रविवार, जून 05, 2011

निर्लज्ज संगीत..और...

-१-

उस रात

गहरी तनहाई

में

शहनाईयों के शोर से

टूट

ऐसे

बेसुध पड़ा रहा

बिस्तर पर मैं...

जैसे

MRI मशीन में जाता

मौत से जूझता

एक निशक्त शरीर

अहसासता हो

गहन शांति को भंग करती

निर्लज्ज संगीत की

धुन!!

 

moon1

-२-

उम्र के इस पड़ाव पर आ
निकलता हूँ जिस शाम
मैं घर से अपने
सात समुन्दर पार आने को,

देखता हूँ रेलगाड़ी के डिब्बे की
खिड़की से झाँक
घर लौटते
सूरज को
साईकिल पर सवार
कारखाने के वापस आते मजदूर
अपने बसेरों की तरफ जाते पंछी
धूल में सने
दिन भर खेल कर
लौटते गांव के बच्चे

और फिर नज़र आता है
खिड़की के उस किनारे से
आसमान में आता
चाँद...

पूछना चाहता हूँ
उससे मैं
सबके घर लौटते वक्त
उसके आने का सबब

खुद को कुछ
समझा सकूँ
शायद!!!

कुछ राहत पा सकूँ
शायद!!

-समीर लाल ’समीर’

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65 टिप्‍पणियां:

दिनेशराय द्विवेदी ने कहा…

सुंदर अंतर्मन से उपजी सुंदर अभिव्यक्ति।

Satish Saxena ने कहा…

जहाँ कोई नहीं होता, वहां प्रकृति इंसान की मदद करने हमेशा तैयार मिलती है ! शुभकामनायें कवि समीर लाल...

रश्मि प्रभा... ने कहा…

चाँद...

पूछना चाहता हूँ
उससे मैं
सबके घर लौटते वक्त
उसके आने का सबब

खुद को कुछ
समझा सकूँ
शायद!!!... umdaa lekhan

Gyan Darpan ने कहा…

शानदार अभिव्यक्ति

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

संग प्रकृति का रहे शाश्वत, रिश्ते आनी जानी है।
हम समझे थे सरल सुगम सी, भीषण जटिल कहानी है।

भारतीय नागरिक - Indian Citizen ने कहा…

लेकिन मन के प्रश्नों के जबाव कहां मिल पाते हैं..

वाणी गीत ने कहा…

गहन अन्धकार में कुछ भटके मुसाफिरों को राह दिखाता होगा चाँद !

Urmi ने कहा…

मेरे खाना मसाला ब्लॉग पर आने के लिए बहुत बहुत शुक्रिया!
सुन्दर भाव और अभिव्यक्ति के साथ शानदार और लाजवाब रचना लिखा है आपने!

डॉ टी एस दराल ने कहा…

तन्हाई में शहनाई की आवाज़ , निर्लज्ज शोर ही लगता है ।
जब सूरज डूब जाता है तब चाँद भी अपना रोल प्ले करने आ जाता है ।
तभी तो लोग चाँद को भी चाहते हैं । शुक्र है चाँद कभी सीमाओं का भेद भाव नहीं करता ।

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

तन्हाई में शहनाई का संगीत भले ही कर्णप्रिय न लगे पर अकेले में हुछ प्रिय गीत सुनना तो ज़रूर अच्छा लगता होगा ...

चाँद आते ही सन्देश दे देता है कि जीवन में कड़ी धूप है तो क्या शीतलता भी तो है ..

सुन्दर अभिव्यक्ति

अरुण चन्द्र रॉय ने कहा…

खूबसूरत कविता... बहुत सुन्दर .... नए तरह का विम्ब जैसे एम आर आई में जाता निशक्त शरीर ...

समयचक्र ने कहा…

sundar abhivyakti...abhaar

Suman ने कहा…

bahut sunder rachna ........

