मंगलवार, जून 18, 2013

हरे सपने...एक कहानी..मेरी आवाज़ में..

उसे भी सपने आते थे. वो भी देखती थी सपने जबकि उसे मनाही थी सपने देखने की.

माँ के पेट के भीतर ही थी तब वो खूब लात चलाती, यह सोचकर कि माँ को लगेगा लड़का है. लेकिन माँ न जाने कैसे जान गई थी कि लड़की ही है. माँ ने उसे तभी हिदायत दे दी थी कि उसे सपने देखने की इजाजत नहीं है. अगर गलती से दिख भी जाये तो उनका जिक्र करने या उन्हें साकार करने की कोशिशों की तो कतई भी इजाजत नहीं. ऐसा सोचना भी एक पाप होगा.

जन्म के साथ साथ यही हिदायतें माँ लगातार दोहराती रही,  लेकिन सपनों पर आजतक किसका जोर चला है जो अब उसका चल जाता… वो देखा करती थी सपने. मगर न जाने क्यों उसके सपनों का रंग होता हमेशा हरा, गहरा हरा....सपने....हाँ..वो देखा करती... हरे सपने. जितना वो सपनों में उतरती वो उतने ही ज्यादा और ज्यादा हरे होते जाते.

समय बीतता रहा. सपने अधिक और अधिक हरे होते चले गये. स्कूल जाती तो सहेलियाँ अपने सपनों के बारे में बताती, गुलाबी और नीले सपनों की बात करतीं. मगर वो चुप ही रहती. बस, सुना करती और मन ही मन आश्चर्य करती कि उसके सपने हमेशा हरे क्यूँ होते हैं? उसे गुलाबी और नीले सपने क्यूँ नहीं आते? उसके सपने रंग बिरंगे क्यूँ नहीं होते...हमेशा..बस..हरे...एकदम गहरे हरे.... हरे सपने... सपनों के बारे में बात करने या बताने की तो उसे सख्त मनाही थी. आज से नहीं, बल्कि तब से जब वो माँ की कोख में थी.

चार बेटों वाले घर की अकेली लड़की, बहन होती तो शायद चुपके से कुछ सपने बाँट लेती उसके साथ, लेकिन वो भी नहीं. माँ से बांटने का तो प्रश्न ही न था. उसने ही तो.. सपने देखने को भी सख्ती से मना कर रखा था. क्या पता वो खुद भी कभी सपने देखती थी या नहीं..मगर बहैसयित माँ....नहीं, उसने यह इज़ाजत उसे कभी नहीं दी...कभी नहीं...तब भी नहीं..जब वो कोख में थी.

बहुत मन करता था उसका...उन हरे सपनों को जागते हुए बांटने का. उन्हें जीने का. उन्हें साकार होता देखने का. यह सब होता तो था मगर उन्हीं हरे सपनों के भीतर... एक हरे सपने के भीतर बंटता... एक और दूसरा हरा सपना. एक हरे सपने के बीच... सपने में ही सच होता.. दूसरा हरा सपना. हरे के भीतर हरा, उस हरे को और गाढ़ा कर जाता. उसे लगता कि वो एक हरे पानी की झील में डूब रही है. एकदम स्थिर झील. कोई हलचल नहीं. जिसकी सीमा रेखा तय है. साहिल तो है ....मगर उसका कोई सहारा नहीं...डूब जाना ही मानों तकदीर हो उसकी...उस हरे पानी की झील में..

कई बार कोशिश की सपनों में दूसरा रंग खोजने की. शायद कभी गुलाबी या फिर नीला रंग दिख जाये. हल्का सा ही सही. जितना खोजती, उतना ज्यादा गहराता जाता हरा रंग और तब हार कर उसने छोड़ दिया था किसी भी और रंग की अपनी तलाश को सपनों में. सपने हरे ही रहे, गहरे हरे. रंग बिरंगे सपनों के सपने उसके भीतर ही कैद रहे.... कभी जुबान तक आने की हिम्मत न जुटा पाये और न कभी वह सोच पाई उन्हें साकार होते देखने की बात को. माँ की हिदायत हमेशा याद रहती.

स्कूल खत्म हुआ. कालेज जाने लगी लेकिन सपने पूर्ववत आते रहे वैसे ही हरे रंग के और दफन होते रहे उसके भीतर...क्योंकि उन्हें मनाही थी बाहर निकलने की, किसी से भी बताये जाने की... या कोई साकार रुप लेने की.

