बुधवार, जुलाई 28, 2010

फिर वही दिन…

समय बीतता जाता है और एक एक दिन करके हम न जाने किस गुणा भाग में लगे जान ही नहीं पाते कि कहाँ आ पहुँचे हैं. फिर एकाएक एक दिन साल में वो दिन आ जाता है, जब आप पैदा हुए थे. खुशी इस बात की होती है कि मित्रों और स्नेहीजनों से बधाई मिली, कुछ दावत वगैरह हुई, उत्सव सा मनाया गया. बस, और एक साल गुजर जाता है.

आज वैसा ही दिन है मेरे लिए. आज ही के दिन अभी कुछ ही बरस पहले मैं पैदा हुआ था. :) (२९ जुलाई)

कुछ सालों पहले तक पन्ने पलटा रहा था. कुछ खुद की तस्वीरें, कुछ बदलाव की साक्षी. आपसे बाँटने का मन हो आया.

हर वर्ष की तरह ही, इस वर्ष भी मेरे अग्रज, गुरु राकेश खण्डेलवाल जी का स्नेह एवं शुभकामना एक कविता के माध्यम से प्राप्त हुई. आप सब भी पढ़ें.

भोर की पहली किरण अँगड़ाई लेकर मुस्कुराये
झूमकर प्राची सुरों में कोयलों के गुनगुनाये
एक झरना ताल पर सारंगियों की बह गया सा
एक पाखी नीड़ से उड़ता हुआ, यह कह गया सा
मुस्कुराओ,आज का दिन, आपका शुभ जन्मदिन है

मेघ आषाढ़ी बुलाते सावनों को, झूम आओ
शाख कहती वॄक्ष की, अब डाल पर झूले झुलाओ
मलयजी झोंके खड़े हैं हो गये दहलीज आकर
धूप भी कहने लगी दालान से नवगीत गाकर
साथ गाओ, आज का दिन आपका शुभ जन्मदिन है

बिछ रही हैं आ क्षितिज पर इन्द्रधनुषी कामनायें
हो रही हैं पल्लवित कुछ और नव संभावनायें
स्वप्न के शिल्पी सलौने धार बन कर बह रहे हैं
और मन के भाव प्रमुदित मग्न हो कर कह रहे हैं
साथ मेरे स्वर मिलाओ, आपका शुभ जन्मदिन है

फूल ने भर भर कटोरे, गंध भेजी आज द्वारे
धार नदिया की तटों पर, आरती आकर उतारे
शीश पर टीके लगाती चाँदनी भी जगमगाकर
साज की तंत्री बिखेरे स्वरमयी सौगंध लाकर
यश-कलश से सज खिलें सारी दिशायें, जन्मदिन है
कामना शुभ हो असीमित,आपका यह जन्मदिन है.

-राकेश खण्डेलवाल

Indli - Hindi News, Blogs, Links

रविवार, जुलाई 25, 2010

एक विचार और फिर..

बहुत सारे ऐसे दिन गुजर जाते हैं जब हम लेखक, कवि, ब्लॉगर आदि होकर भी कुछ नहीं लिख पाते. कुछ इन हालातों में आत्म ग्लानि का बोध पाल लेते हैं तो कुछ अपराध बोध से ग्रसित हो जाते हैं.

हालांकि न लिख पाने की बहुतेरी वजह हो जाती हैं. कभी घरेलू जिम्मेदारियाँ तो कभी व्यवसायिक व्यस्तताएँ मगर कभी कभी तो कोई भी कारण नहीं होता. तब बस सब कुछ आलस्य मान कर संतोष कर लेते हैं.

