रविवार, मई 16, 2010

मैं कृष्ण होना चाहता हूँ!!

कोशिश करता हूँ कि जब बारिश होने लगे तब घर के बाहर न निकलूँ. छाते पर बहुत भरोसा बचपन से नहीं रहा, खास तौर पर जब बारिश के साथ तेज हवाएँ भी चलती हों. शायद कोई अनुभव ही रहा होगा जो घर कर बैठा है.

भीगने से तो उतना डर नहीं लगता जितना कीचड़ की छ्प छ्प में पतलून गंदी होने से.

सर भीगा, बदन भीगा तो सूख जायेगा कुछ देर में मगर पतलून पर लगा कीचट तो सूख कर भी दाग छोड़ जाता है.

हमेशा मन चाहा हो नहीं पाता. एक मन की चाहत ही तो है कि सफेद पतलून से लगाव है और कोई रंग भाता नहीं.

इतने जतन पर भी जाने कब, कौन, क्या सोचकर छेद कर गया और इस बारिश में मेरी छत चूने लगी. लगा कि जैसे छत है ही नहीं. सीधे बरसता आसमान और नीचे भीगता मैं.

पूरे घर में पानी पानी और लोगों के पैर में लग लग कर आया कीचड़. हर तरफ बस कीचड़ ही कीचड़. भीगा भी और लाख न चाहते हुए चलना भी पड़ा, ऐसे में पतलून गंदी होना ही थी, कितना बचाता सो हुई.

बारिश थम गई. घर सूखा, बदन सूखा.

सीलन तो जाते जाते ही जायेगी, बदबू बाकी है और पतलून पर लगे कीचड़ के दाग, मुए छूटते ही नहीं.

सफेद पतलून जब तक संभल जाये, तब ही तक वरना गंदगी सबसे पहले उसी पर दिखती भी है और अपने निशान हमेशा के लिए छोड़ जाती है.

और सफेद पतलून पहनने की ऐसी ललक – क्या कहें कि जाती नहीं.

krishna

मैं कृष्ण होना चाहता हूँ!!!

जो दिखा वो मैं नहीं हूँ
बस पाप धोना चाहता हूँ
है मुझे बस आस इतनी
कुछ और होना चाहता हूँ.

जिन्दगी चलती रही है
ख्वाब सी पलती रही है
सब मिला मुझको यहाँ पर
कुछ कमी खलती रही है.

थक गया हूँ ए जिन्दगी
कुछ देर सोना चाहता हूँ.
बस पाप धोना चाहता हूँ
कुछ और होना चाहता हूँ.

आराम कर लूँ दो पहर
मैं चल पड़ूँ फिर उस डगर
मंजिल मुझे दिलवाये जो
करवा सके पूरा सफर..

राह में बन छांव चल दे
वो वृक्ष होना चाहता हूँ
बस पाप धोना चाहता हूँ
कुछ और होना चाहता हूँ.

न बने जब बात प्यारे
टूट कर बिखरे नजारे
मैं चलूँगा हमसफर बन
छोड़ दे जब साथ सारे

जो प्रीत का अहसास दे
वो हाथ होना चाहता हूँ
बस पाप धोना चाहता हूँ
कुछ और होना चाहता हूँ.

कब किसी का साथ दूँगा
सत्य बातों में, गलत में
मांगने की छूट उसको
जो दिखे पहली झलक में

जब युद्ध हो कुरुक्षेत्र का
मैं कृष्ण होना चाहता हूँ
बस पाप धोना चाहता हूँ
कुछ और होना चाहता हूँ.

आत्मशुद्धि के लिए अब
कुछ देर रोना चाहता हूँ
बस पाप धोना चाहता हूँ
कुछ और होना चाहता हूँ.

-समीर लाल ’समीर’

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115 टिप्‍पणियां:

M VERMA ने कहा…

"पतलून पर लगा कीचट तो सूख कर भी दाग छोड़ जाता है."
लगता है पतलून का रंग बदलना ही होगा. कीचड़ को उसका कर्म करने से कौन रोक पाया है भला.
"अब आत्मशुद्धि के लिए
कुछ देर रोना चाहता हूँ"
आत्मशुद्धि और रूदन का पथ किसी पाप कर्म के करने पर किया जाता है. वो भी कि आगे पाप कर्म करने के रास्ते खुले रहें (मेरी क्षुद्र विचारधारा). जिन्हें आत्मशुद्धि और रूदन करना चाहिये, उन्होंने किया क्या?
क्षमा करें.

योगेन्द्र मौदगिल ने कहा…

Bahut sunder rachna....Atmbodh se sarabor....Jai ho...

अमिताभ मीत ने कहा…

बहुत बढ़िया है समीर भाई......

विनोद कुमार पांडेय ने कहा…

थोड़ा अलग, कुछ गंभीर बातें पर एक बेहतरीन भाव को प्रस्तुत करती हुई..आलेख और कविता दोनो दिल को छू ती हैं...
समीर जी अगर यात्रा लंबी हो तो बरसात, धूप से आदमी ज़्यादा देर तक बच नही पाता बस बढ़ते रहना पड़ता है...बढ़िया प्रस्तुति के लिए धन्यवाद...

दिलीप ने कहा…

Sameer ji apne to kavita ke liye ek naya vishay hi pradaan kar diya...badi hi sandeshparak kavita...

पी.सी.गोदियाल "परचेत" ने कहा…

न बने जब बात प्यारे
टूट कर बिखरे नजारे
मैं चलूँगा हमसफर बन
छोड़ दे जब साथ सारे

जो प्रीत का अहसास दे
वो हाथ होना चाहता हूँ
बस पाप धोना चाहता हूँ
कुछ और होना चाहता हूँ.

bahut khoob!

कडुवासच ने कहा…

जब युद्ध हो कुरुक्षेत्र का
मैं कृष्ण होना चाहता हूँ
...अदभुत ... मुझे पहले भी कुछ अध्यात्मिक भाव नजर आये थे ... बधाई व शुभकामनाएं !!!

राजेश स्वार्थी ने कहा…

आप सा होना चाहता हूँ
खुद को खोना चाहता हूँ.


