का तस रहता है. अगली बार फिर वही गल्ती.
फिर जो ६७ साल में न हुआ वो एकाएक पिछले ४ साल में इतने जोर से हुआ कि लोग दंग ही रह गये. पहले हम बता नहीं पाते थे और विपदा आ जाती थी और अब देखो जबरदस्त विकास, हम बता जाते हैं और वो आती ही नहीं. चीख चीख कर बताया कि आँधी आ रही है. स्कूल बंद, लोग घरों में बंद, दफ्तर बंद. सब खिड़की से झांक रहे हैं कि अब आँधी आई और तब आँधी आई. छिप कर बचने के लिए बैठे हैं मगर व्हाटसएप और फेसबुक पर अपडेट चालू हैं. सब इन्तजार कर रहे हैं कि आँधी आये तो उसके साथ एक ठो सेल्फी खिंचवा कर सबसे पहले चढ़ा दें इस स्टेटस के साथ कि..हेविंग फन एण्ड एडवेन्चर विथ आँधी. इन सेल्फी पीरों का उत्साह देखकर तो ऐसा लगता है कि अगर आँधी इन्हें उड़ा ले जाये तो बचने की कोशिश करने के पहले पाऊट काढ़ कर पहले तो ये सेल्फी खींच कर स्टेटस अपडेट डालेंगे, फिर बचने का जुगाड़ खोजेंगे. इन्हें जब तक बचने का जुगाड़ मिलेगा, तब तक स्टेटस अपने आप अपडेट होने लायक हो जायेगी लोकेशन फाईन्डर से..ऑन सेवेन्थ क्लाऊड..अब सातवें आसमान पर हैं..रेस्टिंग इन पीस.
ये वो लोग हैं जो आँधी का इन्तजार करते करते बोर हो गये तो २०१५ की दुबई की आँधी का विडिओ चढ़ाकर लिख दिया कि अभी कुछ देर पहले, शाम ४ बजे जेसलमेर से आँधी ने टेक ऑफ कर लिया है..लोगों ने भी बिना सोचे समझे धड़ाधड़ विडिओ फारवर्ड करना शुरु कर दिया. मिलियन में फारवर्ड हो गये. उतने तो तब नहीं हुए थे जब यह तूफान दुबई में वाकई में आया था. तूफान भी सोच रहा होगा कि बेवजह दुबई में आये, इण्डिया में आये होते तो क्या शोहरत हासिल होती. खैर, देर आये भारतीयों के हाथ मगर शोहरत तो हासिल कर ही ली. तभी तो चाहे मैकडानल्ड हो, केएफसी हो, वालमार्ट हो या एमोजान, सबको चाहे दुनिया भर में कितना भी व्यापार मिले मगर अंत में विस्तार और शोहरत हासिल करने के लिए भारत में ही पांव पसारने हैं. इसके लिए भले ही १६ बिलियन में फ्लिपकार्ट ही क्यूं न खरीदना पड़े. वे जानते हैं कि एक बार भारत में उनकी आँधी चल गई तो उनके वारे न्यारे हो जायेंगे.
ऐसे में जब सारी दुनिया, यहाँ तक की तूफान भी, विस्तार पाने के लिए भारत का दरवाजा खटखटा रहा है, तब न जाने क्यूँ हमारे साहेब भारत छोड़कर दुनिया भर में घूम रहे हैं? उन्हें तो आँधी का महत्व भली भाँति पता है. वो तो खुद आँधी के प्रोडक्ट हैं. तब देश में उनके नाम की आँधी चली थी. अब उस आँधी का हाल हालांकि मौसम विभाग वाली आँधी का सा हो चला है मगर जब तक मौका है पुरानी आँधी के आड़ में झाड़ काटते चलो. बस इतना ध्यान रहे कि आँधी का स्वभाव होता है कि कितनी भी तबाही मचा ले, उसे शान्त होना ही होता है. वह लगातार नहीं चल सकती.
खैर, उम्मीद बस इतनी है आगे से मौसम विभाग कुछ बेहतर हो. नई टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल करे और बेहतर भविष्यवाणियाँ करे न कि जुमलेबाजी कि १५ लाख खाते में आ रहे हैं, विकास हो रहा है..डिजिटल इण्डिया बन रहा है..और हाथ आया सिफ़र..जनता हाथ में कैमरा थामें खड़ी है सेल्फी खिंचाने को और फॉरवर्ड करना पड़ रहा है दुबई की आँधी.
आखिर मूँह छिपाने का तरीका भी तो खोजना होता है न!!
-समीर लाल समीर

भोपाल से प्रकाशित दैनिक सुबह सवेरे में दिनांक मई १३,२०१८ को:


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