गुरुवार, दिसंबर 21, 2017

छपास पीड़ा


यूँ तो बड़े समय से लिखते लिखाते आये हैं. ब्लॉग से लिखा. फेसबुक से लिखा. इन्टरनेट में जहाँ भी गुंजाईश दिखी, वहाँ से लिखा.पाठक संख्या भी अच्छी खासी ही रही है.
वक्त जीना सिखाता है कि तर्ज पर जब डायरी से प्रमोट होकर इन्टरनेट पर पदार्पण किया तो इन्टरनेट ने ही पाठक कबाड़ने के गुर सिखाये. फिर जैसा की हमेशा होता आया कि गुरु गुड़ रह गये और चेला शक्कर. वो दिन भी आया जब हम इन्टरनेट पर पाठक जुगाड़ने के गुर सिखाने लगे. गुर सिखाने के पीछे भी मंशा वही कि इसी बहाने जिस मछली को सिखाने की बंसी में फसायेंगे वो भी तो अपनी लेखनी का पाठक ही बनेगा. बिना फायदे के तो नॉट फार प्राफिट एनजीओ भी काम नहीं करती, तो हम तो जीते जागते इन्सान हैं आम जगत के वासी. आज का तो सन्यासी भी मोक्ष के गुण बताते बताते कम से कम आपको आपकी माया से तो मोक्ष दिला कर उसे अपनी तिजोरी में भर लेता है.
डायरी के समय में अपनी रचना सुनाने और पाठक जुटाने के लिए आमतौर पर चाय और खाने का प्रलोभन देकर रचनायें झिलवाई जाती थीं. अब कोइ बंदा आपकी चाय पिये या खाना खाये तो तारीफ तो मजबूरीवश करेगा ही. ऐसे वक्त में अपनी आने वाली नॉवेल को सुना डालने के लिए ऊँचे लेखकों ने कॉकटेल पार्टी का इन्तजाम करना भी सीख लिया था.सब वक्त और जरुरत अपने अनुरुप सिखा देती है. बहुतेरे लेखक जिनकी ऊँची पहुँच थी, वो तो पाठक मात्र इसलिये भी पा जाते थे कि वो पाठक भी लिखता है एवं महत्वाकांक्षी है और आपको सीढ़ी की तरह देख रहा है.
इन्टरनेट का जमाना जबसे आया तब से डायरी में बंद रचना का डायरी में बंद पड़े पड़े दम तोड़ देने जैसा टंटा समाप्त हुआ. अब न तो अपना लिखा सुनाने के लिए आपको लोगों को खाने या चाय पर बुला कर घेरना होता है और न ही पान की दुकान पर आपको देखते ही लोगों के खिसक लेने की जलालत झेलनी होती है. दूसरा ये कि डायरी के जमाने में बहुतेरे लेखक और कवि तो ये जान ही नहीं पाते थे कि जो वो लिख रहे हैं..वो पत्र पत्रिकाओं छप रही रचनाओं से बहुत बेहतर है और उन्हें अखबारों और पत्रिकाओं में प्रकाशित होकर आमजन तक पहुँचना चाहिये. अक्सर संपादकों द्वारा एक बार रिजेक्ट होने पर एक शर्म और खुद को कमतर आंकने का आम भाव न जाने कितने बेहतरीन रचनाकारों को महज डायरी तक सीमित रख वक्त की धूल तले दबा गया..कौन जाने. अधिकतर डायरीबाजों की बेहतरीन रचनायें जो उनकी डायरी तक सीमित थीं, वो उनके गुजरते ही उनके बेटे के द्वारा मकान कब्जियानें और बेचने के दौरान कबाड़ी के हाथों बेच दी गई..जो अंततः किसी मूँगफली का पूड़ा बनी किसी कचरे के डिब्बे में वीर गति को प्राप्त हुईं.
आज इन्टरनेट के जमाने में एक लेखक के लिए संपादक की अस्वीकृति का रोड़ा खत्म हुआ सा लगता है. जो लिख रहा है वो अपने ब्लॉग से, फेस बुक से, इन्टरनेट पर अन्य जगह खुद ही छाप भी रहा है. रोड़ा खत्म होना अच्छा है कि बुरा..कौन जाने मगर जहाँ अच्छा लिखा हुआ सामने आने लगा है ..वहीं वाहियात लिखा भी छपता चला जा रहा है. अक्सर तो पूरा पढ़ जाने के बाद जब अंतिम पंक्ति के रुप में पढ़ते हैं कि अगर मेरी कविता पसंद आई हो तो कृप्या लाईक करें और टिप्प्णी करके उत्साह बढ़ायें, तब जाकर समझ आता है कि जो पढ़ा वो कविता थी. लोग लिखने में इतना व्यस्त हुये जा रहे हैं कि दूसरों का तो छोड़ो, खुद का लिखा भी लिख देने के बाद पढ़ने की फुरसत नहीं निकाल पा रहे हैं और फट से छाप दे रहे हैं. वो छपास पीड़ा से इतने अधिक ग्रसित हैं कि जब तक दिन भर में दो तीन कविता न छाप लें, कब्जियत का अहसास जाता ही नहीं.
