बुधवार, जून 30, 2010

सर, आपके घर चोर आये हैं!!!

एक बार कहीं का सुना किस्सा याद आ रहा है:

अमरीकी, जपानी और हिन्दुस्तानी पुलिस के मुखिया मिटिंग में थे. अमरीकी बोला कि हम तो चोरी के बीस मिनट के अन्दर चोर की पहचान कर लेते हैं. जपानी बोला कि हमारे यहाँ तो दस मिनट में पता कर लेते हैं कि किसने चोरी की. भारतीय पुलिस के मुखिया हँसने लगे. दोनों ने पूछा कि हँस क्यूँ रहे हैं. उसने कहा कि हमें तो चोरी के पहले से ही मालूम होता है कि कौन चोरी करेगा.

मगर उस पहले से मालूम वाले को पकड़वाने के लिए आपकी कितनी पहुँच होना चाहिये, ये सोचने का विषय है वरना भारत में कोई चोर भला बाद में कब पकड़ाया है सिवाय रसूकदारों के घर चोरी करने के इल्जाम में.

वैसे तो कनाडा में आम तौर पर घरों में चोरी के किस्से सुनाई नहीं देते. फिर किसी का घर में घुसना, तो दरवाजा ही पूरा काँच का है, जिसका जी चाहे, फोड़े और घूस आये. मगर ऐसा होता नहीं है. इसीलिए तो काँच का है. कितनी बार रात भर दरवाजा खुला रह जाता है, गैरेज खुला पड़ा रहता है, कभी कुछ मिसिंग तो दिखा नहीं मगर फिर भी, इन्तजामात करने में कोई चूक नहीं.

कुछ दिन पहले एक पोस्ट में फोटो छापी थी जिसमें एलार्म फोर्स का बोर्ड भी आ गया था. भारत से मित्र ने जिज्ञासा प्रकट की कि यह एलार्म फोर्स क्या है? सोचा कि इसी विषय पर लिख दूँ, उनकी जिज्ञासा भी दूर हो जाये और मित्रों को पता भी चल जाये.

एलार्म फोर्स हाऊस सिक्यूरीटी कम्पनी है जो हमारे घर की सिक्यूरिटी देखती हैं. उनके एलार्म हमारे दरवाजे और खिड़कियों पर लगे हैं. अगर एलार्म ऑन है और उसे बिना कोड डाले ऑफ किए बिना कोई खिड़की या दरवाजा खोलता है तो घर सिक्यूरिटी कम्पनी से कनेक्ट हो जाता है और एनाउन्समेन्ट होता है कि आप कौन हैं और सिक्यूरिटी कोड बताओ. अगर वो नहीं बता पाया तो सायरन बजने लगता है जिससे पड़ोसी सजग हो जाते हैं और पुलिस स्टेशन को सूचना हो जाती है.

तीन से चार मिनट में पुलिस आ जाती है. इस बीच एनाउन्समेन्ट होता रहता है घर भर में कि पुलिस चल चुकी है, आ रही है. यह सब फोन लाईन से जुड़ा है किन्तु यदि फोन लाईन कोई बाहर से काट दे तो भी वायरलेस से एनाउन्समेन्ट शुरु हो जाता है और पूरी प्रक्रिया की जाती है.

यह भी संभव नहीं कि कोई बंदूक की नोक पर हमसे कोड बुलवा दे और पुलिस न आये. अगर हमने गलत कोड बोल दिया तो फिर वो अनाउन्समेन्ट चुप हो जाता हैं मगर पुलिस आ जाती है. फिर आप लाख कहिये कि कुछ नहीं हुआ, वो आपके घर वालों को बाहर निकाल कर पूरा घर चैक करते हैं कि किसी को गन पाईन्ट पर रखकर तो ऐसा नहीं कहलवा रहे हैं.

अगर हम घर में हैं तो होम अलार्म लगाते हैं याने बिना एलार्म ऑफ किए कोई घर में नहीं घुस सकता या निकल सकता. अगर हम घर में नहीं हैं तो अवे का अलार्म लगाते हैं, तब न कोई घुस सकता है न घर में कोई चीज हिल सकती है याने मोशन डिटेक्टर भी लगा रहता है अर्थात अगर कोई पहले से घुस कर बैठा हो तो बाद में चोरी करके भागे, वो संभव नहीं. घर एयर पैक्ड रहते हैं अतः हवा से कुछ हिलने का सवाल नहीं.

अवे के अलार्म में हम जहाँ भी हों, अलार्म कम्पनी हमें मोबाईल पर घटना की सूचना भी तुरंत देती है एवं नामित पड़ोसी/ मित्र को फोन पर भी सूचना दी जाती है कि वो भी आ कर चैक कर लें पुलिस के साथ.

इसी के साथ एक पैनिक बटन भी या तो बाथरुम या बिस्तर के पास लगा देते हैं ताकि ऐसे किसी अंदेशे पर आप बाथरुम में छिप गये हो या बिस्तर पर हो तो उसे दबा दें, तब भी बिना एनाउन्समेन्ट के पुलिस भिजवा दी जाती है.

इस व्यवस्था के लिए महिना दर महिना एक निश्चित फीस ली जाती है एवं साल में दो बार बिना कोड डाले दरवाजा खोल देने की भूल को माफ करते हुए बाकी बार फाल्स एलार्म के लिए एक पेनाल्टी की रकम ली जाती है.

वैसे तो यहाँ चोरी होती नहीं (इंसान तो हैं ही, कम या न के बराबर होती है) मगर इस एलार्म से बहुत सुकून रहता है. खास कर जब हम ६-६ महिने भारत में पड़े रहते हैं. उसी के साथ स्मोक अलार्म भी है. घर के भीतर धुँआ या आग से फायर ब्रिगेड आ जाती है. अब हम ठहरे हिन्दुस्तानी, कभी अगरबत्ती जलाने या हवन करने लग जायें, तो उस समय का जुगाड़ बना लिया है और स्मोक सेन्सर पर टावेल लगा देते हैं ताकि एलार्म न बजे.