मीनाक्षी ने कहा…

MRI मशीन का प्रयोग नया लगा लेकिन एक सिहरन दे गया...दूसरी कविता में चाँद के आने का सबब सोचने पर लगा कि शायद वह अपनी शीतल चाँदनी के स्पर्श मात्र से सबकी थकान दूर कर देता हो... दोनो ही रचनाएँ गहरा अर्थ लिए हुए....

drsatyajitsahu.blogspot.in ने कहा…

MRI मशीन में जाता

मौत से जूझता

एक निशक्त शरीर


nice one

drsatyajitsahu.blogspot.in ने कहा…

MRI मशीन में जाता

मौत से जूझता

एक निशक्त शरीर


nice one

Arun sathi ने कहा…

सुन्दर अहसास, बहुत सुंदर अभिव्यक्ति।

rashmi ravija ने कहा…

दोनों ही रचनाएं मन उद्वेलित कर जाती हैं.
बढ़िया कविताएँ

प्रतिभा सक्सेना ने कहा…

यह तो प्रकृति का कार्य-विभाजन है जिसकी ड्यूटी जैसे लगे -चाँद की रात में है ,तभी तो दिन में बेकार दिखता है .

Unknown ने कहा…

बहुत ही बढ़िया लिखा है आपने !
मेरी नयी पोस्ट पर आपका स्वागत है : Blind Devotion - स्त्री अज्ञानी ?

shikha varshney ने कहा…

बहुत सुन्दर.

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद ने कहा…

MRI मशीन में संगीत पा लिया और वह भी निर्लज्ज! भई वाह :)

सुरेन्द्र सिंह " झंझट " ने कहा…

'खुद को
समझा सकूं
शायद !!!

कुछ राहत पा सकूँ
शायद !!!
.................दोनों रचनाएं गहन भावों से परिपूर्ण
..................अभिव्यक्ति ह्रदय को छू रही है

Gyan Dutt Pandey ने कहा…

याद दिला दी एम आर आई की। दस महीने में तीन बार झेल चुका हूं! :(

Asha Joglekar ने कहा…

sunder kawitaen . Chand shayad hume ahsas dilata hai ki din bhale hee chip gaya ho, rat suhani hai.

Aaj kal US me hoon. Aaj chote bete ke pas ja rahen hain, Durahm (NH).

RadhaKannaujia13dastak ने कहा…

पहली वाली कुछ विशेष नहीं लगी, सच कहूँ समझ में नहीं आई. क्षुद्र बुद्धि जो ठहरा.
पर दूसरी तीन बार पढ़ी अच्छी लगी हर बार पर उत्तर...!!
उत्तर नहीं दे सकता. :-\

devendra gautam ने कहा…

अनुभूतियों की गहराई की ओर ले जाती कवितायें.... अच्छी लगीं ....
इसे पढ़कर एक शेर याद आ गया. शायर का नाम जुबां पर नहीं आ पा रहा है. शायद आपको याद आ जाये.

'दिन ढल चुका था और परिंदा सफ़र में था.
सारा लहू बदन का रवां मुश्ते पर में था.'

एक मेरा अपना शेर भी इसी पृष्ठभूमि में-

शाम के ढलते हुए माहौल के पेशे-नज़र
मैं भी अब वापस चला घर को थका हारा हुआ.

---देवेंद्र गौतम

Udan Tashtari ने कहा…

जी, देवेन्द्र भाई..उम्दा शेर आपका...और वो दूसरा वाला ’वज़ीर आगा’ जी का है.

रंजू भाटिया ने कहा…

वाह दोनों रचनाएं बेहद खूबसूरत हैं ...

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

आज तो टिप्पणी मे यही कहूँगा कि बहुत उम्दा रचनाएँ है यह दोनों!

एक मिसरा यह भी देख लें!