अच्छाई के साथ पैकेज डील में बुराई तो आती ही है. अगर सब अच्छा ही अच्छा हो तो अच्छे की कीमत कौड़ी की न बचे. अच्छे की कीमत होती ही इसलिये है कि खराब आस पास बिखरा है. खराब अच्छे को कीमती बनाता है. सुगन्ध फैल रही है तो बदबू भी झौंकी जा रही है. संपादक के कंधे का बोझ ..वेताल की तरह उतर कर पाठक रुपी विक्रमादित्य के कँधे पर आ लदा है. छांटना बीनना पाठक को है अब...संपादक की भूमिका तो रही नहीं इन्टरनेट पर छापने के लिए...आज जब लेखक ही प्रकाशक है तब पाठक की जिम्मेदार एकाएक कई गुणित बढ़ गई है
आज का जमाना है मार्केटिंग का..अच्छा बुरा लिखना अपनी जगह ..मार्केटिंग अपनी जगह. मार्केटिंग के चलते आज मिट्टी सोने के भाव बेच दी जा रही है सुन्दर सलौनी पैकेजिंग में. मुलतानी मिट्टी फेस वाश के नाम पर एक नई ऊँचाई नाप रही है. ऐसे वक्त में आज का सच यह हो गया है कि आप अपना नाम बड़ा कर लिजिये..आपका लिखा तो बड़ा हो ही जायेगा..नाम बड़ा करने के भी अनेकों गुर हैं..वो आप पर है कि इस हेतु आप कौन सा राजमार्ग लेते हैं? अनेकों राजमार्ग हैं..किसको कौन सा सूट करे वो वास्तु पर आधारित है कि आप किस समय कहाँ पर किसके साथ हैं....आज आप अपने आस पास देखेंगे तो पायेंगे कि कितने ही बड़े नाम साहित्य में ऐसे हैं जिन्होंने एक जमाने से कुछ लिखा ही नहीं..बस. मठ सजाया है. अपना गुट बनाया है और मजबूरीवश अगर लिखा भी तो ऐसा..कि पढ़ कर लगता ही नहीं कि  किसी स्थापित हस्ताक्षर की लेखनी है. कुछ अपने पद का लाभ ले रहे हैं...वरना लेखन तो उनका..प्रभु भी पढ़ें तो सटक लें...मगर अब तक २८ व्यंग्य संग्रह..२० कविता संग्रह छप चुके हैं..पद प्रतिष्ठा कि इससे बेहतर मिसाल न मिलेगी कभी.
इतना कुछ हासिल..इतना कुछ जाहिर..इन्टरनेट का परचम..मगर उन सब के बावजूद...आज भी जब इन्टरनेटीय रचनाकार किसी भी अखबार या पत्रिका में छप जाता है तो जिस खुशी का अनुभव करता है उसके तो क्या कहने!!
अखबार या पत्रिका में छपते ही रचनाकार अपने ब्लॉग, फेसबुक, ईमेल सब तरफ से सबको सूचित करता है कि फलां अखबार ने मुझे छापा है..फलां पत्रिका नें मुझे छापा है..ये देखो कटिंग और यह रहा लिंक...मने कि जिस बंधन को तोड़ने निकले थे, उसी में बंध कर गौरवांवित हो लिये.. मानो कोई नेता भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठा कर जीता हो और आज उसी भ्रष्टाचार में लिप्त हो गदगद हुआ जाता हो कि मेरा कोई क्या बिगाड़ लेगा...
हम तो खुद भी इस आलेख के छपते ही इसके छपने की खबर छापेंगे इन्टरनेट पर, अपने ब्लॉग पर, अपने फेसबुक पर. जैसा जमाना, उस तरह का हो जाना, इसमें कैसा शरमाना.
बात महज इतनी सी है कि किस पाले में जाकर आपको फायदा मिलता है वरना तो सब पाले बेकार हैं..
आज इन्टरनेट पर आने से अखबार ने पहचान लिया और आप छपने लगे अखबार में...तो पुनः आपका अखबारी लाल कहलाना ही फायदेमंद कहलाया वरना तो इन्टरनेट पर तो कोई भी छप लेता है..
डिसक्लेमर: वाकई अच्छा लिखने वाले इस लेखन के दायरे बाहर हैं. वो तो अच्छा लिख ही रहे हैं.
-समीर लाल समीर
अंतर्राष्ट्रीय पत्रिका विभोम स्वर के जनवरी- मार्च २०१८ में प्रकाशित:
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1 टिप्पणी:

PRAN SHARMA ने कहा…

Sameer Ji , Hum To AapkiLekhni Ke Shuru Se Hee Mureed Hain .