मित्र को यह बात जब ईमेल से बताई और आशा व्यक्त की कि ऐसा भारत में भी होने लग जाए तो कितना बढ़िया. उनकी जिज्ञासा और बढ़ गई और भारत के परिपेक्ष में इतने प्रश्न सामने आये कि क्या कहना:

  • जब चोर घूसे और बिजली गुल हुई हो तो क्या? एलार्म कैसे बजेगा और कम्पनी को कैसे पता लगेगा?
  • फोन लाईन अगर खराब चल रही हो कई दिन से, तब?
  • खिड़की तो खुली ही रहती है, हवा को कैसे रोकेंगे किसी वस्तु को हिलाने से?
  • स्मोक सेन्सर पर धूल जमने के बाद भी काम करेगा क्या?
  • क्या मोशन डिटेक्टर ऐसा नहीं बन सकता जो सिर्फ इन्सानों के मोशन पहचाने बाकि को जाने दे?
  • अगर एक ही लाईन में चार पांच घरों के एलार्म एक साथ बज उठे, तो पड़ोसी को किसके घर पहले जाना चाहिये?
  • अगर घर मालिक बाहर गया है तो क्या एलार्म कम्पनी मिस्ड काल दे सकती है? (सस्ता पड़ेगा)
  • पुलिस स्टेशन से आपके घर की दूरी साईकिल से तय करने में हवलदार को कितना समय लगेगा?
  • अगर छुट्टी के दिन चोर घुसा, तब?
  • अगर भारत बंद के दौरान चोर चला आये, जब?
  • अगर चोर की सेटिंग हो थाने में, और पुलिस आये ही न?
  • जब अलार्म बजे और सिक्यूरिटी कम्पनी वाला चाय पीने या पान खाने गया हुआ हो तो?
  • अगर फोन का बिल या बिजली का बिल भुगतान न होने के कारण लाईन काटी जाये, तब?

यक्ष प्रश्न:

  • क्या हिन्दी ब्लॉग में रचनाओं की चोरी रोकने के लिए इन कम्पनियों के पास कोई एलार्म सिस्टम है?

अगर...अगर..अगर...और जाने कितने प्रश्न...मगर इन्हें सुन कर मैने अपना स्टेटमेन्ट वापस ले लिया कि ऐसा भारत में भी होने लगए तो कितना बढ़िया.

लेकिन जैसे हम देशी वैसा ही हमारा मित्र भी, ठेठ भारत से भारत में रहने वाला. आखिर बात ऐसे ही खतम कैसे हो जाने दे.

अब आखिरी प्रश्न एक आँख दबा कर उछाला कि गुरु, इतनी सिक्यूरीटी लगाये हो मतलब मोटी रकम धरे होगे घर में. अब उनको क्या बतलायें कि भई, जब हमारे देश में जिनकी जान की कीमत कौड़ी की नहीं है, वो जेड सिक्यूरीटी लिए घूम रहे हैं तब हमारे पास मेहनत का कमाया गुजारे लायक तो है ही, फिर क्यूँ न लगायें सिक्यूरीटी.

लगता तो है कि शायद मेरे जबाब से आशवस्त हो गये होंगे क्यूँकि उनकी एक दबी आँख खुली दिखी बाद में.

बस, अब एक ही बात कहता हूँ कि मेरा भारत जैसा भी है, वैसा ही बढ़िया. कौन जरुरत है इन सब नौटंकियों की. सायरन तो कोई सड़क पर से निकलता हुआ ट्र्क भी बजा देगा मगर पड़ोसी, वो अब कहाँ निकलते हैं सायरन सुन कर. बल्कि वो तो यह सुनिश्चित करने में जुट जायेंगे कि उनका घर ठीक से बंद है कि नहीं...बाकी खिड़की से झांक कर मजा तो पूरा ले लेंगे आपको लुटता देखने का.

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रविवार, जून 27, 2010

द आर्ट ऑफ डाईंग

artofdying

जन्म लेना और मरना हमारे हाथ में नहीं. मृत्यु एक अटल सत्य है किन्तु इन्सान उम्र के किसी भी पड़ाव पर हो, उसके जीने की लालसा खतम नहीं होती.

इन्सान पैसा कमा कमा कर अघा सकता है. कमाने के लिए उल्टे सीधे हथकंडे अपनाना छोड़ सकता है. हलवाई मिठाई के बीच बैठा बैठा मीठा खाने से उब सकता है. अपराधी जुर्म कर कर थक के जुर्म की दुनिया से मूँह मोड़ सकता है लेकिन जिन्दा रह रह कर भी जीने की लालसा खतम करना, कभी नहीं. यह इन्सानी स्वभाव नहीं है.बीमारी और शारीरिक व्याधियों से परेशान इन्सान लाख बोल ले कि हे भगवान!! अब नहीं जिया जाता, अब तो तू मुझे उठा ही ले मगर जब मौत करीब आती है, तो एकदम घबरा उठता है. मानो जाने को तैयार ही न हो.

लालच की पराकाष्टा राजनिती तक से सारी जिन्दगी उसी दलदल में फंसे लोग एक उम्र पर निकल सकते हैं. प्रधानमंत्री रह चुके लोग भी घर बैठे राजनिती से दूर कविता रच रहे हैं मगर जीने की लालच, तौबा!! इसे छोड़ने की बात मत करो. यह नहीं हो पायेगा.

जिस उम्र में आर्ट ऑफ डाईंग सीखना चाहिये, याने मरने की कला, उस उम्र में लोग भीड़ लगाये खड़े हैं आर्ट ऑफ लिविंग सीखने के लिए जैसे कोई छात्र इन्जिनियरिंग का कोर्स खत्म करके के. जी. में एडमिशन लेने के लिए डोनेशन लिए पहुँचे. अरे, जितनी लिविंग करनी थी, सो तो कर ही चुके, अब अंत से समय में कैसा आर्ट और कैसी साईंस. कोई क्या सिखा देगा. वैसे कितना भी सिखा देखा, बुढ़ा तोता बोलेगा तो राम राम ही और माना कि सीख भी गये, तो जब तक निपुण होने का मौका आयेगा, ज्यादा उम्मीद यही है कि निकल चुके होगे या कहीं मुहाने पर होगे. कोई लड्डू तो है नहीं कि गप्प से खाया और अह्हा!! मीठा मीठा करने लगो. अभ्यास की बात है.