-शायद कभी न हो पाऊँ. लेकिन सपने देखने में क्या बुराई है.

वाणी गीत ने कहा…

जो दिखा वो मैं नहीं हूँ...
बहुत कम ही होते हैं वही जो दीखते हैं ....बहुत मुश्किल है
मगर
आत्मशुद्धि के लिए अब
कुछ देर रोना चाहता हूँ ...
ये भाव हो मन के तो ये भी कम नहीं ...

अच्छी कविता ...!!

honesty project democracy ने कहा…

इन सब बहानों से काम नहीं चलेगा ,उठाइए सुदर्शन चक्र और गदा और फिर आइये हमलोगों के साथ ,धर्म की रक्षा और अधर्म व भ्रष्टाचार रुपी पाप का नाश करने के लिए / आपके जैसे निडर कृष्ण की आज, इस भारत देश और इस देश की समाज को जरूरत है /

डॉ. मनोज मिश्र ने कहा…

कोशिश करता हूँ कि जब बारिश होने लगे तब घर के बाहर न निकलूँ....समझ दारी भी इसी में है,
जो दिखा वो मैं नहीं हूँ
बस पाप धोना चाहता हूँ
है मुझे बस आस इतनी
कुछ और होना चाहता हूँ. ...
इस सशक्त रचना के लिए बधाई स्वीकार करें.

संजय तिवारी ने कहा…

जो दिखा वो आप नहीं हैं, सब जानते हैं मगर लोग मजबूरियाँ कैसी बनवा देते हैं.

राम त्यागी ने कहा…

you are right ...

Rajeev Nandan Dwivedi kahdoji ने कहा…

दो ठो सनलाईट भिजवाते हैं.
कम तो नहीं न पड़ेगा !!

बेनामी ने कहा…

थक गया हूँ ए जिन्दगी
कुछ देर सोना चाहता हूँ.
ये दो लाइन बहुत ही अच्छी लगी. ऐसा लगा जैसी सब अपनी जिंदगी में यही सोचते है

ब्लॉ.ललित शर्मा ने कहा…

जब युद्ध हो कुरुक्षेत्र का
मैं कृष्ण होना चाहता हूँ
बस पाप धोना चाहता हूँ
कुछ और होना चाहता हूँ.


युद्ध क्षेत्र में दो ही विकल्प होते हैं, तटस्थ होकर युद्ध देखो या युद्ध करके विजय को प्राप्त करों, युद्ध में संवेदनाओं के लिए कोई स्थान नहीं होता।

धर्मयुद्ध को पाप नहीं कहा गया है, फ़िर धोने के लिए बचा ही क्या है? पाप तो उन्हे धोना है जिन्होने पाप किया है,लेकिन पाप की परिभाषा बदल गयी है, पाप ही पुण्य लगने लगा है जैसे 100बार झुट बोलने पर सच होने का भ्रम हो जाता है, लेकिन रहता झूठ ही है।


आमीन

Khushdeep Sehgal ने कहा…

गुरुदेव,
टीवी पर सर्फ एक्सेल की एक एड आती है...अगर दाग़ लगने से कुछ अच्छा होता है तो दाग़ अच्छे हैं...इस एड का थीम है कि टीचर का पेट डॉग मर जाता है...वो स्कूल नहीं आती है और घर की सीढ़ियों पर ही गुमसुम बैठी होती है...एक स्टूडेंट टीचर से मिलने घर आता है...और टीचर का ध्यान हटाने के लिए हर मुमकिन कोशिश करता है...यहां तक कि पेट डॉग की तरह ही कीचड़ में कलाबाज़ियां भी खाता है...उसकी सफेद़ यूनिफॉर्म कीचड़ से सन जाती है...फिर भी टीचर मुस्कुलाती हुई उसे गले लगाती है...दाग़ अच्छे हैं...एड का लिंक दे रहा हूं, एक बार देखिएगा ज़रूर...http://www.youtube.com/watch?v=dVBP86788Q0

जय हिंद...

आभा ने कहा…

बहुत सुन्दर ...

गिरिजेश राव, Girijesh Rao ने कहा…

अपनी पोस्ट 'झिरी से झाँक' याद आ गई। आलसी हूँ, इस तरह विस्तार नहीं दे पाया ।
यह लेख बहुत अच्छा लगा। चाहने से कुछ नहीं होता राजू ! :) जाने क्यों लग रहा है कि इस वाक्य को किसी फिल्म का संवाद होना चाहिए ।

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

मुझे भी सफेद रंग से लगाव है । शर्टें सभी लगभग सफेद ही हैं । बारिश में निकलने में एक उन्मुक्तता का आनन्द मिलता है अतः जीन्स ही पहनता हूँ, वह भी ब्लू डेनिम ।
कीचड़ फिर भी लगता है । लगेगा ही । सभ्यता की सड़कें नहीं यहाँ पर । मेरे ही चुने रास्ते हैं । गाड़ी वालों ने लिफ्ट की पेशकश की जो मैंने ठुकरा दी । वही गाड़ी वाले छीँटे मारकर चले जाते हैं ।
घर आता हूँ । जीन्स स्वयं धोता हूँ, रगड़ कर मेहनत से । शिरायें उभर आती हैं, माँसपेशियाँ सशक्त होने लगती हैं । थककर सो जाता हूँ । उठता हूँ तो दाग चला जाता है ।
खादी की सफेद शर्टें पहनता हूँ । गाँधी से प्रभावित हूँ । यदि पहनने लायक नहीं लगतीं तो किसी गरीब को दे देता हूँ । रंग से मुझे भी मोह है, शर्ट से नहीं । पता नहीं, लोग तो सिरफिरा कहते हैं ।

बेनामी ने कहा…

जब कोई तुम्हारा ह्र्दय तोड़ दे,
और
जब कोई बात बिगड़ जाये,

जैसे गीतों की याद आ गयी तो साथ ही

अंतर्द्वंद और अंतर्मन के विश्लेषण तक कई रुपों की झलक भी दीख गयी
आपकी आज की गद्य और पद्य से सजी रचना में

ताऊ रामपुरिया ने कहा…

जरूर होईये कृष्ण, रोका किसने है? पर एक समुदाय विशेष कॄष्ण से बडा रुष्ट है, हो सकए तो फ़ैसले पर पुनर्विचार किया जाये.:)

रामराम.

seema gupta ने कहा…

थक गया हूँ ए जिन्दगी
कुछ देर सोना चाहता हूँ.
बस पाप धोना चाहता हूँ
कुछ और होना चाहता हूँ.
"अंतर्मन की व्यथा..........बेमिसाल... "
regards

kunwarji's ने कहा…

वाह!