अक्सर जब एक अंतराल के बाद, खासकर ब्लॉग लेखन में, ब्लॉगर लौटता है तो उसकी शुरुवात ही इस आत्म ग्लानि या अपराध बोध को जाहिर करते हुए क्षमायाचना के साथ होती है. उसे महसूस होता है कि सब उसके लिखे का इन्तजार कर रहे होंगे और उसने इतने दिन से कुछ लिखा नहीं. चलो, भ्रम ही सही लेकिन है तो सुखद अहसास. इस हेतु अगर क्षमायाचना के साथ भी पुनर्लेखन की शुरुवात करनी पड़े तो क्या बुराई है.

बस विचार यह आता है कि एक लेखक या कवि या ब्लॉगर होकर न लिख पाने का अहसास हमें हो जाता है और उसके लिए क्षमायाचना को भी तत्पर रहते हैं मगर एक लेखक या कवि या ब्लॉगर होने से भी पहले हम सब एक इन्सान हैं, एक संवेदनशील इन्सान और हममें से बहुतेरे इन्सानियत और संवेदनाओं से इतने समय से किनारा किए हुए भी अपराध बोध से ग्रसित क्यूँ नहीं होते, क्यूँ नहीं होती कोई आत्मग्लानि. क्यूँ नहीं हम इस हेतु क्षमायाचना को तत्पर नहीं होते. क्यूँ नहीं हम सोचते कि लोग एक बार फिर इन्सानियत और संवेदनाओं का इन्तजार कर रहे होंगे. अगर सभी ऐसा सोच लें तो शायद समाज का एक नया चेहरा सामने आये मगर काश!! ऐसा सोचें तो!!

मुझे ज्ञात है कि यह सब पढ़कर आपके मन में मिश्रित विचार तरंगे मार रहे होंगे किन्तु यहाँ जब मैं लेखन से अंतराल की बात कर रहा हूँ तब यह अर्थ नहीं है कि इस अन्तराल में आपने चिट्ठी पर पता या दूध का हिसाब या दफ्तर के नोटस भी नहीं लिखे बल्कि मैं उस लेखन अंतराल की बात कर रहा हूँ जिस सार्थक लेखन को आप सप्रयास समाज के हित में, चिन्तन में, विकास हेतु, अपने मन में उठ रहे विचारों को प्रकट करने, समस्याओं पर प्रकाश डालने एवं हल के सुझाव हेतु करते हैं और चाहते हैं कि समाज इसे समझे और लाभान्वित हो अतः इन्सानियत से अन्तराल की बात भी उसी परिपेक्ष में लिजियेगा.

humanity

खैर, बस ये तो यूँ ही कुछ आस पास की स्थितियाँ देख विचार उठ गये वरना तो आया था आज एक गज़ल लेकर, जिसे स्वर दिया इंदौर के बेहतरीन गायक, जो किसी परिचय के मोहताज नहीं, भाई दिलीप कवठेकर जी ने. सारे शेर तो नहीं गाये, वजह समय की पाबंदी. अतः पढ़ लें सारे और फिर सुनें उनमें से कुछ उनकी शानदार आवाज में:

 

जिनके छोटे मकान होते हैं
लोग वे भी महान होते हैं

वो ही बचते हैं फूल शाखों में
जिनके काटों में प्राण होते हैं....

जितने हम साथ-साथ चलते हैं
उतने रिश्ते जवान होते हैं

कितनी मोटी करोगे दीवारें
यारो, सबके ही कान होते हैं

कुछ तो पाने का अच्छा मौक़ा है
सुनते हैं, रोज़ दान होते हैं

बुढ़ी माँ को उठाये काँधे पर
कितने बेटे महान होते हैं

छूट जाते हैं ज़ख्म भर के भी
ऐसे भी कुछ निशान होते हैं

क्या बतायें कि दुनिया कैसी है
सबके अपने जहान होते हैं

लब तो चुप हैं "समीर" के लेकिन
आँख के भी बयान होते हैं.