बाजार समझता है कि क्या बिकेगा. लोगों को क्या खरीदना है. किस बात पर वो ललचा कर रुक नहीं पायेंगे और बस!! वही एक बढ़िया व्यापारी शानदार पैकिंग बना कर बेचने निकल पड़ता है और खरीददारों की जमघट लग जाती है. व्यापारी गुरु कहलाता है और खरीददार चेले.

सारी जिन्दगी दो नम्बर की कमाई काटी, मातहतों को परेशान किया, नौकरों को फटकारा, झूट बोला, व्यापार में लोगों को चूना लगाया, टैक्स हजम कर गये और फिर जब चलने का समय आया तो मीठी वाणी के लाभ, ईमानदारी और पर पीड़ा समझने की पाठशाला में जाकर मूँह उठाये आँख मींचे बैठे हैं और वही पैसा न्यौछावर कर रहे हैं जो इन्हीं बातों से कमाया. गुरु जी भी धन का लोभ त्यागने का प्रवचन पिला पिला कर धन समेटने में व्यस्त हैं. धन्य हैं वो लोग. मैं उन्हें नमन करता हूँ.

उम्र दराज हो चुके बुजुर्गों के लिए जो ज्यादा जरुरी और करीबी है वो क्लास लगा कर देखो ’आर्ट ऑफ डाईंग’. उसमें सिखाओ कि कैसे तैयार हो अन्तिम यात्रा के लिए. कोई पूड़ी सब्जी कपड़े तो बाँध कर ले नहीं जाना है कि परेशानी हो. बस सिखाओ कि कैसे सब बातों से निवृत हो कर चैन से तैयार रहना है. कल के लिए कुछ पैन्डिग नहीं रखना है. जब सोने जाओ तो यह सोच कर कि अब उठ नहीं पायेंगे. सारे रुपये पैसे, वसीयत नामा वगैरह पूरा कर लो. प्रियजनों से मेल मुलाकात करते रहो. प्रेम से रहो. लड़ो झगड़ो मत. किसी का दिल न दुखाओ. इच्छाऐं जहाँ तक संभव हो, पूरी कर लो आदि आदि. इतना सा तो सिलेबस है इस कोर्स का.

बस, फिर क्या है. जब भी घड़ी आ जाये, मुस्कराते हुए चल दो. आखिर लोग घर छोड़ कर दूसरे देश में जा ही बसते हैं. क्या पता कब लौटें. सब कुछ निपटा कर ही निकलते हैं न!! फिर? अन्तिम यात्रा की तैयारी में शरमाना कैसा और घबराना कैसा? विदेश प्रवास तो फिर भी कैंसिल हो सकता है मगर यह तो तय है. बस, तारीख नहीं मालूम होती. लास्ट मिनट फ्लाईट जब सस्ती मिल जाती है तो खुशी खुशी निकलते हो कि नहीं कि पैसे बच गये तब फिर यहाँ-इसमें कैसा दुखी होना?

लेकिन तुम देखोगे कि इस ’आर्ट ऑफ डाईंग’ की क्लास के लिए एक भी इन्सान न मिलेगा. खाली हॉल में अकेले तुम होगे सिखाने के लिए इन्तजार करते भूख से डाईंग की ओर अग्रसर, डाईंग का साईंस अहसासते हुए. जो भी ऐसी क्लास लगायेगा वो एक दिन खुद ही आर्ट ऑफ लिविंग की क्लास में नजर आयेगा भीड़ के साथ लेट एडमिशन लेते.

जिस तरह जन्म लेकर जीना जरुरी है, उसी तरह जीने लेने के बाद मरना भी जरुरी है. फिर क्यूँ न इस कला में भी पारंगत हुआ जाये कि जब मौत आये तो मुस्कराते हुए खुशी खुशी गले लगायें कि आओ मित्र, अब मैं जी चुका और तुम्हारा स्वागत है. चलो, चलें.

वैसे तो सही है कि जब तक जिओ, स्वस्थ, खुश रहते हुए खुशियाँ बांटते हुए जिओ. इस कला में निपुण रहो. लेकिन होता विपरीत है. जब तक सक्षमता रहती है तब तक मनमानी कर अपने हिसाब से जी गये. रोज देर रात तक पार्टियाँ चली. सारी दुनिया की लतें जैसे इनके लिए ही बनी हैं तो सिगरेट से लेकर शराब और शबाब तक किसी से कोई परहेज नहीं. और जब अंत समय नजदीक आया, किसी काम के नहीं बचे, शरीर ने साथ देना बंद कर दिया तो आर्ट ऑफ लिविंग सीखने निकल पड़े. बेहतर होता इस समय आर्ट ऑफ डाईंग सीख लेते, वो भी अटल सत्य है.

ये तो वैसा ही हुआ कि जब तक मौका लगा, खूब दबा कर दो नम्बर की कमाई की और जब लाईन अटैच हो गये तो लगे ईमानदारी पर भाषण देने. ऐसा होते हमेशा ही दिखता है. इसीलिए शायद किसी ज्ञानी ने कहा होगा कि असली ईमानदार वो नहीं, जो ईमानदारी से जीवन यापन करता है. असली ईमानदार वो है जो भ्रष्टाचार का मौका होने पर भी ईमानदारी से जीवन यापन करते हैं.

पूरा सार बस इतना कि जब इन सब बातों को जीवन की नींव में डाला जाना था, तब ध्यान नहीं दिया और जब भवन धाराशाही होने का समय आया तो नींव निर्माण की प्रक्रिया सीखने निकल पड़े.

रेत की नींव पर,
मिट्टी का मकान
और उस पर
संगमरमरी कंगूरा
ये है आज का
ताजमहल!!

आज चमत्कार और झूट बिकता है, सच्चाई आज की दुनिया में मार खाती है. दर्पण देखने के अब हम आदी नहीं, तस्वीरें दिखाओ. वो हमें भाती हैं और वो ही हमें लुभाती हैं. दर्पण आऊट ऑफ फैशन हो चला है. हमें सपने दिखाओ, हम खरीदेंगे. सच्चाई के लिए क्या मोल देना, वो तो होना ही है, अपने आप दिख जायेगी.

यह मत सोचना कि हर घर में तो दर्पण हैं, सब देखते हैं. भूल में हो, पूछ कर देखना एक लड़की जब दर्पण के सामने खड़ी होती है तो दर्पण में उसे एश्वर्या दिखती है और एक लड़का, उसमें सलमान देखता है. खुद को जो देख लें, तो घर से निकलने का आत्म विश्वास ही खो दे?