बहुत बढ़िया अभिवयक्ति!

सुन्दरता को चार चाँद लगाती आपकी ये पोस्ट!

पतलून पर दाग लगने से डर से लेकर कृष्ण होने तक के मनोभावो का क्या खूब शब्दचित्र प्रस्तुत किया आपने!

कुंवर जी,

SANJEEV RANA ने कहा…

बहुत बढ़िया

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

आप सारथी के रोल में बिल्कुल फिट हैं!
रचना व पोस्ट सार्थक है!

Aruna Kapoor ने कहा…

बारिश में छाते का सहारा ऐसा है समीरजी...जैसा कि पानी में डूबते हुए को तिनके का सहारा!..... कभी कभी छाता भिगने से बचाता है, तो कभी कभी तिनका भी डूबते हुए की नैया पार लगाता है!

'बिखरे मोती..' के बारे में आज ही पता चला...ढेरों बधाइयां...ढेरों शुभ-कामनाएं!

naresh singh ने कहा…

कौनसे पाप धोना चाहते है, वो जो पाप ही नहीं है | आजकल पाप की परीभाषा का भी पता नहीं चलता आप किसे धोयेंगे | कृष्ण बनना जरूरी भी है यही वक्त का तकाजा है अभी थकने का समय नहीं आया है |

mehek ने कहा…

आराम कर लूँ दो पहर
मैं चल पड़ूँ फिर उस डगर
मंजिल मुझे दिलवाये जो
करवा सके पूरा सफर.
ye lines bahut pasand aayi,puri kavita mein aise jeevan ke anek lamho ka saar chupa hai.sunder rachana.

nilesh mathur ने कहा…

भैया ब्लॉगजगत में पिछले दिनों आप को लेकर जो कुछ होता रहा है, उसे सफ़ेद पतलून और इतनी सुन्दर कविता के माध्यम से जिस तरह आप ने व्यक्त किया है वो वाकई कमाल का है, एक सधा हुआ लेखक ही ये कर सकता है, अब तो इतना कुछ होने के बाद आप पर अपने लेखन को लेकर और भी ज्यादा जिम्मेदारी आ गयी है, इस रचना के द्वारा आपने उसे बाखूबी निभाया भी है! धन्यवाद!

Unknown ने कहा…

आत्मशुद्धि के लिए अब
कुछ देर रोना चाहता हूँ
बस पाप धोना चाहता हूँ
कुछ और होना चाहता हूँ.

"कभी कभी सोचता हूँ... की काश कुछ ऐसा होता की हमें अपनी जिंदगी को फिर से शुरू करने का मौका मिल जाये... हम अपनी जिंदगी के सारे बुरे हिस्सों को रबर से मिटा मिटा के उनपर कुछ और लिख सकते...! अपनी जिंदगी को फिर से जीने का काश कोई तरीका मिल पाता..."

Akshitaa (Pakhi) ने कहा…

apki कविता तो बहुत बढ़िया है..चित्र भी बढ़िया लगाया है..यहाँ अंडमान में तो खूब बारिश हो रही है. भीगने का मजा ले रही हूँ.
_______________
'पाखी की दुनिया' में मेरी ड्राइंग देखें...

Deepak Shukla ने कहा…

Hi,

DAAG ACHHE HAIN..

Patloon ke daagon ki kya chinta karni..bas dil saaf rahna chahiye..(jaisa ki aapka hai hi)..

Kavita madhur lagi..

Krishn jo ban hi gaye to,
paap kya aur punya kya
wo hain paalanhar sabke..
Ye jagat un ne racha..

Krishn ko paoge bheetar..
Man main jhaken to sahi..
Wo dikhega tere hi andar..
Man ke ghar aayen sahi..

DEEPAK..

www.deepakjyoti.blogspot.com

rashmi ravija ने कहा…

सुन्दर आलेख के साथ सुन्दर कविता...और कभी कभी सफ़ेद पतलून पर कीचड़, पास से गुजरती गाड़ी भी उड़ा कर जाती है, कोई दोस्त ही होगा,गाड़ी में...बस इतना कहना है,..'क्या यार देख कर तो चलाओ गाड़ी'...वो खिड़की से सर निकाल कर मुस्कुराएगा...आप भी मुस्कुराओगे..बस :)

नीरज मुसाफ़िर ने कहा…

कीचड में चलते हुए पतलून को ऊपर चढा लीजिये> फिर देखना, कैसे सनेगी।

सम्वेदना के स्वर ने कहा…

समीर जी!
कृष्ण इस भारत भूमि के सबसे प्यारे नायक हैं..हम धार्मिक या अध्यात्मिक न भी हों तो भी कृष्ण आकर्षित करते हैं. उनका चरित्र इतना विस्तारपूर्ण है कि सब कुछ उन ही में मिल जाता है. ओशो कहते हैं कि कृष्ण मनुष्य़ होनें की
पराकाष्ठा हैं.
हम सब वस्तुत:कृष्ण होना चाहते हैं. मै तो शीर्षक से बहुत अभीभूत हूं.
आभार!

शिवम् मिश्रा ने कहा…

खुशदीप भाई से सहमत ..............कुछ दाग अच्छे होते है ........रहने दें उनको !!
और हाँ कृष्ण जी ने यह भी तो कहा था कि ना प्यार जता दुश्मन से............ युद्ध कर !!

Creative Manch ने कहा…

"राह में बन छांव चल दे
वो वृक्ष होना चाहता हूँ
बस पाप धोना चाहता हूँ
कुछ और होना चाहता हूँ."


