रविवार, नवंबर 27, 2016

वक्त के साथ हर सोच बदल जाती है...

मेरी एक गज़ल का शेर है:

कैसे जीना है किसी को ये बताना कैसा,
वक्त के साथ हर सोच बदल जाती है...
..जाने क्या बात है जो तुमसे बदल जाती है...

वाकई इन १५ दिनों के भीतर पूरी की पूरी सोच ही बदल गई. शब्दों और मुहावरों के मायने बदल गये हैं..जहाँ एक ओर लोग विमुद्रीकरण जैसे किलिष्ट शब्द का अर्थ समझ गये.. वहीं इसे एक नया ’नोटबंदी’ जैसा नाम मिला..मानों कि काले धन की बढ़ती आबादी को रोकने हेतु नोटों की नसबन्दी कर दी गई हो.

एक समय था जब कभी किसी के घर से एकाएक दहाड़ मार कर रोने की आवाज आती थी तो पूरा मोहल्ला जान जाता था कि कोई गमी हो गई है. सब इक्कठा होकर उनके गम में शरीक होते...ढ़ाढ़स बँधाते.. अब जब ऐसी आवाज आती है तो पूरे मोहल्ले में खुसपुसाहट के खिल्ली उड़ाने लगती है कि हम तो पहले से जानते थे कि खूब धन गड़ाये है घर में..लो मिट्टी हो गया..अब रोने के सिवाय कर भी क्या सकते हो!!

तब लोग सूटकेस, टिफिन और पानी की बोतल लेकर लम्बी यात्रा और देशाटन पर जाया करते थे- सब उन्हें शुभ यात्रा कह कर विदा करते. आज उसे ही, बैंक की लाईन में लगने जा रहा होगा, कह कर लोग अपनी चटकारी बातों का पात्र बना रहे है.

पहले बच्चे घर में इसलिए पिटा करते थे कि स्कूल नहीं गये..पिता का नाम डुबो कर मानेंगे और आज इसलिए पिट रहे हैं कि निक्कमें हैं स्कूल चले गये. इतना भी नहीं कि बैंक की लाईन में खड़े होकर पिता जी नोट बदलने में साहयता कर दें.

पहले बीबी जेब से पैसा निकाल कर बुरे वक्त के लिए बचा कर छिपाकर रखती थी और आम दिनों में पूछो तो कहती थी कि मेरे पास रुपया कहाँ से आयेगा..बैंक से निकालो और वही बीबी आज उसी छिपाये चरौंधे में निकाल कर रुपया लाकर दे रही है और पूछ रही है खाते में जमा तो हो जायेगा न?

कभी जिस बैंक से आये रिप्रेजेन्टेटिव को दूर से आता देखकर हम एकदम हकबका जाते थे कि ओह!! फिर आ गया..डिपाजिट मांगेगा और बच्चों से कहलवा देते थे कि बोल दो, पापा घर पर नहीं है ..आज उसी रिप्रेजेन्टेटिव को  हमारी कातर निगाहें चहु ओर खोज रही हैं कि दिख बस जाये तो नोट डिपाजिट करवा दें.

सबसे बड़ा बदलाव जो मुझे दिखाई पड़ रहा है वो इस बात में कि जब कहीं से ये फुसफुसाहट सुनाई देती थी कि ठिकाने लगा आये.. तो सीधे दिमाग में कौंधता था कि जरुर किसी लाश को ठिकाने लगा कर आया है बंदा..आज लाश की जगह १००० और ५०० के अमान्य नोट विराजमान हो गये हैं...उन्हें ही ठिकाने लगा कर आदमी ऐसी चैन की सांस भरता है मानो लाश ठिकाने लगा अया हो.. हालांकि लाश ठिकाने लगा आनें में भी कम ही चांस था कि पुलिस से बच पाते और वही हाल अब इन्कम टैक्स वालों से इस नोट ठिकाने लगा आने में है मगर तात्कालिक सुकून तो मिल ही जाता है..मानो कि आज रात इसबगोल खाकर सो जाये तो जीवन भर के लिए कब्जियत से निजात मिल जायेगी...यह तय है कि कल कब्जियत से आराम तो लगेगा मगर जो कल इसबगोल नहीं खाया तो परसों फिर वही हाल...

देखना अब यह है कि इस बड़े बदलाव से जिसने बातों के मायने बदल डाले...वो और क्या क्या बदलता है और कब तक के लिए...

कहीं परसों से फिर से काले धन का कब्ज देश के पेट में मरोड़ न देने लगे....

-समीर लाल ’समीर’

भोपाल से प्रकाशित सुबह सवेरे के २७ नवम्बर, २०१६ के अंक में


  
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3 टिप्‍पणियां:

सुशील कुमार जोशी ने कहा…

बढ़िया :)

kuldeep thakur ने कहा…

आपने लिखा....
मैंने पढ़ा....
हम चाहते हैं इसे सभ ही पढ़ें....
इस लिये आप की रचना दिनांक 29/11/2016 को पांच लिंकों का आनंद...
पर लिंक की गयी है...
आप भी इस प्रस्तुति में सादर आमंत्रित है।

दिगम्बर नासवा ने कहा…

mast likha hai ... par jo bhi kaho ... Modi ji ne sabko sochne, bolne aur likhne ka vishay de diya ...