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बुधवार, जून 23, 2010

सजना है मुझे, सजना के लिए!!

कभी सीखा था कि ज्ञान बाँटने से बढ़ता है. कोशिश यही होती है कि जो कुछ भी जानें या सीखें, उसे मित्रों के साथ बाँटें. अक्सर लोगों को अपने आलेखों/कविताओं में नये नये तरीके इस्तेमाल करते देखता हूँ. इच्छा होती है कि काश!! मुझे भी आता होता तो मैं भी ऐसा ही करता.

उदाहरण के लिए, कहीं फोटो के लिए स्लाईड शो लगा देखा. अब अपने आलेख में स्लाईड शो कैसे लगायें, यह मालूम ही नहीं. इच्छा दबाने का प्रयास किया, नहीं दबी. तो खुद ही पड़ताल शुरु की. थोड़ी सी मेहनत से सीख भी गये, ऐसा लगता है. आज पहली बार लगायेंगे, अगर सही चला मतलब सीख ही गये हैं. अब यदि सीख ही गये हैं तो सिखा भी दें:

पिकासा एल्बम से स्लाईड शो को अपने चिट्ठे पर कैसे अंतःस्थापित (एम्बैड) करें:

१. पिकासा में उस एलबम पर जायें, जिसे अंतःस्थापित (एम्बैड) करना है.
२.दायें तरफ पढ़ें: Post On के नीचे Link to this album..उस पर क्लिक करें.
३.उसमें से जो विकल्प दिखेंगे..उसमें से Embedd Slideshow पर क्लिक करें.
४. उसमें साईज़ और केप्शन दिखाने का विकल्प चुनें.
५.Embedd Code कॉपी कर लें.
६. ब्लॉग पर जहाँ स्लाईड शो लगाना हो, वहाँ उसे पेस्ट कर दें.

बस, आपका स्लाईड शो तैयार. एकदम सरल मगर आपकी पोस्ट में चार चाँद लगा देगा.

स्लाईड शो, केप्शन के साथ फोटो, पैराग्राफ, ब्लॉककोट आदि सब आपके आलेख को खूबसूरती प्रदान करते हैं. एक अच्छा आलेख, जो लोगों को आकर्षित करे पढ़ने के लिए, उसके लिए इन सब बातों का ध्यान रखना बहुत जरुरी है. हो सकता है आप बहुत अच्छा लिख रहे हों मगर न पैराग्राफ का ध्यान है, न लाईन ब्रेक का, तो पाठक आयेंगे कैसे? और बिना पाठक आये कोई जानेगा कैसे कि आपने अच्छा लिखा है.

इसीलिए तो हम कहीं जाते हैं तो बहुत सज धज कर, अच्छे कपड़े पहन कर जाते हैं. भले ही आपका व्यवहार बहुत अच्छा हो मगर जब तक आपसे कोई बात नहीं करे, आप किसी को आकर्षित न करे, कोई आपका व्यवहार कैसे जानेगा.

वैसे भी आजकल शो/सजावट का जमाना है. कल ही पड़ोसी किसी बात का थैक्यू गिफ्ट दे गये-एडीबल डेकोरेशन. बात भी ऐसी कि जिसका हम शायद भारतीय होने के कारण थैक्यू भी न बोलते. अरे, वो कहीं बाहर गये थे तो कह गये थे कि तीन दिन उनके अखबार उठाकर रख लेना. हम तो यही सोच लेते कि इसी बहाने उसको हमारा अखबार पढ़ने मिल गया. इसमें थैंक्यू कैसा??

एडीबल डेकोरेशन-मुश्किल से तीन चार डॉलर के फल कटे हुए, जिसमें अंगूर, खरबूजा, अननास, स्ट्राबेरी और एक पॉट २ डॉलर का मगर वो उसे खरीद कर लाये ६५ डॉलर का. बिकती है सजावट, पैकिंग. आकर्षित करती है. वही फल काट कर प्लेट में धर कर गिफ्ट दे दो तो कहो लेने वाला मना कर दे कि जाने कब के कटे हों. :) मगर इस सजावट के साथ हम धन्यवाद करते नहीं थक रहे और उस पर से तस्वीर उतारने और एक दिन सजा रहने देने के बाद खाये.

दाम उस कम्पनी की वेबसाईट पर जाकर टीप लिया जिसका नाम डिब्बे पर था-बिना दाम पता किये हमें कहाँ चैन कि कितने का गिफ्ट दिया? :) ये तो बस किताबी बात है कि दान की बछिया के दाँत नहीं गिने जाते. वैसे ही जैसे ईमानदारी का फल मीठा होता है. अगर ये सही होता तो हमारे नेता सारे अब तक कड़वा खा खा कर मर न गये होते.

सीखो अमेरीका से मार्केटिंग जो अपनी ९/११ की त्रासदी, जिसमें ३००० से ४००० लोगों की मौत हुई, को भी सजाधजा कर ऐसे मार्केट करता है कि सारा विश्व टूट पड़ता है मदद करने को और हम भोपाल त्रासदी मे मरे लाखों लोगों की मौत के मातम को मनाते आज २५ साल बाद भी न्याय और मदद की राह तक रहे हैं और इन्टरनेशनल मिडिया चुप बैठा है.

उदाहरण दिखाने के लिए उसी एडीबल डेकोरेशन का स्लाईड शो बना दिया है.

है न सजावट और शो बाजी का कमाल.

तो आगे से ध्यान रखिये-जब भी लिखिये, सजावट का ध्यान रखिये. चाहे तस्वीरें हो या पैराग्राफ या लाईन ब्रेक या आप खुद, सजावट महत्वपूर्ण है लोगों को आकर्षित करने के लिए.

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रविवार, जून 20, 2010

जरा सा बखान, कुछ तस्वीरें और एक लघु कथा

पारिवारिक व्यस्तताओं के बीच नेट पर आना न के बराबर चल रहा है और इस बीच देख रहा हूँ कि ब्लॉगवाणी भी किन्हीं तकनिकी समस्यायों के तहत नई पोस्ट नहीं दिखा रहा है.

