सोमवार, जुलाई 29, 2013

जन्मदिन पर गुरुदेव का आशीष!!

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उफ़ क्यों याद दिलाता कोई

उम्र ढल रही धीरे धीरे

गाकर गीत जनम दिन वाले

और बजा कर ढोल मजीरे

लेकिन जग की रीत यही है

औपचारिकी होना ही है

घिसा हुआ वह हैपी हैपी

रोना सबको रोना ही है

लेकिन कुछ ऐसे भी तो हैं

सदा लीक से हट कर चलते

दोपहरी का दीपक बन कर

नौका एक रात की खेते

उनसे ही ले  नाधुर प्रेरणा

मुझको केवल यह कहना है

हर दिन, उगते सूरज जैसे

दीप्तिमान तुमको रहना है

आंधी,बरसातें,झंझाएं

कोई बाधा बन ना पाए

दिवस आज का बरस पूर्ण यह

गीत आपके ही दोहराये.

सादर

शुभकामनाओं सहित

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राकेश खंडेलवाल

http://geetkalash.blogspot.ca/

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सोमवार, जुलाई 01, 2013

पहाड़ के उस पार….इस बार मेरी आवाज़ में

सुनिये:

समीर लाल ’समीर’ की आवाज में उनकी एक कविता

 

मेरे कमरे की खिड़की से दिखता

वो ऊँचा पहाड़

बचपन गुजरा सोचते कि

पहाड़ के उस पार होगा

कैसा एक नया संसार...

होंगे जाने कैसे लोग...

क्या तुमसे होंगे?

क्या मुझसे होंगे?

आज इतने बरसों बाद

पहाड़ के इस पार बैठा

सोचता हूँ उस पार को

जिस पार गुज़रा था मेरा बचपन...

कुछ धुँधली धुँधली सी स्मृति लिए

याद करने की कोशिश में कि

कैसे था वहाँ का संसार..

कैसे थे वो लोग...

क्या तुमसे थे?

क्या मुझसे थे?

इसी द्वन्द में उलझा

उग आता है

एक नया ख्याल

जहन में मेरे

दूर

क्षितिज को छूते आसमान को देख...

कि आसमान के उस पार

जहाँ जाना है हमें एक रोज

कैसा होगा वो नया संसार...

होंगे जाने कैसे वहाँ के लोग...

क्या तुमसे होंगे?

क्या मुझसे होंगे?

पहुँचुंगा जब वहाँ...

कौन जाने कह पाऊँगा

तब वहाँ की बातें..

कुछ ऐसे ही या कि

बनी रहेगी वो तिलस्मि

यूँ ही अनन्त तक

अनन्त को चाह लिए!!

बच रहेंगे अधूरे सपने इस जिन्दगी के

जाने कब तक...जाने कहाँ तक...

तब कहता हूँ..

“कैसे जीना है किसी को ये सिखाना कैसा

वक्त के साथ में हर सोच बदल जाती है”

-समीर लाल ’समीर’

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