-समीर लाल ’समीर’

यहाँ सुनिये:

 

Indli - Hindi News, Blogs, Links

बुधवार, जुलाई 21, 2010

हर शाख पर उल्लू बैठा है

शाम को टहलने निकलता हूँ लगभग ४५ से ५० मिनट के लिए. शुद्ध हवा मिल जाती है. मन बहल जाता है और स्वास्थय पर भी अगर अच्छा नहीं, तो कम से कम बुरा प्रभाव तो नहीं ही होता है.

वैसे भी यहाँ पूरे शहर भर सड़क के किनारे किनारे वाक वे बने रहते हैं और हम जैसे जो शहर से थोड़ा दूर रहने वाले, रहवासी इलाकों में तो हरियाली, पार्क आदि से इन वाक वे पर चलना बहुत सुखद अनुभूति होता है.

कुछ चित्र संध्या भ्रमण के दौरान लिए गये.

रास्ते में रोज एक खरगोश मिल जाता है. मैने उसका नामकरण भी कर दिया है ’चीकू’.

शायद बचपन में पढ़ी चंपक का असर रहा हो इस नामकरण में. मुझे तो लगता है कि चीकू जान गया है कि कब मैं उसके एरिया से निकलूंगा. कोने में बैठा इन्तजार करते ही मिलता है. बस, देखेगा और फुदक फुदक कर अपनी खुशी जाहिर करेगा.

कई दिन से सोचता था कि अपने इस दोस्त की तस्वीरें ली जाये तो एक दिन कैमरा लेते गया साथ में. बड़ी खुशी खुशी तस्वीरें खिंचवाईं चीकू ने. डरता तो बिल्कुल ही नहीं है. जान गया है कि ये मारेंगे नहीं, बस, और क्या चाहिये.

आज देखा कि उसने दो प्यारे प्यारे बच्चे दिये हैं. दोनों चलने लग गये हैं मगर अभी जरा डरपोक हैं. पास जाओ तो छिप जाते हैं. शायद दो चार दिन में जानने लगेंगे.

क्या नाम रखूँ उनका??

आज एक अजीब बात देखी. आज तो क्या, देख बहुत समय से रहा था, जाना आज. यहाँ बहुत सारे घरों के सामने उल्लू की मूर्ति या पेन्टिंग लगी होती है दरवाजे पर.

बड़ी उत्सुकता थी जानने की कि आखिर उल्लू क्यूँ बैठालते हैं घर के सामने. घर का सामना तो शो रुम सा ही हुआ, उसी को देखकर तो अंदाज लगेगा कि दुकान में घुसा जाये या नहीं. मगर ज्ञात हुआ कि नहीं, घर के सामने से जो हिस्सा घर को रिप्रेजेन्ट करता है अगर वहाँ से उल्लू दिखे तो वह बहुत शुभ माना जाता है. समॄद्धि आती है. नाम होता है.

 

मेरे देश की संसद में बैठे राजनेता भी मेरे देश को रिप्रेजेन्ट करते हैं और जहाँ तक उल्लू बैठालने का सवाल है, उसमें हमने कोई भूल नहीं की. पूरे ५५० बैठाये हुए हैं. फिर आखिर समृद्धि क्यूँ नहीं आ रही है.

जरुर यह इन लोगों का अंध विश्वास होगा. उल्लू है ये भी.  मेरे समझाने से थोड़ी न समझेंगे. जिस दिन धोखा खायेंगे, खुद समझ जायेंगे मगर तब कुछ कर पाने की स्थितियाँ नहीं बचेंगी.

हम ही क्या कर पा रहे हैं.

शायद इनके यहाँ इस श्लोक के पाठ का ज्ञान नहीं है:

बरबाद-ए-गुलिस्तां करने को बस एक ही उल्लू काफी था,
हर शाख पर उल्लू बैठा है, अंजाम-ए-गुलिस्तां क्या होगा.