आज हालांकि एक नई पोस्ट लगाने का मन था किन्तु चूँकि इस बीच किसी को पढ़ा नहीं तो मैं अपने आपको नया कुछ लिखने या पढ़वाने का अधिकारी नहीं पाता. पहले कुछ पढ़ लूँ मित्रों को, फिर लिखूँगा भी और पढ़वाऊँगा भी. मेरी यह आदत नहीं कि किसी को पढ़ूँ न या किसी को बताऊँ न कि तुमको पढ़ लिया है और बस, अपनी अपनी पढ़वाता चलूँ और आशा लगा कर बैठ जाऊँ कि वो मुझे बतायेंगे कि आपको पढ़ा. कम से कम मुझे असहज लगता है. अपनी अपनी आदत है.

होती है कईयों की आदत कि खुद तो किसी को नमस्ते नहीं करना मगर सामने वाला नमस्ते न करे तो उसे बदतमीज करार देना और बुरा मान जाना. सही है कि जब तक तुम पावर में हो शायद लोग तुम्हारे बिना नमस्ते किये भी नमस्ते करते चलें. मगर पावर का क्या है, आज है और कल नहीं रहेगा. ये व्यवहार ही है जो जीवन भर साथ निभाता है.

तब तक आपको अपनी एक लघुकथा जो कुछ दिनों पूर्व महावीर जी के ब्लॉग मंथन पर प्रकाशित हुई थी, वो पढ़वाता हूँ. साथ ही बगीचे में नये फूल आ गये हैं, चेरी और सेब भी बस पकने की तैयारी में हैं. मौसम गरमी का सुहाना हो गया है. बैकयार्ड में पार्टियों का दौर चालू है, कुछ तस्वीरें बैक यार्ड की:

 

 

लघु कथा:

 

कर्ज चुकता हुआ??

इकलौता बेटा है.

हाल ही बी ई पूरी कर ली. मास्टर माँ बाप की आँख का तारा, उनका सपना. एक शिक्षक को और क्या चाहिये, बेटा पढ़ लिख कर इन्जिनियर बन गया.

विदेश जाकर आगे पढ़ने की इच्छा है.

शिक्षक का काम ही शिक्षा का प्रसार है, वो भला कब शिक्षा की राह में रोड़ा बन सकता है वो भी तब, जब उसका इकलौता बेटा उनका नाम रोशन करने और उनके सपने पूरे करने के लिए माँ बाप से बिछोह का गम झेलते हुए अकेला अपनी मातृ भूमि से दूर अनजान देश में जा संघर्ष करने को तैयार हो.

बैंक से एक मात्र जमा पूँजी, अपना मकान गिरवी रख, लोन लेकर मास्साब ने बेटे को आशीषों के साथ विदेश रवाना किया.

दो बरस में बेटा कमाने लायक होकर, मुश्किल से साल भर में कर्ज अदा कर देगा फिर मास्साब की और उनकी पत्नी की जिन्दगी ठाट से कटेगी. फिर वो ट्यूशन नहीं पढ़ायेंगे. बस, मन पसंद की किताबें पढ़ेंगे और साहित्य सृजन करेंगे.

अब चौथा बरस है. बेटे ने एक गोरी से वहीं विदेश में शादी कर ली है. उससे एक बेटा भी है. भारत की बेकवर्डनेस बहु और पोते दोनों के आने के लिए उचित नहीं . इसके चलते बेटा भारत आ नहीं सकता और वहाँ विदेश में घर में माँ बाप के लिए जगह नहीं और न ही कोई देखने वाला.

नई फैमली है, खर्चे बहुत लगे हैं. फोन पर भी बात करना मंहगा लगता है अतः लोन वापस करने की अभी स्थितियाँ नहीं है और न ही निकट भविष्य में कोई संभावना है. बेटे और उसकी पत्नी को बार बार का तकादा पसंद नहीं अन्यथा भी अनेक टेंशन है, जो भारतीय माँ बाप समझते नहीं,  अतः इस बारे में बात न करने का तकादा वो माँ को फोन पर दे चुका है वरना उसे मजबूर होकर फोन पर बात करना बंद करना होगा. माँ ने पिता जी को समझा दिया है और पिता ने समझ भी लिया है.

आज रिटायर्ड मास्साब ने अपने ट्यूशन वाले बच्चों को नये घर का पता दिया. कल वो उस किराये के घर में शिफ्ट हो जायेंगे.

जाने कौन सा और किसका कर्ज चुकता हुआ. कम से कम बैंक का तो हो ही गया.

साहित्य सृजन की आशा इतिहास के पन्ने चमका रही है.

इतिहास भी तो साहित्य का ही हिस्सा है!!

उसकी चमक बरकरार रखने का श्रेय तो मिलना ही चाहिये!!

-समीर लाल ’समीर’

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बुधवार, जून 16, 2010

राम मिलन: इन्टरनेशनल ब्लॉगर मीट

राम त्यागी शिकागो से क्या आये और ऐसी इन्टरनेशनल ब्लॉगर मीट कर गये कि तबसे अब तक समय का ही आकाल पड़ गया है.

व्यस्तता की हद ऐसी कि अपना प्रिय टिप्पणी दर्ज करने का भी शौक पूरा नहीं कर पा रहा हूँ तो मिलन कथा क्या लिखूँ. वैसे मिलन का पूरा वृतांत तो राम लिख ही चुके हैं मय तस्वीर के तो फिर से क्या बखाने सिवाय इसके कि राम का आना एक यादगार शाम दे गया. उनको घेरा मूलतः इसलिए था कि मुलाकात के बहाने हिन्दी ब्लॉगर से मिलन में कविता सुनाने का मौका हाथ लग जाता है.

राम हालांकि जरा देर से पहुँचे किन्तु मौका तलाशते उन्हें हम अपने घर की बार में ले गये. सोच रहे थे कि एक दो पैग हो जायें तो शुरु करें. बंदा हल्के सुरुर में मना भी नहीं कर पायेगा और पूरा ठीक से समझ भी नहीं पायेगा तो वाह वाह के सिवाय क्या करेगा. कवि सम्मेलनों में भी जब कठिन कविता समझ नहीं आती तो भी लोग खुद को बुद्धिजीवियों की कटेगरी में लाने के प्रयास में वाह वाह करने लगते हैं.

