रविवार, नवंबर 13, 2016

दुनिया जिसे कहते हैंं जादू का खिलौना है....



स्व. ओम व्यास 'ओम' की कविता  का अंश:
पिता से ही बच्चों के ढेर सारे सपने हैं,
पिता है तो बाज़ार के सब खिलौने अपने हैं...

बस मौका विशेष पर इसी को याद कर नम आँख लिए भावुक हो चले हमारे मित्र, हमारी ही मित्र मंडली में बैठे आज अवरुद्ध कंठ से अपनी मातम बयानी कर रहे थे. मित्र मंडली में भला किसे मालूम था कि उनकी इस मातम बयानी का आधार पिता पर लिखी स्व. पं. ओम व्यास 'ओम' की कविता है..

अघोषित आधारहीन बातों की तरह ही मित्र की इस मातम बयानी का भी वही हश्र हुआ, जो ऐसी बातों का होता है...

जब वो कहने लगे कि जब तक वो हमारे पास थे, तब तक ऐसा लगता था कि सारी दुनिया अपनी है. जो चाहिये ले लो..एक बच्चे की तरह खिलौनों का सारा जहाँ खरीद लो...आज उनके गुजर जाने पर..ऐसा लगा कि सर पर से साया हट गया है...अभी उन्हें गंगा जी में सिरा कर आया हूँ...मन उदास है. दिल में अब यही आस है कि गंगा की लहरें उन्हें वैतरणी पार करायें..

वक्त और मौके के साथ हर सोच बदल जाती है अतः मित्र मंड़ली के सारे व्यवहारिक मित्र वर्तमान पतीपेक्ष में यही समझे कि १००० और ५०० के पुराने नोटों की बात कर रहा है.. जो हाल ही में सरकारी घोषणा के तहत असमय अचानक ही मृत्यु को प्राप्त हुए हैं...वाकई जब तक वो साथ थे तब तक सारे जहाँ के खिलौने अपने थे..

गाड़ी, घोड़ा, मकान आदि तमाम चीजें सब खिलौने ही तो हैं इस भौतिक जगत में.. जब तक सांसे हैं.. खरीदने, बेचने, छीनने, छिपाने, लूटने, टूटने के सिलसिले में इन्सान मशगूल रहता है और जैसे ही सांसे रुकी, सब कुछ यहीं छूट जाने हैं. अतः सब कह उठे कि जब तक दूध दिया ..तब तक तो खूब दुहा मियाँ..अब गंगा में बहा कर चले भी आये हो तो इसमें अफसोस कैसा? दो नम्बर का था..दो नम्बर में गया..यही तो दुनिया की रीत रही है,,तुम कौन सा कुछ नया कर आये??

मित्र स्तब्ध सा सोच रहा है कि ये कैसा समाज हो चला है? पिता के गुजर जाने पर..दोस्तों से जो एक संवेदना की उम्मीद थी वो भी जाती रही..


और मैं सोच रहा हूँ कि उसने भी यह कब बताया कि उसके पिता नहीं रहे..वह बस मान कर चला कि सबको उसकी व्यक्तिगत क्षति की जानकारी तो होगी ही...

इसी मान कर चलने में न जाने कितने संबंधों के महल नेस्तनाबूत हो जाते हैं...और हम अवाक से बस देखते रह जाते हैं...

-समीर लाल ’समीर’
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4 टिप्‍पणियां:

विकास नैनवाल 'अंजान' ने कहा…

इसी मान कर चलने में न जाने कितने संबंधों के महल नेस्तनाबूत हो जाते हैं...और हम अवाक से बस देखते रह जाते हैं...

आपने सही कहा। अक्सर रिश्तों में हम बिना बात किए ही सोच लेते हैं कि सामने वाले को पता ही होगा और इसी वजह से रिश्तों में अपनत्व खत्म होता जाता है। व्यंग्य तगड़ा है और समाज ऐसा है कि कईयों के लिये बाप बड़ा न भैया सबसे बड़ा रुपैया। इसलिए आपके मित्रों का ये सोचना भी लाजमी था कि रूपये की बात चल रही थी।

शारदा अरोरा ने कहा…

bahut sahi kaha...

girish pankaj ने कहा…

आपने बहुत सही कहा , आपकी सोच के क्या कहने

Archana Chaoji ने कहा…

संवेदना भी उपहास का हिस्सा बन रही है। ... लोग सिर्फ और सिर्फ स्व में सिमित होते जा रहे हैं या होने को मजबूर हैं