Indli - Hindi News, Blogs, Links

रविवार, जुलाई 18, 2010

कठपुतलियाँ: एक लघु कथा एवं एक कविता

वो सोचा करता था कि एक दिन जब जिन्दगी तो रोज रोज की भाग दौड़ से फुरसत पा लेगा, तब दिल्ली का अपना मकान बेच कर कहीं पहाड़ों में जा बसेगा. जहाँ घर के आसपास होंगे चीड़ देवदार के वृक्ष, चिड़ियों का चहचहाता संगीत, बरामदे में गरम चाय की प्याली लिए नीचे बहती नदी को निहारता वो. तब वह अपना उपन्यास लिखेगा. प्लॉट दिमाग में है बस लिखने का समय नहीं है.

कल ७७ वर्ष की अवस्था में अपोलो अस्पताल में उसने आखिरी सांस ली.

उपन्यास कभी शुरु नहीं हो पाया और प्लॉट बस प्लॉट ही रह गया. कौन जाने क्या प्लॉट था.

काश! वो जान पाता कि समय मिलता नहीं, निकालना पड़ता है.

काश! इन्तजार की बजाय उसने संतुलन के महत्व को समझा होता.

 

puppet_big

कठपुतलियाँ

चंद धागों में बँधी

इशारों पर

नाचती है,

झुकती हैं,

सलाम करती हैं.

और

जब कोई दर्शक नहीं होता

तो निढाल हो

पड़ी रहती है एक कोने में...

कर्तव्यों,

दायित्वों

और

सामाजिक नियमों

के

धागे में बँधा

नाचता, झुकता और सलाम करता..

अँधेरी घुप्प इस काली रात में

अपनी कमरे की कुर्सी पर

अकेला निढाल पड़ा

सोचता हूँ मैं..

-समीर लाल ’समीर’

यू ट्यूब पर सुनें:

 

मेरे यू ए ई के मित्रों के लिए:

 

या यहाँ पर क्लिक करके सुनें.

Indli - Hindi News, Blogs, Links

बुधवार, जुलाई 14, 2010

अंतिम फैसला: एक लघु कथा

सामने टीवी पर लॉफ्टर चैलेंज आ रहा है. वो सोफे पर बैठा है और नजरें एकटक टी वी को घूर रही हैं, लेकिन वो टीवी का प्रोग्राम देख नहीं रहा है.

उसके कान से दो हाथ दूर रेडियो पर गाना बज रहा है

’जिन्दगी कितनी खूबसूरत हैssssss!'

साथ में पत्नी गुनगुनाते हुए खाना बना रही है. उसके कान में न रेडियो का स्वर और न ही पत्नी की गुनगुनाहट, दोनों ही नहीं जा रही हैं.

एकाएक वो सोफे से उठता है और अपने कमरे में चला जाता है.

रेडियो पर अब समाचार आ रहे हैं: ’न्यूयॉर्क स्टॉक एक्सचेन्ज ७०० पाईंट गिरा’

Suicide

कमरे से गोली चलने की आवाज आती है.

पत्नी कमरे की तरफ भागती है. उसका शरीर खून से लथपथ जमीन पर पड़ा है, उसने खुद को गोली मार ली.

रेडियो पर समाचार जारी हैं कि ७०० पाईंट की गिरावट मानवीय भूलवश हुई है अतः उस बीच हुई सभी ट्रेड रद्द की जाती है.

वो मर चुका है.

-समीर लाल ’समीर’

नोट:  कुछ दिनों पूर्व महावीर जी के ब्लॉग मंथन  पर प्रकाशित

Indli - Hindi News, Blogs, Links

रविवार, जुलाई 11, 2010

मेरा सजन चॉकलेटी...

तब तो नया नया आया था कनाडा. हालांकि नये पुराने से इस वाकिये पर कोई फरक नहीं पड़ता और न ही इस वजह से कि मैं समीर लाल हूँ. पूरा फरक सिर्फ इस बात का है कि मैं भारतीय पुरुष हूँ.

