शनिवार, नवंबर 26, 2016

मेरा नया उपन्यास...

बहुत दिनों से परेशान था कि आखिर अपना नया उपन्यास किस विषय पर लिखूँ और उसको कौन सा फड़फड़ाता हुआ शीर्षक दूँ.

उपन्यास लिखने वाले दो तरह के होते हैं, एक तो वो जो विषय का चुनाव कर के पूरा उपन्यास लिख मारते हैं और फिर उसे शीर्षक देते हैं और दूसरे वो जो पहले शीर्षक चुन लेते हैं और फिर उस शीर्षक के इर्द गिर्द कहानी और विषय बुनते हुए उपन्यास लिख लेते हैं.

लुगदी साहित्य, वो उपन्यास जो आप बस एवं रेल्वे स्टेशन पर धड्ड़ले से बिकता दिखते है, से जुड़े उपन्यासकार अक्सर ऐसा फड़कता हुआ शीर्षक पहले चुनते हैं जो बस और रेल में बैठे यात्री को दूर से ही आकर्षित कर ले और वो बिना उस उपन्यास को पलटाये उसे खरीद कर अपनी यात्रा का समय उसे पढ़ते हुए इत्मेनान से काट ले.

इन उपन्यासों की उम्र भी बस उस यात्रा तक ही सीमित रहती है, कोई उन्हें अपनी लायब्रेरी का हिस्सा नहीं बनाता. न तो उनका नया संस्करण आता है और न ही वो दोबारा बाजार में बिकने आती हैं. मेरठ में बैठा प्रकाशक नित ऐसा नया उपन्यास बाजार में उतारता हैं. इनके शीर्षक की बानगी देखिये – विधवा का सुहाग, मुजरिम हसीना, किराये की कोख, साधु और शैतान, पटरी पर रोमांस, रैनसम में जाली नोट.. आदि..उद्देश्य मात्र रोमांच और कौतुक पैदा करना..

दूसरी ओर ऐसे उपन्यासकार हैं जिन्हें जितनी बार भी पढ़ो, हर बार एक नया मायने, एक नई सीख...पूरा विषय पूर्णतः गंभीर...समझने योग्य.पीढी दर पीढी पढ़े जा रहे हैं. शीर्षक उतना महत्वपूर्ण नहीं जितनी की विषयवस्तु. ये आपकी लायब्रेरी का हिस्सा बनते हैं. आजीवन आपके साथ चलते हैं. प्रेमचन्द कब पुराने हुए भला और हर लायब्रेरी का हिस्सा बने रहे हैं और बने रहेंगे..शीर्षक देखो तो एकदम नीरस...गबन, गोदान, निर्मला...भला ये शीर्षक किसे आकर्षित करते...मगर किसी भी नये उपन्यास से ऊपर आज भी अपनी महत्ता बनाये हैं...

हम जैसे लोधड़ और नौसीखिया उपन्यासकार, अगर उपन्यासकार कहे जा सकें तो, इन दोनों श्रेणियों के बीच हमेशा टहलते रहते हैं कि कहीं से भी किसी भी तरह दाल गल जाये और एक उपन्यास निकल जाये.

हालांकि ऐसा नहीं है कि पहले उपन्यास लिखा नहीं..एक लिखा है मगर हाय रे किस्मत, वो बिना नया उपन्यास आये ही पुराना हो चला है. अब उसका कोई जिक्र भी नहीं करता. ५ साल भी तो गुजर गये उसको आये और आकर भुलाये. कौन पाँच साल पुरानी बात याद रखता है भला. वरना तो पिछले चुनाव में किये वादे नेताओं को कभी अगला चुनाव जीतने न देते.

इसी विषय और/ या शीर्षक की तलाश में जब हम भटक रहे थे कि तभी किसी ने कहा- अमां, नये नोट पुराने नोट का आजकल बाजर मे बड़ा चर्चा है, उस पर ही कुछ लिख डालो. नये लेखकों की चुटकी लेने वालों की कमी कभी नहीं होती, भले ही पाठकों का आभाव बना रहे.

सुझावदाता ने तो शायद चुटकी ली होगी मगर हम न जाने किस गुमान में उसे अपना प्रशंसक माने गंभीरता से इस विषय पर पिछले तीन चार दिन से इसी विचार में डूबे में संजिदा से दिखने लगे और तरह तरह से सोचते हुए कि नये नोट, पुराने नोट, काला धन, चुनाव, तिजोरी, तहखाना, व्यापारिक मित्रता, काला धन, कुटिलता, टैक्स चोरी, भ्रष्टाचार..आदि आदि किन किन विषयों से गुजरते हुए...आज इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि चलो, एक फड़कता हुआ शीर्षक तो मिल ही गया..अब कहानी बुनेंगे..

और शीर्षक जो दिमाग में आया है वो है..

’तहखाने वाली तिजोरी के नये मालिक’

-अब इसके आसपास कहानी बुनना है..आप भी सोचें..

ये मालिक क्या २००० का नया गुलाबी नोट है या दो साल पहले आये नये साहेब जी या उनके खास खास मित्र....
अब ये तो उस सस्पेन्स भरे उपन्यास के पूरा होने पर ही खुलासा होगा..

तब तक आप अनुमान लगाये ...कौन नया और कौन पुराना!!

नये नोट और पुराने नोट का सिलसिला तो अनवरत है..बस, वजह अलग अलग है!!!




-समीर लाल ’समीर’
#जुगलबन्दी #व्यंग्य
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3 टिप्‍पणियां:

http://www.amulyakhabar.com ने कहा…

क्या खूब लिखा है, पढ़कर आनंद की प्राप्ति हुई। मैं आपसे सहमत हूँ।

विकास नैनवाल 'अंजान' ने कहा…

सुन्दर व्यंग। लेकिन एक बात से सहमत नहीं हूँ। लुगदी साहित्य भी संग्रह किये जाते हैं। लगता है आपका इनके कलेक्शन रखने वालों से पाला नहीं पढ़ा है। मेरे पास इब्ने सफी, वेद प्रकाश शर्मा, सुरेन्द्र मोहन पाठक, इत्यादि के उपन्यास गंभीर साहित्य वालों के साथ लाइब्रेरी की शोभा बढ़ाते हैं।
मुझे हैरत होती है कि ये धारणा किधर से पनपी है कि लुगदी साहित्य को लोग संग्रह नहीं कर सकते। हाँ, उस वक्त उपन्यास की छपाई ऐसे होती थी कि एक ही बार पढने से उस उपन्यास के पेज निकलने लगते थे। इस कारण उन्हें संग्रह करना मुश्किल होता था। लेकिन जब से वाइट पेपर वो छपते हैं लोग बड़े चाव से उसे रखते हैं।
जब हम जेम्स हैडली चेज, जॉन ग्रीशम, सिडनी शेल्डन को अपनी लाइब्रेरी में रख सकते हैं तो सुरेन्द्र मोहन पाठक, इब्ने सफी, वेद प्रकाश जी के उपन्यास क्यों नहीं रखे जाते हैं। ये सब एक ही श्रेणी के उपन्यास लिखते हैं।
अगर ज्यादा लिखा है तो उसके लिए माफ़ी चाहूँगा। लेकिन ये लाइब्रेरी में रखने वाली बात कई जगह सुन चुका हूँ लेकिन ऐसा सच नहीं है।

रवि रतलामी ने कहा…

धाँसू शीर्षक है.
तिजोरी के पुराने नोटों का क्या हुआ जरा ये भी बताया जाए... :)