कालेज में एक नया माहौल मिला. नये दोस्त बने. सपनों के बाहर भी एक दुनिया बनी, जो हरी नहीं थी. वह रंग बिरंगी थी. वो उड़ चली उसमें. पहली बार जाना ...कि डूब कर कैसे उड़ा जाता है.. बिना पंखों के. वो भूल गई.. कि जिसे दरवाजा खोलने तक की इजाजत न हो ...उसे बाहर निकलने की अलग से मनाही की जरुरत कहाँ. वो तो स्वतः ही समझ लेने वाली बात है. किन्तु रंगों का आकर्षण ...उसे बहा ले गया.. अपने संग... उसे उड़ा ले गया अपने संग.

फिर वह दिन भी आया ...जब तह दर तह दमित सपनों का दबाव इतना बढ़ा.. कि वो एक ज्वालामुखी के विस्फोट की शक्ल में... लावा बनकर बाहर बह निकला.. सब कुछ जलाता और उस शाम वो अपने रंगों की दुनिया में समा गई ....और भाग निकली..... अपने सपनों से बाहर उग रहे.. एक ऐसे रंग के साथ, जो हरा नहीं था.

उस शाम बस्ती में कहर बरपा. दंगा घिर आया... सुबह के साथ ही दो लाशें बिछी मिली चौराहे पर. एक उसकी खुद की... और एक उसकी जिसके साथ वह भाग निकली थी. नहीं दिखा कहीं वो हरा रंग ....और न ही गुलाबी या नीला. बस दोनों रक्त की लालिमा में सने थे....

वो निकल पड़ी अपनी लाश को छोड़... उस दुनिया में जाने के लिए, जो रंग बिरंगी है. जहाँ सभी रंग सभी के लिए हैं. एक बार पलट कर उसने देखा था अपनी लाश की तरफ.... रक्त की लालिमा में लिपटा हरा रंग.... हरे सपनों की कब्रगाह...उसका खुद का बदन...अब वह जान चुकी थी अपने हरे सपनों का रहस्य.... उसका नाम था... शबाना ...

एक नजर उसने बगल में पड़ी लाश पर भी डाली. रोहित.. अपनी लाश के भीतर अब भी... जिन्दगी तलाश रहा था.

वह मुस्कराई उसकी नादानी पर ...और चल पड़ी अपनी नई दुनिया से अपना रिश्ता जोड़ने... उसे कोई मलाल न था.

आज बहुत खुश थी वो. ...अपने हरे सपनों को.. अपने ही बदन की कब्र में दफना कर...

 

सुनिये मेरी में:

समीर लाल की आवाज में उनकी लिखी कहानी- हरे सपने
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रविवार, जून 02, 2013

देखता हूँ मुड़ कर

इसे पढ़िये और एक नया प्रयोग किया है तो सुनिये यू ट्यूब पर….

Stairs-small

देखता हूँ मुड़ कर

और

सोचता हूं उम्र की इस दहलीज़ तक

पहुँचने के लिए

सीढ़ी दर सीढ़ी का सफर

सीढ़ी कहूँ इन्हें या

कहूँ वक्त के साथ

नित बनते बिगड़ते रिश्तों की

कहानी की इक किताब के पन्ने

या कह दूँ इसे

कुछ पा लेने

और कुछ खो देने की

हिसाब की बही..

जी चाहता है

उन्हीं सीढ़ियों तक लौट

किसी सीढ़ी पर कुछ देर बैठूँ सुकूँ से

तनिक सुस्ताऊँ

कहीं कुछ याद कर मुस्कराऊँ और

कुछ सीढ़ियों को अनदेखा कर

बस यूँ ही लाँघ जाऊँ...

कितने पन्नों को सहेज

छिपा लूँ अपने दिल में

और कुछ पन्नों को

अलग कर दूँ किताब से..

याद आते हैं

कुछ अनायास दर्द देकर खो गये

और कुछ बेवजह निर्लज्ज मुझसे आ जुड़े पल

चलो!! मिटा दूँ इन्हें उस हिसाब की बही से

बस! अक्सर यूँ जी चाहता है मेरा...

मगर ये जिन्दगी!!

कुछ मिटता नहीं

कुछ भूलता नहीं

सब दर्ज रहता है

यहीं कहीं आस पास

उन्हीं सीढ़ियों में दफन

जिन्दा सांस लेता...

कि किताब के पन्ने

आँधी में फड़फड़ाते हों जैसे!!

-समीर लाल ’समीर’

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समीर लाल ’समीर’
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