बहुत पहले भी एक बार मैं जिक्र कर चुका हूँ कि रंगों की पहचान के मामले में भारतीय पुरुष से ज्यादा निर्धन, दयनीय और निरीह प्राणी कोई नहीं होता. हम भारतीय पुरुषों को बस गिने चुने रंग मालूम होते है जैसे नीला, पीला, लाल ,गुलाबी, भूरा, हरा, सफेद और काला आदि. ज्यादा स्मार्ट रहे तो नीला और बैंगनी में फर्क कर लेंगे या काला और सिलेटी में. इसके आगे का काम लगभग से चल जाता है जैसे हल्का, गाढ़ा या करीब करीब हरा कह कर.

हुआ ऐसा कि एक मित्र का फोन आया कि उनके मित्र के पास एक शो के दो पास रखे हैं और वो कल शो देखने नहीं जा पायेंगे. मेरा मित्र जो फोन कर रहा था वो भी बिजी था, अतः मुझसे पूछा कि अगर जाना हो तो आप और भाभी चले जाओ. एक तो हम नये नये और फ्री का पास मिल रहा हो तो क्यूँ मना करते. हाँ कर दी. उसने अपने दोस्त का फोन नम्बर दे दिया और कहा कि जब ऑडिटोरियम जाने लगो तो उसे फोन कर देना. वो टिकिट भिजवा देगा वहीं.

इण्डिया से नये नये आये थे तो कमीज जो सबसे रंगीन सिलवा लाये थे, वही पहन कर निकले. ऑडिटोरियम के पास स्टेशन पर पहुँच कर फोन लगाया तो मित्र के मित्र, जो कि कनेडियन थे, ने कहा कि उनका लड़का ऑडिटोरियम की तरफ ही से निकल रहा है, आप उसको पार्किंग के सामने मिल जाना और टिकिट ले लेना. वैसे आप किस कलर की शर्ट पहने हैं, वो बता दिजिये तो मैं उसे मोबाईल पर इन्फार्म कर देता हूँ वो आपको देख लेगा और हाथ हिला देगा.


अब हमारी रंगीन कमीज फिरोजी. अंग्रेजी मे क्या बोलें?  बचाव का एक ही रास्ता था कि हमने कह दिया कि आप चिन्ता न करें, हम कार पहचान कर खुद ही पहुँच जायेंगे.आप हमें कार के बारे में बता दिजिये. पार्किंग में वो कार ले जाता तो उसे जबरदस्ती पार्किंग चार्जेज लग जाते अतः पार्किंग के बाहर सड़क पर मिलना ही तय पाया. पास भर तो लेना है, रुकने का क्या काम. उन्होंने बताया कि  वो टील कलर की सेडान कार से आयेगा. आप पहचान लेना और हाथ हिला देना.

फोन रख दिया और लगे सोचने कि ये भला कौन सा रंग होता है? आने जाने वाली कारों का ताँता लगा था और उनमें कम से कम पाँच तो ऐसे ऐसे रंग रहे होंगे आती जाती कारों के, जिन्हें हमारी सीमित पहचान क्षमता कोई भी नाम देने से इन्कार कर रही थी. एक होता तो बाकी पहचान कर उसे मान लेते टील. मगर यहाँ तो अनजान रंगों की भीड़ चली जा रही थी. ऐसे में हाथ हिलाने लगे तो सब पागल ही समझेंगे हर कार को हाथ हिलाता देख कर.

दस मिनट खड़े सोचते रहे. अपनी कमीज के रंग का अंग्रेजी भी याद नहीं आ रहा था आखिरकार हार कर बेवकूफ नजर आने से बेहतर विकल्प का सहारा लिया.

उन मित्र के मित्र को फिर से फोन लगाया और कहा कि एकाएक पत्नी की तबीयत खराब लगने लगी है. अतः तुरंत घर वापस जाना होगा. आप अपने बेटे से कह दिजिये कि वो परेशान न हो और किसी को भी पास दे दे या वेस्ट जाने दे.

