मंगलवार, फ़रवरी 08, 2011

एक रात कुछ यूँ गुजरे....वीरान कविता रचते

पूरे ८५ दिन याने लगभग तीन माह भारत में रह जब कनाडा वापस आने को ट्रेन में बैठा तो लगा कि क्या क्या सोच कर आया था और कितना कम पड़ गया समय. सोचा था कि १० दिनों को केरल भी घूम आयेंगे इस बार, वो भी रह गया. समय ऐसा पंख लगा कर उड़ा कि कुछ पता ही नहीं लगा.

लगता था जैसे कल ही आये हों और आज वापस चल दिये. कितने सारे मित्रों से कितनी सारी बातें करनी थी. कितने ही रिश्ते नातेदारों से मिलने का दिल था.कितने ही शहरों में पहुँचने की नाकाम कोशिश. बस, यूँ ही कुछ कारण बनते गये, दिन बीतते रहे और आज वापसी. सब आधा अधूरा सा, छूटा हुआ.

अब न जाने कब आना हो फिर से? यदि कुछ विशिष्ट कारण न हो जाये तो साल भर के पहले तो क्या आना होगा.

मन उदास होने लगता है. सोचता हूँ, अगली बार ज्यादा दिन के लिए आऊँगा और जरा ज्यादा व्यस्थित कार्यक्रम बना कर. केरल घूमने का कार्यक्रम तो निश्चित ही शामिल रहेगा.

भारी मन से एक नजर रेल की खिड़की के बाहर देखता हूँ. रेल भाग रही है और कितना कुछ पीछे छूटा जा रहा है.

सामने की सीट पर नजर पड़ती है. लगभग ३४/३५ वर्ष का एक दुबला पतला युवक, अपनी पत्नी के साथ बैठा है एकदम शांत. चेहरे पर कोई भाव नहीं. उसकी पत्नी की आँखों के नीचे पड़े काले गोले उसके परेशान होने की गवाही दे रहे हैं.

बात चलती है.

दोनों एक रोज पहले ही बम्बई से लौटे हैं. महैर में रुक माँ शारदा देवी के दर्शन करके अब अपने घर आगरा लौट रहे हैं. टाटा मेमोरियल में पति का ईलाज चल रहा था. केंसर अंतिम स्टेज में है. डॉक्टर कहता है कि ज्यादा से ज्यादा ३० दिन के मेहमान है. घर ले जाओ.

मैं एक गहरी सांस छोड़ता हूँ-बस, ३० दिन. क्या कुछ करने की सोचता होगा इन ३० दिनों में वो. कितने कुछ अरमान साथ लिये जायेगा और फिर उसे तो अगली बार की तसल्ली भी नहीं.....

एक बार फिर भारी मन से खिड़की के बाहर नजर गड़ा देता हूँ. हल्का अँधेरा घिर आया है. वीरान सा पड़ा रेलवे का ’एबेन्डन्ड सिग्नल केबिन’ सामने से गुजर जाता है और जागते है कुछ उजड़े से ख्यालात मेरे जेहन में, बस यूँ ही दम तोड़ देने को.

railwaycabin

रात आसमान में
अपनी उजली चादर
बिछाता चाँद...

झाड़ियों की झुरमुट में
अँधेरों को हराने की
नाकाम कोशिश में जुटे
जुगनुओं की जगमगाहट

कहीं दूर से आती
मालगाड़ी की सीटी का
कर्णभेदी हुँकार

नजदीक के खेत की
कच्ची झोपड़ी से उठती
एक बुढिया की
सूखी खाँसी की खंखार..

चूल्हे से
ओस में भीगी लकड़ियों के
जलने से उठते
धुँए की घुटन
और
उस पर
अलमुनियम की ढक्कन वाली केतली
में चढ़ी
काली कॉफी का
कड़वा घूँट भरते हुए

पटरी किनारे
उस निर्जन वीरान रेलवे के
’एबेन्डन्ड सिग्नल केबिन’ में
एक रात गुजारुँ

और

कुछ
अजब सी
बेवजह
वीरान
कविता रचूँ
मैं!!!

-समीर लाल ’समीर’

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86 टिप्‍पणियां:

Taarkeshwar Giri ने कहा…

क्या दर्द दिया हैं आपकी अँगुलियों ने,
ना चाहते हुए भी जाना पड़ता हैं
अपनों को छोड़कर.