मगर पासा थोड़ा उल्टा पड़ा. हम सुनाना शुरु करते उसके पहले ही, पहले पैग के बाद ही भाई जी शुरु हो गये. कहने लगे समीर भाई, आपके लिए एक कविता लिखी है और जब तक हम कुछ कहते, सुनाने भी लगे. हमारी तो अटकी ही थी कि अभी हमें भी सुनाना है, इसलिए वाह वाह करना ही था मगर वाकई की वाह वाह वाली कविता ही उन्होंने सुनाई.

बस, एक कविता के बाद मंच हमने खींच लिया अपनी तरफ और शुरु हुए चाँद वाली मार्मिक रचनाओं के साथ माहौल बनाने के जुगाड़ में. उद्देश्य यह भी था कि दो दिन बाद किसी कार्यक्रम में कुछ मुक्तक पढ़ना था तो उसकी टेस्टिंग भी हो जाये तो वो भी सुनाये. राम का चेहरा भाँपते रहे, मोहित हो कर सुन रहे थे और वाकई वाली वाह वाह कर रहे थे. इसलिए फिर खाना भी मन लगा कर खिलाया और फिर गाड़ी से स्टेशन भी छोड़ा. इस बीच मौका छान बीन कर राम ने पुनः एक रचना सुनाई.

शाम बड़ी मजेदार गुजरी. वादा रहा है कि आगे राम आते रहेंगे और परिवार के साथ भी पधारेंगे. हम तो खैर शिकागो जायेंगे ही.

कुछ तस्वीरें:

 

राम के उदगार और कविता (हम अकेले क्यूँ झेलें, आप भी झेलिए)

 

हमारे मुक्तक:विवाहोत्सव के लिए


एक वर की तरफ से


जब से तेरा साथ मिला है, मन कहता कि अंबर छू
दिल की हर धड़कन को कैसे, गीत बना देती है तू
सप्त पदी के वचन लिए थे, इक दिन हमने तुमने जो
उन को ताजा कर जाती है, सांसो की तेरी खूशबू.


एक वधु की तरफ से


बाबू से मैने सीखा था, कैसे दुख को पीना है
अम्मा से मैने सीखा था, कैसे रिश्ते सीना है
जबसे तेरा साथ मिला है, मैने ये भी सीख लिया
वक्त भला कैसा भी आये, हमको हँस कर जीना है.


एक हमारी तरफ से :)


मैं जब भी गीत रचता हूँ, ये आँखें भीग जाती हैं
तुझे जब याद करता हूँ, ये आँखें भीग जाती हैं
मैं हँसता हूँ तुझे ही भूलने की कोशिशों में, पर
ठहाकों में भी देखा है, ये आँखें भीग जाती हैं.

 

-समीर लाल ’समीर’

अब सुन भी लें उस दिन की रिकार्डिंग में हमारे मुक्तक:

 

बाकी उम्मीद कर रहा हूँ कि जल्द ही काम से फुरसत मिले, तो ब्लॉग पर नियमित हुआ जाये.

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रविवार, जून 13, 2010

पुरस्कार!!

oldman

बहुत सुन्दर कालोनी है. करीब ८० मकान. अधिकतर लोग, जिन्होंने यह मकान बनवाये थे रिटायर हो गये हैं. कुछ के बेटे बहु साथ ही रहते हैं तो कुछ अकेले.

कौशलेश बाबू की बहु बहुत मिलनसार, मृदुभाषी एवं सामाजिक कार्यों में बहुत रुचि लेती है. कालोनी में रह रहे बुजुर्गों की निरस हो गई जिन्दगी को लेकर उसने एक योजना बना कर महिला मंडल की बैठक में रखी. सभी ने योजना की भूरी भूरी प्रशंसा की तथा उसी बैठक में संपन्न हुए चुनाव में वो महिला मंडल की निर्विरोध अध्यक्षा चुनी गई.

योजना के तहत बुजुर्गों को व्यस्त रखने के लिए एवं उनकी जिन्दगी में रस घोलने के लिए सभी बुजुर्गों से निवेदन किया गया कि वह अपने जिन्दगी के अनुभवों को एकत्रित कर आलेखबद्ध करें जिससे नई पीढ़ी को जहाँ एक ओर सीख मिले, वहीं दूसरी ओर बुजुर्ग भी लिखने और दूसरों के अनुभव पढ़ने में व्यस्त हो जायेंगे.

योजना के तहत एक मासिक पत्रिका निकाली जायेगी. पत्रिका के संपादन एवं प्रारुप निर्धारण के लिए भी उन्हीं बुजुर्गों में से एक संपादक मंडल का गठन किया गया. एक कमेटी का भी गठन हुआ जो उन आलेखों में से हर माह सर्वश्रेष्ट आलेख के लेखक को सम्मानित एवं पुरुस्कृत करेगी और हर नये अंक के साथ एक मासिक गोष्टी का आयोजन भी किया जायेगा.

प्रथम अंक के विमोचन हेतु नगर के सांसद को आमंत्रित कर एक भव्य समोरह का आयोजन किया गया.

ऐसी अभिनव योजना की परिकल्पना के लिए कौशलेश बाबू की बहु की हर तरफ प्रशंसा हुई, उनके बुजुर्गों के प्रति संवेदनशील हृदय एवं भावनाओं को साधुवाद दिया गया एवं सांसद महोदय नें भी उनके इस योगदान को अतुलनीय बताया. सांसद महोदय ने इस योजना के क्रियांवयन पर होने वाले खर्चे के लिए भी सांसद निधि से योगदान का आश्वासन दिया.

इसी आयोजन में प्रथम अंक के सर्वश्रेष्ट आलेख के लिए कौशलेश बाबू का चयन हुआ और उन्हें श्रीफल, शॉल और प्रशस्ति पत्र से सम्मानित किया गया. कौशलेश बाबू का आलेख जिसने भी पढ़ा, उसकी आँखें बरबस नम हो आईं. उन्होंने बुजुर्गों की घर में स्थिति एवं बच्चों से उनकी अपेक्षाओं का बहुत ही मार्मिक आलेख अपने अनुभवों के आधार पर लिखा था. हर बुजुर्ग ने उसमें अपनी कहानी पाई.