उन्होंने ने भी सॉरी फील किया इस एकाएक तबीयत खराब हो जाने पर और हमारी तारीफ भी की कि हाँ, ऐसे शो तो होते रहेंगे. आप घर लौट जाईये. तबीयत ज्यादा जरुरी है.

पत्नी को बता दिया कि उनका लड़का कहीं जरुरी फंस गया है तो आ नहीं पा रहा है. लौटना पड़ेगा. घर आकर नेट पर अधिक से अधिक रंगों के नाम अंग्रेजी में सीखे. फिरोजी मतलब टर्काईस जान गये. टील रंग भी नेट पर देखा. खड़ी तो थी बिल्कुल उसी रंग की सेडान पार्किंग के सामने. मगर अब क्या, वो तो पास फेंक कर ४ घंटे पहले जा चुका होगा और शो भी खत्म हो चुका होगा.

अब तो मैं मर्जेन्टा, टैन, बर्गेन्डी जैसे कठिन रंग भी पहचान जाता हूँ मगर पत्नी की मूँह से सुना धानी रंग अभी पहचानना बाकी है. नेट पर मिल नहीं रहा और उससे पूँछू तो फिर वो ही-कौन बेवकूफ नजर आना चाहेगा.

कोई बता तो दो जी, कैसा होता है धानी रंग?

वैसे खुद के रंग के बारे में तो एक प्रमोशन तब मिला था, जब कनाड़ा आये थे. भारत में हमारा रंग काला कहलाता था और यदि किसी का जबरदस्त काम हमसे अटका हो तो मैक्सिमम सांवला कह लेता था मगर यहाँ तो सारे साऊथ एशियन ब्राउन कहलाते हैं. काले तो अफ्रीकन होते हैं. तो प्रमोट होकर हम काले से ब्राऊन हो लिए खुशी खुशी.

अभी एक रोज किसी बात पर किसी ने जिक्र के दौरान किसी चीज का रंग बताते हुए एक प्रमोशन और दे दिया..कि अमुक वस्तु लगभग चॉकलेट कलर की है लगभग तुम्हारे कलर के जैसी ही. आह!! वाह!! चॉकलेट कलर!! अब मैं तो इसे भी प्रमोशन ही मान कर चल रहा हूँ.

साधना को भी बता दिया है कि आज से हमारा रंग अंग्रेजी में चॉकलेटी..अब उसकी तरफ से एक गज़ल लिखूँगा..मिसरा है:

मेरा सजन चॉकलेटी, मैं वारी वारी जाऊँ.. :)

 

वैसे, कभी सोचता हूँ कि अगर रंग होते ही न तो क्या होता? दुनिया भले बेरंग होती मगर रंग भेदियों की जमात से तो कितनों को मुक्ति मिल गई होती. लेकिन इन्सान तो इन्सान है, तब झगड़ने का कोई और मुद्दा निकाल लेता.

नोट:
कृपया कोई भारतीय पुरुष सिर्फ इसलिए इस बात से आहत न महसूस करे कि उसे सब रंग मालूम हैं, अपवाद हर तरफ होते हैं और अगर आपको सारे रंग मालूम हैं तो आप अपवाद की श्रेणी के कहलाये.

Indli - Hindi News, Blogs, Links

गुरुवार, जुलाई 08, 2010

चिन्नी- मंत्री पद की दावेदारी

एक बार आपको बताया था कि कैसे चिन्नी गिलहरी मुझसे घूल मिल गई है. बुलाता हूँ तो चली आती है. खिड़की के बाजू में बैठकर मूँगफली और अखरोट मांगती है. जब दे दो तो एक खायेगी बाकी सारे बैक यार्ड में छिपायेगी बर्फीले दिनों के लिए. हमारे आपकी तरह उसे भी अपने कल की चिन्ता है.

इधर मौसम अच्छा हुआ है. जगह जगह लोग उसे नटस दे रहे हैं तो आजकल जरा कम भाव दे रही है. रहती आस पास ही है. दिन में चार छः बार आ भी जाती है मगर कई बार बुलाओ तो मूँह बना कर निकल जाती है. पेट न दिया होता भगवान ने तो शायद कोई किसी को न पूछता.