दर्देदिल ग़ज़ल के मिसरों में उभर आया है
खुश्क आँखों में समन्दर सा उतर आया है

अरुण कुमार निगम (mitanigoth2.blogspot.com) ने कहा…

बिन अपनों के भला लगे ,कैसे कोई देस
तुम्हरी खातिर देस जो, वो मेरा परदेस.
आजीविका के चलते ,हम दोनों मजबूर
तुम बैठे कनाडा तो, हम बैठे जबलपुर.
ना वो तुम्हरा शहर है,ना ये हमरा गाँव
दोनों के सर पर नहीं "अपने-घर"की छाँव.
तुम्हरे जैसा , चाँद से किया था मैंने सवाल
बोला नाईट -शिफ्ट है,बहुत बुरा है हाल.

mridula pradhan ने कहा…

खुद को कुछ
समझा सकूँ
शायद!!!
कुछ राहत पा सकूँ
शायद!!bahut achchi lagi.....

pallavi trivedi ने कहा…

dono rachnaaye bahut umda...

Vivek Jain ने कहा…

पूछना चाहता हूँ
उससे मैं
सबके घर लौटते वक्त
उसके आने का सबब

बहुत बढ़िया, लाजवाब!

विवेक जैन vivj2000.blogspot.com

M VERMA ने कहा…

प्राकृतिक उपालम्भों की सुन्दर छटा ...
अंतर्द्वन्द की रचना

Anupama Tripathi ने कहा…

दर्द से भरी ..उदासी में डूबी बहुत सुंदर रचनाएँ ...!!

ZEAL ने कहा…

bahut sundar kavita hai
aabhaar.

चन्द्र भूषण मिश्र ‘ग़ाफ़िल’ ने कहा…

अति संवेदनात्मक गहरी अनुभूति...वाह!

www.navincchaturvedi.blogspot.com ने कहा…

दोनों कवितायें सुंदर है समीर भाई| पहली वाली में 'अहसासता' शब्द का प्रयोग निराला लगा, और दूसरी में "सबब' वाली बात आप के अगले सृजन की घोषणा कर गई है| बधाई|

Er. सत्यम शिवम ने कहा…

वाह..लाजवाब।

डॉ. नूतन डिमरी गैरोला- नीति ने कहा…

समीर जी .. बहुत सुन्दर कविता ..एक तो निर्लज्ज संगीत पर और दुसरी गाँव घर को यात्रा में सूरज चाँद के साथ महसूस करना ...बेहद सुन्दर... उम्दा

Dr. Zakir Ali Rajnish ने कहा…

गागर में सागर जैसा कैसे भरते हैं आप?
---------
बाबूजी, न लो इतने मज़े...
भ्रष्‍टाचार के इस सवाल की उपेक्षा क्‍यों?

Ravi Rajbhar ने कहा…

Bahut hi khubsurat sir ji.

मेरे भाव ने कहा…

सुंदर अभिव्यक्ति।

Akshitaa (Pakhi) ने कहा…

बहुत सुन्दर कविता अंकल जी...

दिगम्बर नासवा ने कहा…

कुछ उदासी की परत लिए ..... समीर भाई सब कुछ कुशल मंगल तो है ....आशा है भाभी बच्चे ठीक होंगे ...

रंजना ने कहा…

वाह...

मर्मस्पर्शी...

निर्मला कपिला ने कहा…

हाँ कभी कभी इन्सान ऐसे ही सवाल पूछ्क़ता है जिनके जवाब नही मिलते बहुत भावमय रचना। शुभकामनायें।

Dr (Miss) Sharad Singh ने कहा…

दोनों ही कविताएं मन के उद्वेलन की बखूबी अभिव्यक्ति हैं...बहुत सुन्दर...

Kailash Sharma ने कहा…

पूछना चाहता हूँ
उससे मैं
सबके घर लौटते वक्त
उसके आने का सबब

खुद को कुछ
समझा सकूँ
शायद!!!

कुछ राहत पा सकूँ
शायद!!....

बेहतरीन प्रस्तुति...मन को उद्वेलित करती बहुत मर्मस्पर्शी रचना...आभार

Vaanbhatt ने कहा…

डायरेक्ट दिल से...

डॉ. मोनिका शर्मा ने कहा…

गहन चिंतन लिए ...सम्पूर्ण अभिव्यक्ति

रवि धवन ने कहा…

बहुत बढिय़ा सर।
आपका एक व्यंग्य लेख
'चलो दिल्ली में ही सेटल हो जाएं'
पंजाब केसरी में भी पढऩे को मिला।

ज्योति सिंह ने कहा…

शांति को भंग करती

निर्लज्ज संगीत की

धुन!!