येही तो दस्तूर हैं ईस जिंदगी का,
बेशरम मौत भी तो साथ चलती हैं

दीपक 'मशाल' ने कहा…

Jauk ne kaha bhi hai-
लायी हयात आये कजा ले चली चले
अपनी खुशी से आये न अपनी खुशी चले

Satish Saxena ने कहा…

आपको पढ़ते हुए लगा कि जैसे मेरे सामने बैठे बात कर रहे हो ! बेहतरीन सरल लेखन शैली के लिए आपको बधाई समीर भाई !

Satish Saxena ने कहा…

आपको पढ़ते हुए लगा कि जैसे मेरे सामने बैठे बात कर रहे हो ! बेहतरीन सरल लेखन शैली के लिए आपको बधाई समीर भाई !

Arun sathi ने कहा…

सच है हम जैसा सोंचते है वैसा होता नहीं। पर कहीं रहिये आपका देश आपके साथ है रोज रोज।

और विरारियों पर लिखी कविता, बहुत ही सुंदर। कभी उस केबिन मंे रात गुजार लिजिए और काली कॉफी का मजा भी लिजिए।
सादर
अरूण साथी।

rashmi ravija ने कहा…

आलेख और कविता...दोनों ही उदास कर गए

बेनामी ने कहा…

कमेंट में इतना ही कहूँगा कि-
हँसीं सपनों की शहजादी किसे अच्छी नहीं लगती!
वतन की अपनी आजादी किसे अच्छी नहीं!!

अजित गुप्ता का कोना ने कहा…

समीरजी, जितना केरल सुन्‍दर है वैसा ही आकर्षण राजस्‍थान में भी है। अपनी सूची में इसे भी शामिल कर लीजिए।

कविता रावत ने कहा…

sansmaran aur kavita dono mein hamare aas paas ka jo anchaha dard ubhar kar saamne aata hai wah kitna teesta hai, yah koi samvendansheel insaan samjh paata hai..
tamam dukhad sthti ke beech bhi apna ghar sabko pyara lagta hi hai!!

ब्लॉ.ललित शर्मा ने कहा…

एबेन्डन्ड सिग्नल केबिन में अंग्रेजों के जमाने भूत मिलेगें। लेकिन वहाँ से निकली पोस्ट गजब की होगीं। भूतों के अनुभव भी कम नहीं होते।

जीना इसी का नाम है।

हां!मेरी डाक पहुंची ?

सोमेश सक्सेना ने कहा…

मैं भी उदास हो गया पढ़कर :(

Meenu Khare ने कहा…

आह क्या हृदयस्पर्शी चित्रण!छोटी छोटी बातों को शब्दों से उकेरने की यह शैली कहीं २ गुलज़ार जैसी लगी.

palash ने कहा…

हम जो सोचते है अक्सर , वो पूरा होता नही
और जो हो जाता है , उसे सोच पाते नही

आप जल्द ही दुबारा अपने भारत मे आये, और केरल की साइर करें ।
शुभकामनायें।

PAWAN VIJAY ने कहा…

कैनवास पर उदास पेंटिंग...
जो मंगल गीत बना उसको निश्चित मातम बन जाना है

पी.सी.गोदियाल "परचेत" ने कहा…

कहीं दूर से आती
मालगाड़ी की सीटी का
कर्णभेदी हुँकार

नजदीक के खेत की
कच्ची झोपड़ी से उठती
एक बुढिया की
सूखी खाँसी की खंखार..

बहुत सुन्दर, कौनो बात नाही सर जी , अगली बार घूम आना , बहुत सुन्दर जगह है खासकर मुन्नार !

Shah Nawaz ने कहा…

पता ही नहीं चला आप कब आए और कब चल दिए... सच में समय ऐसे ही गुज़र जाता है... आपसे दोनों मुलाकाते बहुत ही अच्छी रही...

Deepak Saini ने कहा…

हम जो सोचते है यदि वो पूरा हो जाये तो जिन्दगी का रोमांच ही खत्म हो जायेगा।
कविता बहुत अच्छी लगी, एक अलग सी शैली जो अपना पूर्ण प्रभाव छोडती है

मुकेश कुमार सिन्हा ने कहा…

sameer bhaiya...bahut dino baad aapke post me dard dikh raha hai...!
waise sahi hi hai...motherland se itti dur jo chale jate ho..!
god bless bhaiya..