 

अक्सर तो खाना खुद ही छिपा कर भूल जाती है फिर जगह जगह गढ्ढे करके ढूंढती है. बगीचा खराब हो सो अलग. नये नये पौधे लगाओ तो जमीन जरा पोली रहती है और वो समझती है कि नीचे उसका छिपाया खाना होगा इसलिए पोली जमीन है और लो, एक मँहगा पौधा उनकी कृपा से नमस्ते. है भोली, तो ज्यादा डांटा भी नहीं जाता.

आज उसकी हरकत देख कर लगा कि बेचारी, कहाँ कनाडा में फंस गई और मुझसे डांट खा रही है. भारत में होती तो जरुर मंत्री बनती और सब उसे नमस्ते करते सो अलग.

दरअसल चेरी में फल पक गये और वो महारानी जी समझ रही हैं कि जैसे हमने चेरी उनके लिए ही लगाई है और जो नेट बाँधी है वो चिड़ियों के लिए बाँध दी है ताकि कोई चिन्नी का खाना न खा जाये. सुबह से बीस चेरी चट कर चुकी है. नेट पर से कूद कर आती है, एक चेरी तोड़ती है और भाग जाती है. साधना डांट डांट कर हैरान हो गई और उसे खेल लग रहा है.

 

जिस घर में पली, जिसके यहाँ साल भर प्रेम से खाना खाया, वहीं लूट मचा रखी है. पूरी चेरी खाने को तत्पर. जिस थाली में खाना सीखे, उसी में छेद. हार कर सब चेरी तोड़ लेना पड़ी. फिर भी उनके लिए कुछ गुच्छे छोड़ दिये हैं कि कहीं गुस्से में महारानी जी दूसरे पेड़ों को नुकसान न पहुँचाने लग जायें. टमाटर भी आने को ही हैं. एक बार आज उसने फिर न्यूसेन्स वेल्यू की वेल्यू साबित कर ही दी और यह भी स्थापित कर दिया कि जगह जगह का फेर कितना प्रभाव डालता है.

अपने ही घर में लूट मचाने की कनाडा में लतियाई जाने वाली हरकत भारत में मंत्री बन जाने की काबिलियत कहलाती.

 

सोचता हूँ शाम को आयेगी तो उससे कहूँगा कि चल चिन्नी ,अपने वतन चलें. तेरे कारण हमारी भी पूछ हो लेगी.

 

 

चलते चलते:

sljbp2

Indli - Hindi News, Blogs, Links

सोमवार, जुलाई 05, 2010

आज एक खास दिन!

आज मेरी माँ का जन्म दिन है. ५ साल पहले २८ जनवरी, २००५ को वो मुझसे दूर चली गई लेकिन एक वो दिन था और एक आज का, तब से रोज रात में वो मेरे सपने में मेरे पास आती है और मुझे लगता ही नहीं कि वो मुझसे दूर चली गई है.

एक खास बात, मेरी नानी का जन्म दिन भी ६ जुलाई, मेरी माँ का भी और मेरी भतीजी का भी याने मेरी भतीजी के लिए उसकी परदादी, दादी और उसका जन्म दिन एक ही दिन!!

आज इस मौके पर माँ की बहुत याद आ रही है.

 

जब भी मैं

पीछे मुड़कर सोचता हूँ..

अपना बचपन

अपना मकान

वो गलियाँ

वो मोहल्ला

अपना शहर

अपना देश..

या

फिर

खुद अपने आप को..

हर बार मुझे

माँ

याद आती है!!

-समीर लाल ’समीर’

 

जन्म दिन मुबारक, मम्मी!! आज जब रात में सपने में आओगी तब केक काटेंगे, पक्का!! आओगी न!!