इस रचना की गूँज बहुत गहरी है
अध्यात्मिक भाव लिए पंक्तियाँ अदभुत हैं

बढ़िया प्रस्तुति के लिए धन्यवाद

संजय भास्‍कर ने कहा…

..बढ़िया प्रस्तुति के लिए धन्यवाद...

संजय भास्‍कर ने कहा…

इस सशक्त रचना के लिए बधाई स्वीकार करें.

संजय भास्‍कर ने कहा…

AADARNIYA
SAMEER JI
KRISHAN KI AAJ BHI DESH KO JARORAT HAI

Indranil Bhattacharjee ........."सैल" ने कहा…

बहुत सुन्दर कविता है ! कभी कभी ज़िन्दगी से कुछ और उम्मीद होती है ... मन ये कहता है की काश मैं कुछ और होता ... कुछ और कर पाता ... कुछ और हासिल ...

shikha varshney ने कहा…

:)behtareen..

चौपटस्वामी ने कहा…

ब्लॉग जगत के कृष्ण तो आप हइयैं,वह भी बिना मोर-मुकुट के.

वैसे बारिश का काम है होना. हमारा काम है सफ़ेद पतलून को सफ़ेद रखने का भरसक प्रयास करना.

वैसे भी बारिश हमारी पतलून को गंदा रखने के बुरे इरादे से नहीं होती . वह धरती की उर्वरा शक्ति को कायम रखने के लिए होती है. किसी किसान से पूछ कर देखिए.

अच्छी अन्योक्तिपरक पोस्ट !

Abhishek Ojha ने कहा…

ओह ! बढ़िया... ये द्वंद्व तो चलता ही रहता है.

भारतीय नागरिक - Indian Citizen ने कहा…

चलते रहें चलते रहें....
बस यही कामना... चलते रहें अनथके....

दिनेशराय द्विवेदी ने कहा…

पार्थसारथी होने की आकांक्षा मुबारक हो!

स्वप्निल तिवारी ने कहा…

जो प्रीत का अहसास दे
वो हाथ होना चाहता हूँ

ye baat khub kahi aapne...

कब किसी का साथ दूँगा
सत्य बातों में, गलत में
मांगने की छूट उसको
जो दिखे पहली झलक में

जब युद्ध हो कुरुक्षेत्र का
मैं कृष्ण होना चाहता हूँ

ye poora para khub pasand aaya sameer ji..bahut khub


आत्मशुद्धि के लिए अब
कुछ देर रोना चाहता हूँ

sabse pawan ganga ki baat kar di aapne..nice post...barish patloon aur keechad bhi mujhe khub achhe lage

रंजन ने कहा…

थक गया हूँ ए जिन्दगी
कुछ देर सोना चाहता हूँ.


जय हो

Anjum Sheikh ने कहा…

Shah Nawaz said...
अंजुम जी, यह कोई नई बात नहीं है, दर-असल, यही घिनौनी राजनीति का सच है. जहाँ तक नकारात्मक वोट की बात है, तो यह पोल खोलती है इन तथाकथित राष्ट्रवादियों की. अभी अगर यही पोस्ट किसी और मुस्लिम महिमा लेखक ने मुसलमानों के विरोध में बनाई होती, तब आप देखती की कमेंट्स की बाड़ आजाती. इस सब के बाद भी यह लोग अपने आप को सही साबित करने में लगे रहते हैं. दरअसल इस तालाब की कोई मछली नहीं बल्कि पूरा तालाब ही गन्दा है. सब के सब मुखौटा लगा कर बैठे हुए हैं. बाहर से दूसरों को हमेशा गलत ठहराते हैं, और अन्दर से सब के सब खुद गलत हैं.

'दंगे के धंधे की कंपनी' श्रीराम सेना पैसे पर कराती है हिंसा?

http://anjumsheikh.blogspot.com

बेनामी ने कहा…

kya baat hai..
bahut hi khubsurat lekh...
achhi soch ....

अजय कुमार झा ने कहा…

हे सखे जो ,
कृष्ण सरीखे चाहते हो होना तुम,
तो सिर्फ़ रथी और महारथी नहीं ,साथ ,
सुदर्शन भी जरूर ढोना तुम ॥

यदि श्वेत पर है कीच ,
तुम्हारी चिंता का कारण तो ,
देखने दो उन्हें धवल भी और दाग भी ,
होने दो फ़ैसला पहले, अभी उन्हें मत धोना तुम ॥

रंजना ने कहा…

आत्मशुद्धि के लिए अब
कुछ देर रोना चाहता हूँ


भावुक मन के भावुक उदगार पाठक को भी मुग्ध और भावुक करने में सक्षम हैं....

बहुत सुन्दर कविता...बहुत बहुत सुन्दर...

ZEAL ने कहा…

Sameer-The Charioteer !

The following lines doesn't suit your persona..

"अब आत्मशुद्धि के लिए
कुछ देर रोना चाहता हूँ"

Sameer ka sheetal pravah, aviral chalne dijiye...

Parul kanani ने कहा…

कब किसी का साथ दूँगा
सत्य बातों में, गलत में
मांगने की छूट उसको
जो दिखे पहली झलक में

जब युद्ध हो कुरुक्षेत्र का
मैं कृष्ण होना चाहता हूँ
बस पाप धोना चाहता हूँ
कुछ और होना चाहता हूँ.

sir..aapka jawab nahi hai!

अन्तर सोहिल ने कहा…

सफेद पहनने की आपकी ललक नहीं आपका स्वभाव है और स्वभाव से अलग आप कैसे हटोगे जी
जैसे जल और हवा का स्वभाव बहना है
कृष्ण का स्वभाव तो कृष्ण होना ही है

प्रणाम

कविता रावत ने कहा…

जिन्दगी चलती रही है
ख्वाब सी पलती रही है
सब मिला मुझको यहाँ पर
कुछ कमी खलती रही है.
.....निसंदेह कुछ कमी ही तो कुछ बेहतर सोचने पर मजबूर करती है..शायद कुछ बेहतर कर गुजरने की दिशा में ...