सञ्जय झा ने कहा…

dor to upar wale ke hi haath hai....

pranam

स्वाति ने कहा…

ekdam sahaj saral ,apno se apni baat karta hua aalekh..

सदा ने कहा…

दिल को छूते शब्‍द भावमय प्रस्‍तुति ...।

बवाल ने कहा…

ज़माने भर का अक्स शरीक है आपकी इस पोस्ट में।
उस दिन जबलपुर स्टेशन से आपको सैंड-आफ़ किया तो वो स्टेशन भी इसी केबिन की तरह उजाड़ नज़र आने लगा। यार से बिछुड़ने का ग़म आँसुओं के साथ लिए लौट पड़े। करते भी क्या ? लौटना ही तो अटल नियति है।
पता नहीं क्यों उस दिन स्टेशन से राइट टाउन लौट कर बड़ी रुलाई आई। खै़र।
फ़रवरी अंत में पूना के लिए हम भी लौट पड़ेंगे।

Sushil Bakliwal ने कहा…

आस कायम रहे फिर भलें ही वो डाक्टर्स द्वारा दिये गये 30 दिनों के अल्टीमेटम के सन्दर्भ में ही क्यों न हो. शुभकामनाएँ.....

अरुण चन्द्र रॉय ने कहा…

30 din.. bas tees din.. kina kam hoga na uske liye jise pata ho... hamare hisse kee kuchh umar use mil jaye...

शारदा अरोरा ने कहा…

आह , जिन्हें वक्त ने अगली बार किसी ख़्वाब की मोहलत भी न दी ...टूट जाते हैं वो मौत के आने से भी पहले ...कैसा वीरान सा लगता है समां , जो अगली बार का भी कोई पता ही नहीं ...आपने कविता भी बहुत अच्छी लिखी ...

vandana gupta ने कहा…

बस, ३० दिन. क्या कुछ करने की सोचता होगा इन ३० दिनों में वो. कितने कुछ अरमान साथ लिये जायेगा और फिर उसे तो अगली बार की तसल्ली भी नहीं.....

उफ़!ज़िन्दगी की यही हकीकत है कम से कम उसे पता तो है उसके पास अब 30 दिन बचे हैं और जिन्हे नही पता बेख्याली मे जिये जा रहे है कल की खबर नही बरसों के ख्याल ।

mridula pradhan ने कहा…

marmsparshi.....

मनोज कुमार ने कहा…

• आपकी कविता जीवन के विरल दुख की तस्‍वीर है, इसमें समाई पीड़ा आम जन की दुख-तकलीफ है ।

शोभना चौरे ने कहा…

बहुत कुछ कह गई ये वीरान कविता |

अजय कुमार झा ने कहा…

सुनिए ई नहीं चलेगा ....अभी देख लूं तो चलूं ..पोरा पढ भी नहीं पाए हैं और आप हैं कि अगिला सुरू कर दिए ...अरे हम सब जानते हैं ..और मानते हैं । बहुते सन्नाट ..हमको तो अच्छा लगा कि आपको अईसा अईसा फ़ील हुआ ..जितना ज्यादा हम लोग आएंगे उतने दनदनाईल आप पहुंचिएगा । और हम फ़िर से आपसे कह सकेंगे कि ...भईया जी ..इश्माईल

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

केरल न जाने की कसक बहुत गहरे उड़ेल गये आप। उस युवक के मन को समझना एबैन्डण्ड केबिन में बैठने जैसा ही है। क्या लिखेंगे हाल ए दिल, बस आ जाईये पुनः, बैठकर कर लेंगे बातें।

anju ने कहा…

आज मैं भी उदास हो गयी पढ़ कर...मीनू खरे जी से मैं भी सहमत हूँ ,कविता पढ़ते हुए मुझे भी ऐसे लगा था जैसे गुलजार जी को पढ़ रही हूँ...

shikha varshney ने कहा…

भारत से लौटते वक्त कुछ ऐसे ही ख्याल आते हैं हमेशा ..न जाने क्यों? पाता नहीं क्या है वहां ऐसा. हर बार जैसे कुछ छूट सा जाता है.
केरल जाने की चाह तो मैं भी हर बार लेकर जाती हूँ पर वही होता है जो आपके साथ हुआ ..समय की कमी :)
बहुत मर्मस्पर्शी लेख भी और कविता भी.