अगले दिन सुबह नगर के सभी प्रमुख अखबारों में इस योजना, कौशलेश बाबू की बहु की तारीफ और तस्वीरें और कौशलेश बाबू का आलेख और उन्हें पुरुस्कृत किए जाने के समाचार प्रमुखता से छपे थे.

पिछली रात कौशलेश बाबू उसी प्रशस्ति पत्र को निहारते आँखों में आसूं लिए भूखे ही सोये थे.

बहु और बेटा नाराज थे कि उन्हें ऐसा लिखने की क्या जरुरत थी?

 

लिखना तो आज राम त्यागी जी से मिलन की कथा था लेकिन कुछ समयाभाव के चलते अभी एक लघु कथा पढ़ें.
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बुधवार, जून 09, 2010

चाँद: वो बचपन वाला!!

बचपन में गर्मियों में छत पर सोया करते थे. देर रात तक चाँद देखते. उसमें दिखती कभी बुढ़िया की तस्वीर, कभी रुई के फाहे, कभी बर्फ के पहाड़, कभी छोटा होता चाँद और न जाने क्या क्या? एक कल्पना की उड़ान ही तो होती थी बालमन की. मेरे लिए एक खिलौना ही तो था बचपन का जिससे खेलते खेलते न जाने कब आँख लग जाती पता ही नहीं चलता.

समय के साथ साथ जमाने की हवा बदली, हम बदले और छत पर सोना बंद हुआ. फिर भी कभी मौके बेमौके, कभी खुले में बैठ आकाश को निहारना अच्छा लगता रहा. जब भी चाँद को देखता, बचपन याद आता और मन चाँद से फिर खेलने लगता. ढूंढता वही धुँधली हो चुकी तस्वीरें बचपन की जो वक्त की गर्द में न जाने कहाँ और कब दब गईं.

एक अरसा बीता, न चाँद को चैन से निहारना हुआ, न उसके साथ खेलना. कवितायें और कहानियाँ लिखने का शौक हुआ तो चाँद में महबूबा नजर आने लगी. वो खिलौना गुम ही सा हो गया जिससे कभी घंटों खेला करता था.

कल रात न जाने क्या सोच, बरामदे में कुर्सी लगाये फिर चाँद को निहारने लगा, और लौट चला उस बचपन मे. कुछ देर आनन्द लेता रहा बचपने की छत का उस खिलौने के साथ और न जाने कब मन के भीतर का कवि, उठ खड़ा हुआ और खेल बिगाड़ दिया.

बस, भाव बदले. मन बदला और जिन्दगी की कशमकश से आ जुड़ा चाँद. जो देखते हैं आस पास, वो हाबी हुआ दूर बीते बचपने पर:

कुछ पंक्तियाँ उभरी आज के हालातों पर:

 

full-moon

चाँद

 

वो दुखियारी
रात मजदूरी से लौट
बेटे को थाली में
एक रोटी खिलाती
दूजी रोटी
आसमान के
चँदा को बतलाती
बेटा खुश हो जाता
हँसते हँसते सो जाता...

आज एक रोटी खाकर
बेटा
रोते रोते
भूखा ही सो गया..
मावस की रात थी
चाँद
न जाने कहाँ
खो गया!!

-समीर लाल ’समीर’

 

खिलौना

सोचता हूँ

इन्सान

जब चाँद पर बस जायेगा...

गरीब बच्चे का

एक अकेला खिलौना भी

छिन जायेगा!!

-समीर लाल ’समीर’

 

यू ट्यूब पर देखें:

 

 

जो विडियो नहीं देख पा रहे हैं और मेरे यू ए ई के मित्रों के लिए:

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रविवार, जून 06, 2010

बेवजह की शोध: फिजूल खर्ची!!

एक समाचार पढ़ता था...अब आ गई सिगरेट छुड़ाने वाली मशीन

दिल्ली के दो सरकारी अस्पतालों और इनके तंबाकू से निजात दिलाने वाली क्लिनिकों में कंपनयुक्त एक्यूप्रेशर तकनीकी की जल्द ही शुरुआत हो सकती है। जर्मन निर्मित बायो-रेसोरेंस [कंपन चिकित्सा] उपकरण, शरीर के अंदर के विद्युतीय तरंगों के साथ मिल कर आपमें निकोटीन लेने की इच्छा को कम करता है।

राज्य सरकार द्वारा संचालित इंस्टिट्यूट ऑफ ह्यूमन बिहैवियर एंड अलाइड साइंस के निदेशक डाक्टर नीमेश देसाई ने बताया कि बायो रेसोरेंस यंत्र पहली सिगरेट पीने के बाद आपमें अगली सिगरेट पीने की इच्छा को समाप्त कर देता है। सिगरेट छुड़ाने का यह उपचार न तो नुकसानदायक है और न ही पीड़ादायक है। इस चिकित्सा पद्धति में किसी प्रकार की कोई दवा भी नहीं लेनी पड़ती।

जर्मन निर्मित!! हम्म!! न जाने कितने की खरीदी होगी. न जाने कितने रिसर्च किए होंगे इसको बनाने वालों ने. बरसों के अथक परिश्रम और न जाने कितने पैसे खर्च के बाद आखिरकार सफलता पा ही ली. ८०% सफलता का तो दावा होगा ही कि तम्बाखू पीने की इच्छा जड़ से समाप्त हो जायेगी. इसके पहले भी न जाने कितनी शोध की गई और न जाने क्या क्या प्रोडक्ट बाजार में लाये गये मसलन निकोटीन पैच, च्यूईन्गम, प्लास्टिक पाइप आदि. सभी के सफलता के रेट ५० से ८०% तक आंके गये.

फिर इनके साईड अफेक्ट?? कहते हैं इस मशीन के कोई साईड अफेक्ट नहीं है. लेकिन यह मशीन बस सिगरेट पीना छुड़ाती है और एक बार आपकी सिगरेट पीना छूट गई, तो यह मशीन आपके लिए किसी काम की नहीं. और फिर सिगरेट के अलावा बाकी की लतों के लिए क्या अलग अलग मशीन खरीदनी पड़ेगी?

