रविवार, अप्रैल 28, 2013

मेरी कविता- नई इबारत!!!

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मेरी कविता

बदल दी है मैने

उन सब बातों के लिए

जो तुमको मान्य न थी...

मेरी कविता

बदल दी है मैने

उन सब बातों के लिए

जो सबको मान्य न थी...

मेरी कविता

बदल दी है मैने

उन सब बातों के लिए

जो समाज को मान्य न थी...

मेरी कविता

बदल दी है मैने

उन सब बातों के लिए

जो मजहब को मान्य न थी...

मेरी कविता

बदल दी है मैंने

उन सब बातों के लिए

जो आलोचकों को मान्य न थी..

मेरी कविता- इन सब मान्यताओं की

निबाह की इबारत बनी

अब मेरी कहाँ रही

वो बदल कर ढल गई है

एक ऐसे नये रुप में जो

काबिल है साहित्य के सर्वश्रेष्ठ प्रकाशन में

प्रकाशित किए जा सकने के लिए

मेरी कविता अब इस नये रुप में

काबिल है साहित्य के सर्वश्रेष्ठ सम्मान से

सम्मानित किए जा सकने के लिए..

-कर दो न प्लीज़, अब और कितना बदलूँ मैं!!

-समीर लाल ’समीर’

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मंगलवार, अप्रैल 23, 2013

मैं वही अँधेरों का आदमी…

ss

 

तुमने छुड़ा कर हाथ मेरा

जो पीछे छोड़ दिये थे अँधेरे

उनसे अभ्यस्त होती मेरी ये आँखे

आज जरा सी टिमटिमटाहट से

उस दीपक की, जो बुझने को है अभी

चौंधिया जाती है...

और मेरा बाँया हाथ....

जिस ओर बैठा कर थमवा दिया था हाथ

उस ब्राह्मण ने मेरा तुम्हारे हाथ में

ये कहते हुए कि हे वामहस्थिनी!!

जगमग होगा भविष्य तेरा

शायद कहा होगा चन्द रुपयों की चाहत में

दक्षिणा स्वरुप कि जी सके वो

और उसका परिवार उस रोज..

हाँ, वही बाँया हाथ आज बढ़ उठता है

बुझाने उस त्य़ँ भी बुझती लौ को दीपक की...

और बुझा करके उसे

खुद जल कर रोशन हो उठता हूँ मैं

जगमग जगमग बुझ जाने को

मगर खुद की रोशनी में अचकचाये

आँख मिचमिचाता मैं

उठा लेता हूँ एक पत्थर

उसी बाँये हाथ से...

फोड़ देने को दर्पण...जो सामने है मेरे

कि खुल सकें ये आँखें..

देखो....यही तो तुम कहती थी कि

कितना अजीब है

यह अँधेरों का जहान...

नहीं बर्दाश्त कर पाता

खुद का रोशन होना भी!!

-मैं फिर खो जाता हूँ अँधेरों में..

मैं हूँ ही अँधेरों का आदमी...

न बर्दाश्त कर पा सकने वाला, खुद के साये को भी!!

-समीर लाल ’समीर’

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