चाँद... पूछना चाहता हूँ
उससे मैं
सबके घर लौटते वक्त
उसके आने का सबब खुद को कुछ
समझा सकूँ
शायद!!! कुछ राहत पा सकूँ
dono hi sundar rachna .

Khushdeep Sehgal ने कहा…

बर्फ़ीली सर्दियों में किसी भी पहाड़ पर,
वादी में गूंजती हुई खामोशियां सुनें,
आंखों में भीगे भीगे से लम्हे लिए हुए...

जय हिंद...

Khushdeep Sehgal ने कहा…
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
Akshitaa (Pakhi) ने कहा…

सुन्दर कविता अंकल जी..आजकल आपकी उड़नतश्तरी नहीं दिख रही है.

संजय भास्‍कर ने कहा…

खूबसूरत कविता... बहुत सुन्दर

बवाल ने कहा…

कुछ राहत पा सकूँ
शायद!!

इसे पा जाने की जद्दोजहद में ही तो ज़माना जिया जा रहा है।

अहा क्या कहना लाल साहब!

पंकज मिश्रा ने कहा…

आप अभी जिंदगी के महत्वपूर्ण पड़ाव पर हैं। फिक्र मत कीजिए। अभी से जाती हुई चीजें नहीं बल्कि आती हुई चीजें देखिए। शाम को नहीं सुबह निकलकर देखिए। रेलगाड़ी के डिब्बों को नहीं इंजन को देखिए। लौटते सूरज को नहीं उगते हुए सूरज को देखिए। बसेरों को वापस जाते पंक्षियों को नहीं सुबह अपने लक्ष्य की ओर जाते पंक्षियों को देखिए। खेल कर लौटते बच्चे नहीं सुंदर सजधज कर खेल की मैदान में जाते बच्चों को देखिए।
बाकी आप समझ ही गए होंगे।
और हां... जेल जाने से डरने लगा हूं। पता चला है कि पुलिस पकड़ नहीं रही बल्कि मार रही है, आंसू गैस के गोले छोड़ रही है। लाठियां भांज रही है। और कहीं से पकड़कर कहीं पहुंच रही है वह भी हवाई जहाज से। कपड़े भी उतर ले रही है। पुलिस का नजरिया बदले तो सोचता हूं। फिलहाल कैंसल।

ghughutibasuti ने कहा…

एम आर आई मशीन के भीतर कैद हो उसका संगीत सुनना सच में भयावह होता है. डॉ लगता है अभी दमे का दौरा पड़ेगा या खांसी या छींक आएगी.
चाँद शायद लेट लतीफ है.
घुघूती बासूती

Dr.Bhawna Kunwar ने कहा…

साईकिल पर सवार
कारखाने के वापस आते मजदूर
अपने बसेरों की तरफ जाते पंछी
धूल में सने
दिन भर खेल कर
लौटते गांव के बच्चे....
antrman se upji ye rachna dil ko bahut bhaiii...aabhaar..

Shah Nawaz ने कहा…

वाह! बेहतरीन अभिव्यक्ति... शब्द दिल को छू गए!!!

rafat ने कहा…

देखता हूँ रेलगाड़ी के डिब्बे की
खिड़की से झाँक
घर लौटते
सूरज को
साईकिल पर सवार
कारखाने के वापस आते मजदूर
अपने बसेरों की तरफ जाते पंछी
श्रीमान कविताएँ गहरी सोच बहुत आसानी के साथ लिए हुए हैं जिसे कविता से लगाव नही उस तक भी रही हैं .सरल-सरस-सुंदर .शुक्रिया

Udan Tashtari ने कहा…

Pooja Goswami to me

कारखाने के वापस आते मजदूर
अपने बसेरों की तरफ जाते पंछी
धूल में सने
दिन भर खेल कर
लौटते गांव के बच्चे

बहुत सुंदर....