Rahul Singh ने कहा…

मानों प्रतिबिंबित होती वापसी की उदासी.

नीरज गोस्वामी ने कहा…

सच कहा आपने...वक्त बहुत शरारती है...जब उसे धीरे चलना चाहिए तब भागने लगता है और जब भागना चाहिए तब रेंगता है...आप से मिलने की हसरत ही रह गयी...शादी के एन मौके पर फ्लाईट का केंसिल होना और उसके बाद उपयुक्त समय की इंतज़ार में बैठे रहना...बस इसी में आपके प्रवास का समय निकल गया...आपकी किताब पास में है जिसे मैं गाहे बगाहे पढता हूँ ...आपको याद करता हूँ और सोचता हूँ शायद अगली बार भेंट हो...शायद...सोचने में क्या जाता है...
नीरज

ताऊ रामपुरिया ने कहा…

वाकी समय बहुत ही कम पडता है जब करने को बहुत कुछ हो. वतन छोडते समय जो हालत होती है उसका हूबहू खाका खींच डाला आपने. यही आपके लेखन की खासियत है कि अपने विचारों को हूबहू शब्द दे देते हैं. शुभकामनाएं.

रामराम.

रेखा श्रीवास्तव ने कहा…

अपने के बीच बीते हुए पलों को सहेज कर तो ले जा रहे हैं और फिर आने तक उनको ही उलट पलट कर देखते रहिएगा. ट्रेन कि घटना और कविता दोनों ही छू गए.
फिर से आने का इन्तजार रहेगा इस देश को और इस माटी को.

केवल राम ने कहा…

क्या दर्द दिया हैं आपकी अँगुलियों ने,
ना चाहते हुए भी जाना पड़ता हैं
अपनों को छोड़कर.

आदरणीय समीर लाल जी
बहुत भावुक कर देने वाली रचना ...और वास्तविकता को वयां करने वाली ...मर्म स्पर्शी भावों से सजी ....शुक्रिया

रश्मि प्रभा... ने कहा…

bahut badhiyaa

Mukul ने कहा…

जीवन कितना अनिश्चित है अद्भुत

अमिताभ मीत ने कहा…

बहुत खूब. आप की परवाज़ कमाल की है.

OM KASHYAP ने कहा…

bahut sunder

संजय भास्‍कर ने कहा…

हम जो सोचते है यदि वो पूरा हो जाये तो जिन्दगी का रोमांच ही खत्म हो जायेगा।

संजय भास्‍कर ने कहा…

वसन्त की आप को हार्दिक शुभकामनायें !
कई दिनों से बाहर होने की वजह से ब्लॉग पर नहीं आ सका
बहुत देर से पहुँच पाया ....माफी चाहता हूँ..

रंजना ने कहा…

मन बोझिल हो जाता है,जब भी इन विचारों के पास से गुजरो...
और उसमे भी जब ये आपके कलम से रिसकर बाहर आते हैं ,तब तो निर्लिप्त संयत रह पाना असंभव ही है...

smshindi By Sonu ने कहा…

समीरजी,लेख और कविता...दोनों ही बेहद सुन्दर है सर जी

smshindi By Sonu ने कहा…

कल है तेदीिवेय्र डे मुबारक हो आपको एक दिन पहले

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Happy Teddy Vear Day

कुमार संतोष ने कहा…

वाह बहुत खूब, पढ़ते ही कविता का दर्द दिल के भीतर महसूस होने लगा !!

Amit Chandra ने कहा…

बेहद भावनात्मक रचना है। बहुत कुछ सोचने को मजबुर करती है। आभार।

राजेश उत्‍साही ने कहा…

यह पोस्‍ट तो 'देख लूं तो चलू' का हिस्‍सा लगी। 30 दिन ..बहुत दर्दनाक।

डॉ टी एस दराल ने कहा…

समय आगे आगे ही चलता है ।
लेकिन यही अपूर्ण चाहत ही जिंदगी की प्रेरणा बनती रहती है ।

चला बिहारी ब्लॉगर बनने ने कहा…

हृषि दा की फिल्म आनंद में आनंद की विवशता याद आ गई, जब अपनी मुँहबोली बहन के लिये कहता है कि मैं तो ये भी नहीं कह सकता कि मेरी उमर तुझे लग जाये!! 30 दिन की ज़िंदगी उसकी जिसके माँ बाप ने भी शतंजिवी होने की दुआ दी होगी!!
बहुत गहरे चुभ गई कविता और ये याद आपकी!!