सार्थक रचना के लिए हार्दिक शुभकामनाएँ

दीपक 'मशाल' ने कहा…

अरे बाप रे!!! पंक्तियों के बीच में घुस कर पढना पड़ेगा लगता है.... :)
बेहतरीन कविता.. इससे मिलती-जुलती तो नहीं पर लगभग ऐसे ही शब्द लिए मुझे भी अपनी कविता की ये पंक्तियाँ याद आ गयीं-
'कृष्ण बनने की कोशिश में
भीष्म बनता जा रहा हूँ
चाहता हूँ वसंत होना
पर ग्रीष्म होता जा रहा हूँ.

क्या माया क्या मायावी दुनिया
अब तक ना कुछ समझ सका
बस सुलझने की कोशिश में
तिलिस्म होता जा रहा हूँ.'

Mithilesh dubey ने कहा…

वाह बहुत खूब , लाजवाब लगी रचना , भाव कहीं दूर बहा ले गयें ।

दिनेश शर्मा ने कहा…

राह में बन छांव चल दे
वो वृक्ष होना चाहता हूँ
बस पाप धोना चाहता हूँ
कुछ और होना चाहता हूँ.

बहुत सुन्दर रचना ।

डॉ टी एस दराल ने कहा…

तभी तो -सफ़ेद पतलून पहनना आसान है , उसे सफ़ेद रखना मुश्किल ।

आत्मशुद्धि के लिए अब
कुछ देर रोना चाहता हूँ
बस पाप धोना चाहता हूँ
कुछ और होना चाहता हूँ।

यह आत्म निरीक्षण सही है।

अमिताभ श्रीवास्तव ने कहा…

मैं कृष्ण होना चाहता हूँ
बस पाप धोना चाहता हूँ

umda panktiya he..krashn kaa pooraa saar inhi do pankti me he ji

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

समीर जी,

आज आपकी ये रचना कितना कुछ बेन कर रही है....भूमिका अपना अलग रंग लिए हुए है...एक एक शब्द जैसे वेदना में डूबा हुआ...

और काव्य रूप....

हर लफ्ज़ संवेदना से भरा हुआ...बहुत सुन्दर कृति है.......

जो प्रीत का अहसास दे
वो हाथ होना चाहता हूँ
बस पाप धोना चाहता हूँ.

यूँ तो हर पंक्ति मन कि गहराई तक पहुंची...पर ये कुछ विशेष है....

महेन्द्र मिश्र ने कहा…

बहुत ही भावपूर्ण रचना और पोस्ट.. वैसे ही आप कृष्ण से क्या कम है ... जब एक बार हनुमान जयंती पर मेरी आपसे जबलपुर में मुलाक़ात हुई थी उसके बाद आपके द्वारा लिखी गई पोस्ट का अवलोकन करें उस पोस्ट का कृष्ण शब्द अभी तक याद है...... सादर अभिवादन ...

Arvind Mishra ने कहा…

किशन तो पूरे छल क्षद्मी थे-काहें कृषण होना चाहते हैं ?

VIVEK VK JAIN ने कहा…

ye nai udantshtari bhi bha gai :)

देवेन्द्र पाण्डेय ने कहा…

बनारस में रहते तो ३० दिन के लिए ५० सफ़ेद पतलूनें बनानी पड़तीं..
चाहता तो मैं भी हूँ मगर हिम्मत नहीं होती.

...आत्मशुद्धि के लिए अब
कुछ देर रोना चाहता हूँ..
..वाह!

..मुझे भी लगता है कि रोने से मन शुद्ध होता है मगर आँसू मुझे बेवकूफ समझते हैं लाख बुलाता हूँ आते ही नहीं..!

अरुणेश मिश्र ने कहा…

प्रशंसनीय ।

अजय कुमार ने कहा…

ओ हो हो ,सुंदर अभिव्यक्ति ।कमाल है समीर जी ।

Amrendra Nath Tripathi ने कहा…

जिन्दगी चलती रही है
ख्वाब सी पलती रही है
सब मिला मुझको यहाँ पर
कुछ कमी खलती रही है.
======= '' बारहा ऐसे सवालात पे रोना आया '' !
कुछ खोये बिना कुछ मिलता कहाँ है ?

राज भाटिय़ा ने कहा…

बहुत सुंदर जी

dhiru singh { धीरेन्द्र वीर सिंह } ने कहा…

रोने से कुछ हो या ना हो मन जरुर हलका होता है

विवेक रस्तोगी ने कहा…

बहुत ही गहरी बात कह गये आप, हम अभी तक बारिश और सफ़ेद पतलून के रिश्ते में ही उलझे हुए हैं, "मैं कृष्ण होना चाहता हूँ" से तो आनंद की अनुभूति हो रही है।

सु-मन (Suman Kapoor) ने कहा…

बहुत पसन्द आई आपकी ये पोस्ट ।साधारण शब्दों में लिखी इस रचना में भाव बहुत गहरे छिपे हैं जो आपके अंतर्मन की झलक दे रहे हैं ।

विजय तिवारी " किसलय " ने कहा…

बातों ही बातों में आप सब कह गए, इसी को शब्दों की जादूगरी कहा जाता है, और हम भी इन्हीं बातों के मुरीद हैं.
मैं कृष्ण बनना चाहता हूँ पढ़ कर गीता का ज्ञान जैसा लगा.