Indli - Hindi News, Blogs, Links

रविवार, जुलाई 04, 2010

संसाधन सीमित हैं, कृपया ध्यान रखें

कुछ दिनों से ब्लॉगवाणी का नियमित अद्यतनीकरण किंचित कारणों से स्थगित चल रहा है. ऐसे वक्त में अधिकाधिक चिट्ठाकार चिट्ठाजगत एवं कुछ चिट्ठाकार अन्य साधनों का प्रयोग कर नई प्रविष्टियों की जानकारी ले रहे हैं.

जब संसाधन सीमित हो जाते हैं तब हमारा ध्यान कुछ ऐसी बातों पर भी जाने लगता है जो कि अन्यथा नजर अंदाज की जाती रही हैं हालांकि खटकती तो हमेशा ही रहती थीं.

मैं आज ध्यान दिलाना चाहता हूँ उन प्रविष्टियों की ओर जिसमें एक ही प्रविष्टी को चिट्ठाकार साथी अलग अलग कुछ एकल और कुछ सामूहिक चिट्ठों से एक के बाद एक पोस्ट कर देते हैं. यहाँ तक देखने में आया कि एक ही प्रविष्टी पाँच से छः बार तक पोस्ट की गई. इससे चिट्ठाजगत के प्रथम पॄष्ठ पर जब वो प्रविष्टियाँ आती है तो उसके पहले की आई सारी प्रविष्टियाँ या तो अगले पन्ने पर चली जाती हैं या नीचे धकेल दी जाती हैं.

मैंने इस तरह से एक ही प्रविष्टी को एकाधिक बार पोस्ट करने के कारण को जानने की जिज्ञासा लिए कई चिट्ठों पर टिप्पणी के माध्यम से यह प्रश्न उठाया. कुछ मित्रों के जबाब आये और उन्होंने मेरी बात को पूर्ण खिलाड़ी भावना से लिया और समझा. मैं उनका आभारी हूँ और आज मात्र इतना निवेदन करना चाहता हूँ कि साधन सीमित हैं. कृपया सभी को यथोचित स्थान और संसाधनों का लाभ उठाने का उचित मौका दें.

अक्सर हो जाता है कि एक पाठक वर्ग व्यस्तता की वजह से एक चिट्ठे की प्रविष्टी पर ध्यान नहीं दे पाता ऐसे में कुछ दिवस के अंतराल के बाद वही पोस्ट दूसरे चिट्ठे से छाप कर उसका ध्यान आकर्षित कराया जा सकता है और ऐसा अलग अलग चिट्ठों से एक अंतराल विशेष के बाद दोहराया भी जा सकता है. किन्तु एक साथ सभी जगह से एक के बाद एक पोस्ट कर देने से तो कुछ भी हासिल न होगा क्यूँकि यदि पाठक किसी समय में व्यस्त है तो वो उस वक्त सभी जगह से अनभिज्ञ एवं अनुपस्थित रहेगा.

मैं स्वयं भी अपनी दीगर चिट्ठों और पत्रिकाओं में छपी प्रविष्टियाँ अपने चिट्ठे पर एक ही स्थान पर सहेजने और अपने पाठकों को पढ़वाने के उद्देश्य से लाता हूँ किन्तु एक अंतराल रखने का प्रयास हमेशा ही होता है.

आशा है आप मेरी बात को अन्यथा न लेते हुए सभी चिट्ठाकारों को उनका उचित स्थान देने में एवं सीमित संसाधनों का सर्वोत्कृष्ट उपयोगिता स्थापित करने में मदद करेंगे.

आज बस इतना ही और साथ में अपनी एक गज़ल का मतला और एक शेर आपकी नजर:

 

slaasman

 

पूरी गज़ल अगर सुनना चाहेंगे तो जरुर सुनाई जायेगी..अन्यथा सुनाई तो जायेगी ही. :)  बस, अंतिम चरणों में है.

Indli - Hindi News, Blogs, Links