उपेन्द्र नाथ ने कहा…

समीर जी , अपनों को याद करके और उनके प्यार के एहसास को आपने बखूबी बयां किया है

.

बहुत ही मार्मिक कहानी बताई आप ने उस बेचारे की. सच कभी कभी जिंदगी को समझाना आसान नहीं लगता .

बस्तर की अभिव्यक्ति जैसे कोई झरना ने कहा…

समीर भाई ! आज पता नहीं क्यों आपको शहजादा सलीम कहने का दिल कर रहा है ....तो शहजादा सलीम ! आपके इस भारी-भरकम ज़िस्म के तहखाने में एक बड़ा ही नाज़ुक सा दिल धड़कता देख रहा हूँ ...हाँ ! मुझे साफ़ नज़र आ रहा है .........वह बड़ा नाज़ुक है .......जाते-जाते वह उदास था और सारी फिजा को उदास कर गया ......उस दिल को रास्ते में भी ज़ो दिखा सब उदास था .....सहयात्री ......रेलवे का खंडहर ....पीछे छूटते पेड़ ......सब
काश ! अपने वे दिन होते तो हम कहते " शहजादा सलीम ! हम आपको हुक्म देते हैं कि ज़ल्द ही रियासते हिन्दुस्तान की ओर वापस कूच करो...हम आपको सात समंदर पार रहने की इजाज़त नहीं दे सकते"
अगली बार केरल और राजस्थान के बाद सूची में बस्तर को भी जोड़ लीजिएगा ....आपकी नक्सलियों से भी मुलाक़ात हो जायेगी .......और यहाँ के जंगल में शायद किसी बाघ या भालू से भी .

सम्वेदना के स्वर ने कहा…

ज़बर्दस्त वापसी!! एकदम इमोशनल कर देनेवाली पोस्ट और उससे भी ज़्यादा दिल को छू लेने वाली कविता!!
सूनापन दूर हुआ आपकी वापसी से!!

भारतीय नागरिक - Indian Citizen ने कहा…

ये तो मुझे भी बहुत रोमांचक लगता है... एक बार मैं टी शेप में बने डब्बे में यूं ही बैठा रहा कई घंटे तक...

राज भाटिय़ा ने कहा…

समीर जी केरल तो हम शायद जल्द ही जाये, यहां टूर मे दिखाया तब से दिल मे हे, यहां से टूर बन कर चलते हे १५, २० दिन के जिस मे सब कुछ शामिल होता हे.... लेकिन बीबी नही मानती वो चाहती हे जाये तो बिना दूर के ताकि वो कुछ दिन अपने भाई बहिनो के संग रह ले, देखो कब जाना होता हे

dhiru singh { धीरेन्द्र वीर सिंह } ने कहा…

उस व्यक्ति को पता था ३० दिन है उसकी जिन्दगी के .हमे तो पल की खबर नही .

Rajesh Kumar 'Nachiketa' ने कहा…

जब यम का मुगदर पड़ता है तब समझ में आता है की समय कितना कम बचा है और जो समय था उसमे कुछ किया ही नहीं....

Khushdeep Sehgal ने कहा…

मैं वापस आऊंगा,
मैं वापस आऊंगा,
फिर अपने गांव में,
उसकी छांव में,
कि मां के आंचल से,
गांव के पीपल से,
किसी के काजल से,
किया जो वादा था वो निभाऊंगा,
मैं इक दिन आऊंगा...

जय हिंद...

Sulabh Jaiswal "सुलभ" ने कहा…

वीरान मन में बहुत से उथल पुथल. सब कुछ महसूसना तो मुमकिन नहीं पर आज बहुत कुछ महसूस किया.