एक कहानी गुरुदेव ने सुनाई थी कि एक कवि के पास उनके मित्र आये और बोले कि क्या दिन भर बैठे कविता करते रहते हो, कुछ काम क्यूँ नहीं करते? कविवर ने पूछा कि काम करने से क्या होगा? मित्र ने कहा कि उससे पैसा आयेगा. कवि जी ने कहा फिर? मित्र बोले कि फिर और काम करोगे, तो और पैसा..धीरे धीरे कुछ सालों में पैसा ही पैसा हो जायेगा. कवि बोले, फिर? मित्र ने कहा, फिर क्या, फिर रिटायर होकर आराम से बैठना और कविता करना. कवि मुस्कराने लगे कि सो तो मैं अभी ही आराम से बैठा कविता कर रहा हूँ फिर इसके लिए इतनी मशक्कत क्यूँ??

हमारे साथ यही समस्या है जो चीज हमारे पास फ्री में ईश्वरीय देन के रुप में उपलब्ध है, उसे छोड़ कर हम शोध में जुट जाते हैं और घूम फिर कर ऐसे परिणाम निकाल कर मुग्ध हो बैठ जाते हैं, जो बिना शोध के यूँ भी दीगर व्यवस्थाओं से उपलब्ध थे.

अब देखिये, हमें न तो यह मशीन खरीदना पड़ी और न सिगरेट छूट जाने के बाद मशीन बेकार हुई. मिर्जापुर से लाये थे बकायदा शादी करके. मशीन ऐसी कि न जाने कितने ऐब छुड़ा दे, सिगरेट तो बड़ी मामूली चीज है. दारु से लेकर ताश खेलने तक सब एक झटके में छुड़ाने की काबिलियत. बना सकता है कोई ऐसी मशीन लाख शोध करके भी जो आपकी बरसों की आवारागर्दी की आदत एक दिन में छुड़ा दे??

और ऐसा भी नहीं कि आदत छुड़ाई और मशीन बेकार. आजीवन साथ रहती है. खाना खिलाने से लेकर कायदे का जीवन जीने के लिए सदैव उपयोगी. मार्फत उसके ही आप पापा बनकर इठलाते हैं.

कम्पलीट मल्टी परपज पैकेज डील है फ्री में और जिन जगहों पर दहेज का प्रचलन हो, वहाँ तो समझो पौ बारह-मानो सरकारी सोलर कुकर इस्तेमाल कर रहे हो कि सोलर कुकर भी ले आओ और सरकार से इसे लाने के प्रोत्साहन स्वरुप अनुदान राशि भी प्राप्त करो. (वैसे तो दहेज रुपी अनुदान राशि घूस के भेष में जर्मन मशीनों की खरीद में भी प्रचलन के अनुरुप आई ही होगी, ऐसा माना जा सकता है). आजकल तो अधिकतर पत्नियाँ नौकरी पेशा हैं तो मन्थली रिकरिंग स्बसीडी की व्यवस्था ही जानो. (इसे चाहें तो मशीनों के एनुअल मेन्टेनेन्स कांट्रेक्ट में से मिलने वाले कट के समकक्ष रखना आपकी सोच पर निर्भर करता है, मैं क्या कहूँ)

हाँ, साईड अफेक्ट तो हैं मगर उनका जिक्र करना गैर जरुरी है क्यूँकि ये हर व्यक्ति के लिए अलग अलग टाईप के हैं जिसे शुद्ध हिन्दी की फिल्मी भाषा में केमिकल लोचा कहा गया है और जो बात ही लोचा हो उस पर किसने सोचा तो खामखां मैं ही क्यूँ सोचूँ.

वैसे सक्सेस रेट इधर भी ७०-८०% ही है. कई पुरुष बहुत अख्खड़ होते हैं जिन पर यह मशीन भी काम नहीं करती. मगर ये ठीक वैसा ही मामला ही कि स्क्रूड्राईवर का काम है स्क्रू को घुमाना किन्तु यदि स्क्रू की मुंडी ही सपाट हो जाये या वो जंग खाकर टेढ़िया जाये, तो स्क्रूड्राईवर की क्या गलती और वो क्या कर लेगा. ये सब अपवाद ही कहलाये.

और फिर अपवादों को गिनने लग गये तब तो हो चुके शोध और चल चुकी दुनिया.

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बुधवार, जून 02, 2010

कविता का मौसम

कविता का मौसम बस मुहाने पर ही है. गरमी तो वैसे भी कविता का पौधा सूख जाता है और बारिश के साथ लहलहा उठता है. सावन, बारिश, बरखा, मोर, मोरनी, झूला, छतरी, बदरी का आज भी, याने ए सी के जमाने में भी, बोलबाला बरकरार है.

यहाँ तो खैर शाम से ही बारिश हो रही है, तब ऐसे में एक कविता हमारी तरफ से. आज यू ट्यूब भी ट्राई कर लिया और पॉडकास्ट भी. अरविन्द मिश्र जी की भावनाओं का सम्मान करते हुए बिना गाये बस पढ़ दी है. :)

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बारिशों के मौसम में, मेघ बन के छा जाओ
रात के अँधेरे में, चाँद बन के आ जाओ
भीड़ तो बहुत है पर, मन में इक उदासी है
याद बन के यादों में, याद ही बुलाती है
प्रिय! तुम चले आओ, प्रेयसी बुलाती है.

सावनी बयारों संग ये, सांस कसमसाती है
प्रीत इक बदरिया बन ,नित नभ पे छाती है
इस बरस तो बरखा का ,तुमहि से तकाजा है
मीत तुम चले आओ ,ज़िन्दगी बुलाती है
प्रिय! तुम चले आओ, प्रेयसी बुलाती है

खिल उठे हैं फूल फूल, भ्रमर गुनगुनाते हैं
रिम झिमी फुहारों की, सरगमें सुनाते हैं
उमड़ घुमड़ के घटा, भी तो यही कहती है
साज बन के आ जाओ, रागिनि बुलाती है.
प्रिय! तुम चले आओ, प्रेयसी बुलाती है

झूमती है ये धरा ,ओढ़ हरी ओढ़नी
किन्तु है पिपासित बस ,एक यही मोरनी
इससे पहले दामिनी ,नभ से दे उलाहने
प्रीत बन चले आओ, प्रियतमा बुलाती है
प्रिय! तुम चले आओ, प्रेयसी बुलाती है

--समीर लाल 'समीर'

यू ट्यूब:

 

 

जो यू ट्यूब न देख पायें (मेरे यू ए ई के साथी):

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