राजकुमार सोनी ने कहा…

समीर भाई,
कविता के पहले वक्तव्य पढ़ा। पढ़ते-पढ़ते नीचे तक आ गया। अच्छी-टिप्पणियां हैं। एक टिप्पणी को छोड़ दे तो। खैर उन्होंने अपने आपको सिरफिरा मान ही लिया है तो कोई क्या कर सकता है।
आपने सफेद पतलून के माध्यम से जो कुछ कहा है उस पतलून की वजह से उत्पन्न परेशानी मैं मूर्धन्यों के ब्लाग पर देखकर आ रहा हूं। सब चालू आहे.. मसलन अब रोज लिखा जा रहा है। चिट्ठा चर्चा चालू आहे। नकली ब्लाग बनाकर लंबी-लंबी पोस्टें लगाने का सिलसिला चालू आहे। गुपचुप और सब्जी का ठेला लगाना चालू आहे। चमचों को उपकृत करने का सिलसिला चालू आहे। कुल मिलाकर यह तो मानिए कि आपकी वजह से हलचल हुई है।
मैं थोड़ा बहुत साहित्य में रूचि रखता रहा हूं, इसलिए मेरा मानना है कि जो चर्चा विवाद का रूप ले ले उससे नुकसान नहीं होता। जनसमर्थन किसे मिला है यह सबने देखा है। भाई साहब आपकी सफेद पतलून तो सिर्फ गंदी हुई है उसे तो आप कानपुर भेज दीजिए वहां कुछ लोग सिर्फ पैंट धोने का काम ही करते हैं।

मैं जो बात कह रहा था वह यह कि आपकी तो पतलून ही गंदी हुई है उधर तो लोगों की पैंट ही उतार दी गई है। आपने देखा तो होगा ही राजीव तनेजा ने क्या किया था। गंदी पैंट तो धोकर पहनी जा सकती है लेकिन जब आदमी पूरी तरह से वो.. मतलब.. वो हो जाए तो अब उसके लिए कपड़ा कहां से लाए।
अरे हां एक बात तो बताना भूल ही गया। भाई लोग(चेलो सहित हारमोनियम लेकर) मलिका शेरावत के घर चले गए थे यह पूछने कि-बांबे ड्राइंग वाले की दुकान कहां है।

डॉ. महफूज़ अली (Dr. Mahfooz Ali) ने कहा…

आदरणीय समीर जी...

सादर नमस्कार....


मैं वापस आ गया हूँ.... आपका यह लेख और कविता बहुत अच्छी लगी...

बस पाप धोना चाहता हूँ
कुछ और होना चाहता हूँ.


इन पंक्तियों ने मन को छू लिया...

संजय @ मो सम कौन... ने कहा…

समीर सर,
आलेख और कविता में से बेहतर क्या है, फ़ैसला नहीं कर पा रहा हूं।
खूबसूरत उदगार और कृष्ण होने की चाह बहुत पसंद आई।

आभार स्वीकार करें।

Himanshu Mohan ने कहा…

मैंने कभी टिप्पणी करने के लिए कॉपी-पेस्ट नहीं किया, आज कर रहा हूँ-
मैं चलूँगा हमसफर बन
छोड़ दे जब साथ सारे
* * * * * *
कब किसी का साथ दूँगा
सत्य बातों में, गलत में
मांगने की छूट उसको
जो दिखे पहली झलक में
* * * * * *
लूट लिया।
दिल से ऐसे निकली है बात कि दिल तक पहुँची नहीं, सीधी घुस गई तीर की तरह। भावुक कर दिया आपने। हमेशा मैं पोस्ट के बाद सारी टिप्पणियाँ भी पढ़ता हूँ, तब जा के अपनी बात कहता हूँ। आज होश खो बैठे - दिल के हाथों।
इसकी हर बात ही अपनी सी लगे है यारो
किस क़दर शख़्स ये अपना सा लगे है यारो
छिन गया दिल, कही वो बात मगर-
दिल का छिनना भी बड़ा प्यारा लगे है यारो
शुभेच्छाओं सहित,
आपका

pallavi trivedi ने कहा…

पढ़कर ऐसा लगा जैसे आपने दुखी मन से लिखा है इसे...क्यों लिखा है पता नहीं! लेकिन दाग इतने भी बुरे नहीं होते! जैसे एक योद्धा के शरीर पर लगे घाव के दाग उसका आभूषण ही तो कहलाते हैं न!

Madhu chaurasia, journalist ने कहा…

सर... आपकी लेखनी वाकई बेमिसाल है...आपकी कविता के एक-एक शब्द दिल को छू जाते है

वीनस केसरी ने कहा…

लेख गहरे उतर गया

क्या कहूँ

लोग "सर्फ़, टाईड" भेजवाने पर तुले हुए हैं

हद है

एक डायलाग याद आ रहा है-

कहता तो बहुत कुछ हूँ मै, मगर भूल जाता हूँ कि हूँ तो आदमी ही,,

Dev K Jha ने कहा…

गुरुदेव, बहुत सही... साफ़ पतलून पहननें की ललक तो है ही... मगर हम तो भई अपनी चाल ही चलेंगे...

तेज़ बारिश हो या हल्की भीग जाएँगे ज़रूर
हम मगर अपनी फटी छतरी उठाएँगे ज़रूर

drsatyajitsahu.blogspot.in ने कहा…

अच्छा लेख है
सफेद पतलून पहनने की ऐसी ललक – क्या कहें कि जाती नहीं.

आपकी टिप्पणी से हमें लिखने का हौसला मिलता है.
drsatyajitsahu.blogspot.com

मीनाक्षी ने कहा…

राह में बन छांव चल दे
वो वृक्ष होना चाहता हूँ
***
न बने जब बात प्यारे
टूट कर बिखरे नजारे
मैं चलूँगा हमसफर बन
छोड़ दे जब साथ सारे
***
जो प्रीत का अहसास दे
वो हाथ होना चाहता हूँ ---- सफेद पतलून जैसी ललक इन पंक्तियों में भी है जो गहरा असर करती है...

Rohit Singh ने कहा…

बॉस क्या कहूं..आप खुद से ही सवाल करते रहते हैं....जॉय मुखर्जी का एक गाना बस याद आ रहा है ..

दाग दिल के मिटते नहीं, मिटाने पे न जा
मेरी नजरों की तरफ देख, जमाने पे न जा
दिन भी निकलेगा कभी, रात के आने पे न जा..

बस और क्या कहूं.....समझ ही गए होंगे.

साधवी ने कहा…

मैं कृष्ण होना चाहता हूँ.

-रचना बहुत प्रभावी है.

Kulwant Happy ने कहा…

बरसात और कीचड़ के मार्फत दूर की बात कह गए जनाब; अगर समझने वालों की समझ में आ गई हो तो?