पी.एस .भाकुनी ने कहा…

किसी शायर ने क्या खूब कहा है -
ये माना जिन्द्गगी होती है चार दिन की,
बहुत होते हैं यारो ये चार दिन भी l
इस बात का अहसास वहां पर होता है जिस जगह पर वह युवक खड़ा है जिसका वर्णन आपने किया है ,
ज़िन्दगी की यही हकीकत है कम से कम उसे पता तो है उसके पास अब 30 दिन बचे हैं
दिल को छूते शब्‍द एवं भावमय प्रस्‍तुति हेतु आभार व्यक्त करता हूँ .

amrendra "amar" ने कहा…

dil ko chu gayi ..........pr hume to pata hi nahi chal aap kab aaye aur kab chale gaye.......hume to aap hamesha hi yahi kahi aas pass lagte hai .......bhini bhini mahek ke saath

Dr. Zakir Ali Rajnish ने कहा…

आपकी कलपनाएं बिलकुल अनोखी होती हैं।

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ब्‍लॉगवाणी: एक नई शुरूआत।

सु-मन (Suman Kapoor) ने कहा…

bahut hi gahra likha hai....

Abhishek Ojha ने कहा…

ओह !

कुमार राधारमण ने कहा…

जीवन के अंतिम दिनों में,व्यक्ति फ्लैशबैक में जी रहा होता है,जहां खुशियों के पल भी बहुत कुछ न कर पाने की कसक में गुम हो जाते हैं। अपने जीवन से ज्यादा मलाल इस बात का होना कि उसकी मृत्यु से कइयों का कष्ट जुड़ा है,मनुष्य की संवेदना का एक मार्मिक पक्ष है।

Pratik Maheshwari ने कहा…

सही कहा है किसी ने.. "कल हो न हो, आज जितना चाहो जी लो"
एक अच्छा सन्देश देती हुई पोस्ट.. अच्छा लगा..

आभार

ZEAL ने कहा…

.

@-मन उदास होने लगता है। सोचता हूँ, अगली बार ज्यादा दिन के लिए आऊँगा और जरा ज्यादा व्यस्थित कार्यक्रम बना कर...

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आप भारत आने का कार्यक्रम चाहे जितनी लम्बी अवधी का बना लें , कम ही लगेगा। वापस लौटते समय यही महसूस होगा की थोडा और वक़्त मिल जाता। क्यूंकि अपने देश की मिटटी हमें बार बार अपनी तरफ बुलाती है ।

.

बेनामी ने कहा…

sabse pehle to nazm ke liye.....behad khoobsurat....bohot hi kamaal ki nazm.....

aur ab aapke chhuttiyon ke sarrr se khatm ho jaane par.....i can imagine kaisa lag raha hoga...muddaton raah dekhte hain jaane ki....aur jaakar hosh sambhal paane se pehle waapas....sapne sa guzar jaata hai sab...haina??

i love ur writing sir....beautiful style :)

डा० अमर कुमार ने कहा…


ईश्वर के न्याय पर क्रोध तो उपजता ही है, पर डॉक्टर को भी यूँ किसी के जीवन की मियाद निर्धारित करने का अधिकार नहीं हैं ।
बिडम्बनाओं से उपजी करुणा को आम आदमी कितने पल तक याद रख पाता है !

डा० अमर कुमार ने कहा…

.

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद ने कहा…

`सोचा था कि १० दिनों को केरल भी घूम आयेंगे इस बार, वो भी रह गया. '

ब्लागर मीट से फुरसत मिले ... तब ना :)

शरद कोकास ने कहा…

कविता में यह दृश्य सचमुच सुन्दर दिखाई देता है .. काश आप छत्तीसगढ़ भी आते.. यहाँ भी बहुत कुछ था देखने के लिए , हम तो इंतज़ार ही करते रह गए और आपके स्वागत की तैयारी धरी रह गई । खैर अगली बार सही..

Smart Indian ने कहा…

सुन्दर अभिव्यक्ति। जब तक इस बात का अहसास होता है कि समय वाकई बहुत कम है, समय चुक जाता है।

बेनामी ने कहा…

अपनी सोची कब होती है, जो सोचे वो ऊपर वाला... ज़िंदगी जो भी दे, स्वीकार करना ही पड़ता है... "बस, ३० दिन. क्या कुछ करने की सोचता होगा इन ३० दिनों में वो. कितने कुछ अरमान साथ लिये जायेगा और फिर उसे तो अगली बार की तसल्ली भी नहीं.".... इन पंक्तियों ने बेबसी को पूरी तरह से व्यक्त किया है और पढ़ने वालों के दिल को व्याकुल भी किया है .... अपनों से, अपने घर से दूर जाने का दुःख हमेशा ही असहनीय होता है, लेकिन जब वापसी की गुंजाइश न हो, एक-एक दिन गिन कर अंत की ओर कदम बढ़ाना कितना त्रासदायी होता है, मै जानती हूँ, मेरे परिवार ने भी यह दुःख झेला है पिछले साल. ख़ैर .. अपने बस में तो कुछ भी नहीं.... जाही विधि राखे राम ताही विधि रहिये.... के सिवा और चारा भी क्या है.