रचना तो बेहद प्यारी लिखी है।

फ़िरदौस ख़ान ने कहा…

राह में बन छांव चल दे
वो वृक्ष होना चाहता हूँ
***
न बने जब बात प्यारे
टूट कर बिखरे नजारे
मैं चलूँगा हमसफर बन
छोड़ दे जब साथ सारे
***
जो प्रीत का अहसास दे
वो हाथ होना चाहता हूँ

मन को छू लेने वाली अति सुन्दर प्रस्तुति...

बेनामी ने कहा…

छाते पर बहुत भरोसा बचपन से नहीं रहा,
करना भी नही चाहिए
पर.......ये वो छाते नही जो तेज हवाओ में उड़ जाये, आपके छाते तो तूफानों का मुकाबला करने की क्षमता रखते हैं. आपके प्यार और सम्मान के हांथों की गहरी पकड़ में जो हैं ये.

भीगने से तो उतना डर नहीं लगता जितना कीचड़ की छ्प छ्प में पतलून गंदी होने से
भीगने से कौन डरता है,भई ! इस दुनिया के हर मौसम का सामना करने के लिए तो शुरू से तैयार हैं, नही तो सर्वाइव' ही नही कर पायें हर बारिशों का अपना मजा है ,जीना सिखाती है ये बारिशें
हर आत्म सम्मानी व्यक्ति इन धब्बों से डरता और घबराता है,वो तो चाहता है कि उसके सफेद कपड़ों पर कोई दाग ना लगे पर..............
किन्तु कोई गंदगी दाल ही दे तो उसका क्या दोष उसके कपड़े दूसरों के दिए दाग दिखाते हैं .
अपने हाथों कोई अपने सफेद पर क्यों दाग लगायेगा य लगाना पसंद करेगा?
खास कर वो व्यक्ति जिसे बचपन से झक सफेदी पसंद हो .

अपनी सफेदी को बनाये रखने के लिए बहुत चाहते हैं बारिश से बचे रहे किन्तु कोई छत ही उखड फैंके तो बारिश का सामना तो
जाने कब, कौन, क्या सोचकर छेद कर गया और इस बारिश में मेरी छत चूने लगी. लगा कि जैसे छत है ही नहीं. सीधे बरसता आसमान और नीचे भीगता मैं.
नही आप अकेले नही भीगते
भीगते हैं वे सब जो आपके करीब होते हैं

जानते हैं बारीश टन को ही नही मन को भी भिगो जाती है. हल्की फुलकी .....मन को सुहा जाती है
पर......ऐसी?
बम्बई की 'उस' बारीश सी
मन आहत हो उठता है .
दादा! दाग अच्छे होते हैं ,कितने लोग बोल पड़ते हैं
' क्यों फैंका कीचड?
अब नही?
पता नही चलता क्या?
गजब है?
और हम बैठे बैठे दाग को देख दुखी जरूर होते हैं पर......एक खुशी
इतने लोग ............इतने लोग !
'अरे! मैंने तो सोचा भी नही था कि इतने हैं जो मेरे कपड़ों पर लगे दागों को देख दुखी हुए हैं, साफ़ करना चाहते हैं ,या नाराज है .......................पर जो होता है अच्छा होता है.
नाराज नही होना, नाराजगी जैसी तो बात ही नही, वो भी हमारे ही जिनके हाथों कीचड उछल गया.
बच्चा माँ के कपड़ों पर सु-सु भी कर देता है,पोटी भी
माँ उसे फिर भी अपने से अलग नही करती
वो जानती है
है तो 'वो' मेरा ही ,हमारा ही .
आपकी इस रचना में भावाभिव्यक्ति कितनी संतुलित ,मर्यादित ! बहुत अच्छा लगा.
चलिए हम सब, सब मिल कर मुस्कराए.
मैं तो मुसकराऊंगी
क्या करूँ ऐसिच हूँ मैं

मनोज कुमार ने कहा…

जब युद्ध हो कुरुक्षेत्र का
मैं कृष्ण होना चाहता हूँ
जब युद्ध हो कुरुक्षेत्र का
मैं कृष्ण होना चाहता हूँ
जब युद्ध हो कुरुक्षेत्र का
मैं कृष्ण होना चाहता हूँ
उम्दा विचार।

निर्झर'नीर ने कहा…

जिन्दगी चलती रही है
ख्वाब सी पलती रही है
सब मिला मुझको यहाँ पर
कुछ कमी खलती रही है.

ye kavita ki sabse khoobsurat panktiyan lagi ...............bandhai swikaren

दीपक "तिवारी साहब" ने कहा…

फ़िर भी वर्तमान हालात में उम्दा कोशीश है. शुभकामनाएं.

दीपक "तिवारी साहब" ने कहा…

पैंट के दाग छुडाने से क्या मन पर लगे दाग धुल जायेंगे?

ढपो्रशंख ने कहा…

शुद्धि का शंख फ़ूंक दिया जाये.

ढपो्रशंख ने कहा…

बिक्लुल सही कहा, हालात का मुकाबला करने के लिये कृष्ण बनना अनिवार्य है.

makrand ने कहा…

behatrin rachna

makrand ने कहा…

न बने जब बात प्यारे
टूट कर बिखरे नजारे
मैं चलूँगा हमसफर बन
छोड़ दे जब साथ सारे

जो प्रीत का अहसास दे
वो हाथ होना चाहता हूँ
बस पाप धोना चाहता हूँ
कुछ और होना चाहता हूँ.

sundar

जाट के ठाठ ने कहा…

जयश्री कृष्ण

जाट के ठाठ ने कहा…

चोट लगता है कहीं गहरी लगी है. पर दुष्टों के नाश के लिये ही कृष्णावतार होता है.

बवाल ने कहा…

कौन टाइप के हो भैया, काहे कृष्ण होना चाहते हो। चलो होना चाहते हो तो एप्लीकेशन लगवा देंगे ऊपर वाले के दरबार में मगर कृष्ण-मुख करने भर की कोशिश ना ब्लॉगिंग से। हा हा। एकदम दर्दीली पोस्टें काहे लिख देते हो एक दो दिन संभलने में लग जाते हैं। हाँ नहीं तो।

कुमार राधारमण ने कहा…

यह एक अबूझ पहेली है कि जो सफेद सभी रंगों का मिश्रण है,वह सभी रंगों को सर्वाधिक प्रबलता से क्यों दर्शाता है!

तदात्मानं सृजाम्यहम् ने कहा…

जब युद्ध हो कुरुक्षेत्र का
मैं कृष्ण होना चाहता हूँ

आत्मशुद्धि के लिए अब
कुछ देर रोना चाहता हूँ
बस पाप धोना चाहता हूँ
कुछ और होना चाहता हूँ. 
गहन अनुभूति से उपजी पंक्तियां हैं। बधाई स्वीकारें।

निर्मला कपिला ने कहा…

लाजवाब समीर जी। शब्द नहीं इस रचना के लिये। शुभकामनायें

Ashok Singh Raghuvanshi ने कहा…

जब युद्ध हो कुरुक्षेत्र का
मैँ कृष्ण बनना चाहता हूँ

वाह
वाह
वाह

Prem Farukhabadi ने कहा…

बस पाप धोना चाहता हूँ
bhaiya kaun se paapon kii baat kar rahe hain .kavita mein paap mile hi nahin.santusht karen.sochen par anyatha na len.aap ke sawaal ke liye taiyaar rahoonga.

Prem Farukhabadi ने कहा…

"मैं कृष्ण होना चाहता हूँ!!"
is pankti ko saakaar karen. behtar title chun ne ke liye Badhai!!

दिगम्बर नासवा ने कहा…

गुरुदेव मिस करदी आपकी ये लाजवाब कृति .... पर आज पढ़ कर मन गदगद हो गया ... अनुपम भाव लिए है ये रचना ...

बेनामी ने कहा…

http://jaunhaitaun.blogspot.com/2010/05/blog-post.html

चल रहा बवाल है
बड़ा घमासान है ब्लॉग जगत में | कुछ बोल रहे हैं, कुछ बड़े बोल बोल रहे हैं,

और कुछ लोग ख़ास अवसर पर बोल कर और एक्स्ट्रा ख़ास अवसरों पर चुप्पी साध के कृष्ण बनने की तैयारी में हैं - धृतराष्ट्र, सुनत हौ के नाहीं ? तुम्हार रोल कौनो पिले करेक तैयार नाहीं |

हाँ, दुर्योधन- दुशासन पिले पड़ें हैं - कीचड उछालू खेल खेल रहे हैं ? अगर आपके चेले चपाटे उछालेंगे कीचड तो कुछ तो बगल में खड़े होने की वजह से तो आप पर भी पड़ेगा - फिर काहे का रोना कि सफ़ेद पतलून, जौन है तौन, गंदी हो गयी?

आप का सम्मान करने वाले इस स्तर के लोग हैं तो इससे आपका कद कोई बढ़ता नहीं है - रही सही बात आपने अभिभूत होकर पूरी कर दी - धृतराष्ट्र भी दुर्योधन की बलैया लेते होंगे ऐसे ही, वारी - वारी जाते होंगे उन पर.

आप आदरणीय हैं - मत भागिए इस झूठे समर्थन के ऊपर - ऐसे लोग जो किसी को लुच्चा कहें, 'कीड़े पड़ें' इस तरह का सड़क छाप विलाप करें , उनसे दूर रहें

कुछ भी हो , कृष्ण वाली कविता और विचार उत्तम हैं - उस पर बधाई स्वीकार करें, लेकिन भावना और पतलून दोनों श्वेत हों तो मज़ा दुगुना हो जाता है |

आपके लेखन को कचरा कोई नहीं कह सकता है, मुझे आश्चर्य है कि आपने ऐसा लेबल क्यों लगाया कि मेरा लेखन कचरा है ? जो बात जैसे कही जाय उसको उसी रूप में समझ कर तौलना चाहिए | हाँ अगर किसी ने 'कचरा' जैसे अशोभनीय शब्द का इस्तेमाल किया है तो वह भी भर्त्सना के योग्य है |

आप लिखते रहे, जो आपके समर्थन में खड़े दिख रहे हैं, उनमें से किसी का भी स्तर लेखन में ऐसा नहीं हैं यह तो आप भी देख चुके हैं, हाँ ये लोग हुल्लड़ ब्रिगेड का काम निभाने की कोशिश कर रहे हैं जो संजय गाँधी के चमचे किया करते थे लोकसभा में | जब तर्क न हों तो संख्या के बल पर रोक दो हॉल-गुल्ला कर के किसी अच्छे वक्ता को

quality को सम्मान दें , quantity को नहीं | कहते भी हैं कि - 'सिंहों के लेन्ह्डे नहीं'

आपका --
हिंदी ब्लॉग का शुभचिंतक !

रंजू भाटिया ने कहा…

मैं कृष्ण होना चाहता हूँ ...यह पंक्ति ही रोमांच पैदा करती है दिल में ...बहुत ही दिल से पसंद आई यह पोस्ट शुक्रिया

sheetal ने कहा…

Namaskaar
bemisaal.Ek baar phir aapki rachna dil main gehri utar gayi.
kabhi waqt mile to mere Blog par bhi aaiye.

POOJA... ने कहा…

bohot badhiyaa... man ke antardwand ko khoobi ke saath pratut kiya hai aapne... dhanyawaad iss kavita ke liye...

Vijuy Ronjan ने कहा…

Sameer bhai aapki lekhni prabhavit kar gayi...Krishna aap bane aur mujhe Sudama hone de...aatmshuddhi ke liye aap mujhe bhi rone den'

उर्मिला सिंह ने कहा…

थक गया हूँ ऐ जिंदगी......कमाल का लेखन बहुत सुन्दर

Kamini Sinha ने कहा…



आत्मशुद्धि के लिए अब
कुछ देर रोना चाहता हूँ
बस पाप धोना चाहता हूँ
कुछ और होना चाहता हूँ।

कमाल का लेखन सर,आदरणीया संगीता दीदी का हृदयतल से धन्यवाद जो आप तक लेकर आई वरना हम जैसे नए ब्लॉगर की पहुंच कहाँ आप तक हो पाती। सादर नमस्कार सर