रात आसमान में
अपनी उजली चादर
बिछाता चाँद...

झाड़ियों की झुरमुट में
अँधेरों को हराने की
नाकाम कोशिश में जुटे
जुगनुओं की जगमगाहट

बहुत सुन्दर उपमान... सही कहा मीनू जी ने, यह पंक्तियाँ काफ़ी कुछ गुलज़ार जी की रचनाओं जैसी लगती हैं... अत्यन्त सुन्दर रचना.

रजनीश तिवारी ने कहा…

कब कहाँ किस रूप में मिल जाये जिंदगी कह नहीं सकते । केबिन की तरह कितने लोग भी अबेन्डन्ड कर दिये जाते हैं । मैं खो गया कहीं आपका संस्मरण पढ़कर ।

Rahul ने कहा…

Bahut aacha laga.....

Kajal Kumar's Cartoons काजल कुमार के कार्टून ने कहा…

जीवन की सार्थकता शायद इसी में है

वृक्षारोपण : एक कदम प्रकृति की ओर ने कहा…

डॉ. दिव्या श्रीवास्तव ने विवाह की वर्षगाँठ के अवसर पर किया पौधारोपण
डॉ. दिव्या श्रीवास्तव जी ने विवाह की वर्षगाँठ के अवसर पर तुलसी एवं गुलाब का रोपण किया है। उनका यह महत्त्वपूर्ण योगदान उनके प्रकृति के प्रति संवेदनशीलता, जागरूकता एवं समर्पण को दर्शाता है। वे एक सक्रिय ब्लॉग लेखिका, एक डॉक्टर, के साथ- साथ प्रकृति-संरक्षण के पुनीत कार्य के प्रति भी समर्पित हैं।
“वृक्षारोपण : एक कदम प्रकृति की ओर” एवं पूरे ब्लॉग परिवार की ओर से दिव्या जी एवं समीर जीको स्वाभिमान, सुख, शान्ति, स्वास्थ्य एवं समृद्धि के पञ्चामृत से पूरित मधुर एवं प्रेममय वैवाहिक जीवन के लिये हार्दिक शुभकामनायें।

आप भी इस पावन कार्य में अपना सहयोग दें।


http://vriksharopan.blogspot.com/2011/02/blog-post.html

CS Devendra K Sharma "Man without Brain" ने कहा…

kavita rachne ka anutha idea pasand aaya...............

महेन्‍द्र वर्मा ने कहा…

आपकी वीरान कविता ज़िदगी की सच्चाई है।

अपने ब्लाग पर आपका पहला क़दम देख अभिभूत हूं।

abhi ने कहा…

उस आदमी के बारे में पढ़ के बहुत बुरा लग रहा है.. :( दिल उदास हो गया..
और कविता भी उदास कर गया मन को :(

abhi ने कहा…

चचा जी, आपसे मिलने का मेरा भी मन था...लेकिन जब आप थे दिल्ली में, तब मैं आ नहीं पाया..बहन की शादी के वजह से..फिर बाद में जब आया उसके चार पांच दिन पहले ही आप वापस चले गए थे शायद.
वैसे समझ सकता हूँ..की समय की कमी हो जाती है...आप तो कैनाडा से आये थे, हम तो यहीं रह के घर जाते हैं दस पन्द्रह दिनों के लिए तो कितनो से मिलना बाकी रह जाता है...समय का ही सब दोष है :(

खैर, अगली बार आपसे मिलना होगा पक्का :)

Dr.Bhawna Kunwar ने कहा…

aisa hi hota ye safar....bas har saal jaane oir dher saare sapno se shuru hokar kuch adhurapan sa liye lotna padta hai...

डॉ रजनी मल्होत्रा नैय्यर (लारा) ने कहा…

समीर जी , एक अच्छा सन्देश देती हुई पोस्ट.. अच्छा लगा..

आभार.....