बुधवार, अक्तूबर 28, 2009

पुल के उस पार से: इलाहाबाद दर्शन

जाने कितना नुकसान कर बैठा मैं हिन्दी साहित्य का इन पिछले चार दिनों में मात्र. सब माफ कर देंगे, सब मेरे अपने हैं मगर नहीं माफ करेगा मुझे तो हिन्दी साहित्य का इतिहास. वो मुझसे वैसे भी नहीं सध पाता.

न जाने क्या क्या निबंध, आलेख, शोध पत्र, संस्मरण आदि लिखे इन चार दिनों में और मिटा दिये मगर शीर्षक सहेज लिये कि शायद भविष्य में काम आयें.

आजकल यूँ भी पहले शीर्षक और फिर विषय वस्तु लिखी जाती है नये फैशन में. पहले विषय वस्तु के आधार पर शीर्षक निर्धारित होता था मगर वो पुराना जमाना था पुरनियों का.पुरानों की इज्जत करने वाले अब बचे भी नहीं. परसाई जी भी कह गये हैं कि बुजुर्गों को पूजनीय बना कर पूजागृह की शोभा बढ़ाने के लिए बैठा दिया जाता है. इसलिए जरा पुराना कहलाने से बचता हूँ और नये जमाने के साथ कदमताल करने का प्रयास रहता है. बस, और क्या! इसीलिये बचा लिए शीर्षक.

आप भी देखिये न..आगे इन पर एक एक करके फिर से लिखता रहूँगा शीर्षकानुसार:

  • निबंध: महाकुंभ के कुंभी
  • गंगा में पावन डुबकी-संस्मरण
  • दाना चुगते मानस के राजहंस-निबंध
  • जी हजूर!
  • ठेले पे मेला : किसने किसको झेला (हास्य विनोद)
  • दर्जा सभ्यता
  • सरकारी मेहमान : हमारे जजमान
  • लाईव रिपोर्टिंग : नॉट सो लाईव-समाचार विश्लेषण
  • गला मिलन समारोह
  • छुक छुक गाड़ी टू परयाग
  • बिना तिलक के पण्डे
  • तालियों की कराहट
  • बिन चहा (चाय) भजन नइ होवै
  • रिक्शे की सवारी: यात्रा वृतांत
  • रेत में नौका विहार का आनन्द: डूबने का खतरा नहीं
  • आस्था के दीपक का प्रवाहित होना: एक चिंतन
  • हँसमुख लाल की खिलखिलाहट
  • मइया तेरो बिकट प्रताप: एक मौलिक आरती
  • कागज के श्रृद्धा सुमन
  • शोध पत्र: चमकाऊ भाषण- एक कला या विज्ञान
  • विवेचना: मच्छर दंश: प्रेम प्रदर्शन या हमला
  • दो दिवस का एक युग: पौराणिक कथा
  • जासूसी कथा: कँघी गुमने का रहस्य
  • इलाहाबाद के पथ पर, वो तोड़ती थी पत्थर: २००९ में पनुः आंकलन
  • संगम- क्या मात्र तीन नदियों का: विमर्श
  • इलाहाबाद- राजनैतिक और धार्मिकता के केन्द्र के बाद-सन २००९ में सिंहावलोकन
  • गुल्लक कै पैसे: उसके कैसे- एक तुकबन्दी
  • घुटना टेक: छात्र जीवन का एक संस्मरण
  • शीर्षासन में देखी दुनिया जैसा: एक विचित्र अनुभव वृतांत
  • कव्वों की भीड में हंस या हंसों की भीड़ में कव्वा - एक मोरपंखी मुकुटधारी की रिपोर्ट
  • मंदिर से अजान: बदलते फैशन पर एक विशेषज्ञ की राय
  • साधना का महत्व: ज्ञानवार्ता
  • इलाहाबाद से हरिद्वार जाती गंगा में नौका विहार
  • शेषनाग की शैय्या के खाली स्थान पर लंबलेट: एक थ्रिलर
  • हाशिये पर ढकेलती: उंगली वाली बंदूक - एक कविता
  • तुम्ही अब नाथ हमारे हो: एक स्वीकारोक्ति.

इन्तजार करियेगा इनका. आते रहेंगे समय बे समय. मैं लिखूँ या कोई और-क्या फरक पड़ता है. कुछ शीर्षकों के लिए तस्वीरें इक्कठी करने का काम भी शुरु कर दिया है. एक तो रंजना भाटिया जी के यहाँ से चुरा ली है और बाकी गुगल से. बाकी का जुगाड़ भी हो ही जायेगा.

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मैं जब भी घर से कहीं किसी और शहर कुछ दिन के लिए जाता हूँ तो मेरी आदत है कि सामान रखने के पहले इत्मिनान से बैठ कर लिस्ट बना लेता हूँ फिर सामान मिलान करके रखता हूँ ताकि कुछ छूट न जाये. हर बार नये अनुभव प्राप्त होते हैं तो लिस्ट बढ़ती घटती रहती है. अभी अभी नये प्राप्त अनुभवों से लिस्ट में कुछ सामान और जोड़ दिये है, शायद आगे काम आये अगर कहीं बुलाये गये. दो दिन के लिए तीन दिन का सामान ले जाना हमेशा ठीक रहता
है उस हिसाब से:

तीन शर्ट, तीन फुल पेण्ट, एक हॉफ पैण्ट (नदी स्नान के लिए), एक तौलिया, एक गमझा (नदी पर ले जाने), एक जोड़ी जूता, एक जोड़ी चप्पल, तीन बनियान, तीन अण्डरवियर, दो पजामा, दो कुर्ता, मंजन, बुरुश, दाढ़ी बनाने का सामान, साबुन, तेल, दो कंघी ( एक गुम जाये तो), शाम के लिए कछुआ छाप अगरबत्ती, रात के लिए ओडोमॉस, क्रीम, इत्र, जूता पॉलिस, जूते का ब्रश, चार रुमाल, धूप का चश्मा, नजर का चश्मा, नहाने का मग्गा, बेड टी का इन्तजाम (एक छोटी सी केतली बिजली वाली, १० डिप डिप चाय, थोड़ी शाक्कर, पावडर मिल्क, दो कप, एक चम्मच), एक मोमबत्ती, माचिस, एक चेन, एक ताला, दो चादर,  एक हवा वाला तकिया.

बाकी इलेक्ट्रॉनिक आइटम की सूची अलग से है.

मुझे तो लगता है कि लिस्ट पूरी है, कुछ छूटा हो तो बताना.

खैर, यह सब तो ठीक है लेकिन जाने इसी दौरान यह कविता कलम का सहारा लेकर उतर आई. थोड़ी गंभीर है, अतः निवेदन है कि जरा डूब कर भाव समझने का प्रयास करें. सोचता था कि इस कविता को अलग से प्रस्तुत करुँगा मगर दो मूड और एक पोस्ट की तर्ज पर प्रस्तुत कर ही देता हूँ:

मैं हाशिये पर हूँ

इसलिये नहीं कि

मुझे हाशिये में रहना पसंद है

इसलिये नहीं कि

मुझमें ताकत नहीं

इसलिये नहीं कि

मैं योग्यता

नहीं रखता..

मैं इसलिये हाशिये पर हूँ क्यूँकि

मैं बस मौन रहा और

उनके कृत्यों पर

मंद मंद मुस्कराता रहा!!

-समीर लाल ’समीर’

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रविवार, अक्तूबर 25, 2009

कायलियत के कायल- कैसे कैसे घायल?!!

कायल एक ऐसी विकट और विराट चीज है जो कोई भी हो सकता है, कभी भी हो सकता है, किसी भी बात से हो सकता है और किसी पर भी हो सकता है.

मैने देखा है कि कोई किसी की आवाज का कायल हो जाता है, कोई किसी की सुन्दरता का, कोई किसी के लेखन का, कोई किसी के स्वभाव का और यहाँ तक कि कोई किसी की मौलिकता पर ही कायल हो जाता है.

अब मौलिकता पर भी कायल सिर्फ शुद्ध मौलिकता की वजह से नहीं बल्कि इसलिये कि वैसी मौलिकता और कहीं कम से कम उन्होंने नहीं देखी. कायल होने की और करने की स्वतंत्रता सभी को हासिल है. जहाँ आप अपनी सूक्ष्म दृष्टि या बुद्धि की कुशाग्रता की वजह से कुछ आंक कर कायल हो सकते हैं, वहीं आप अपने दृष्टि दोष के कारण या मूढ़ता की वजह से भी कायल हो सकते है.

’कायलता’ की इसी स्वतंत्रता का तो मैं कायल हूँ. 

भाई साहब, आपने लालू का नाम तो सुना होगा?

अरे, हम तो उनकी स्टाईल के कायल हैं.

याने कि इससे अर्थ निकलता है कि कायल होने के लिए यह जरुरी नहीं कि आप किसी की बुद्धि के कायल हों,  तो वो उसकी कुशाग्रता के ही हों.. तब तो वह कुशाग्रता की कायलियत कहलाई. बुद्धि का कायल होना बेवकूफी पर कायल होना भी अपने आप में समाहित करता है.

’कायल’ शब्द की यह व्यापकता भी कायल कर जाती है.

जब आप अपनी ओजपूर्ण रचना सुना कर फारिग हों तो सुना होगा, भाई साहब, क्या आत्मविश्वास है आप में. हम तो कायल हो गये.

आप खुश हो गये?

अगर आप की रचना वाकई अच्छी होती तो वो रचना का कायल होता या फिर आपकी ओजपूर्ण शैली अगर वाकई ओजस्वी होती, तो वो आपकी शैली का कायल होता. इन दोनों बातों को छोड़ वो आपके आत्मविश्वास का कायल हुआ-सोचिये.

याने अगर इसका गुढ़ अर्थ निकालने के लिए अगर गहराई में उतरा जाये तो आप जान पायेंगे कि न तो आपकी रचना इतनी प्रभावशाली है और न ही ओजपूर्ण शैली इतनी ओजस्वी है कि उसका कायल हुआ जाये, उसके बावजूद भी आप पूरी ताकत से खड़े अपनी रचना पूरी होने तक मंच और माईक संभाले रहे और मुस्कराते हुए मंच से उतर रहे हैं तो इसे आपका आत्मविश्वास नहीं तो और क्या कहेंगे. वाकई, आपका आत्मविश्वास कायल होने योग्य है. बस, इतना ही तो वो आपको बताना चाह रहा था.

’कायल’ शब्द के इसी सामर्थ्य पर तो मैं कायल हुआ जाता हूँ.

मैने कई शरीफों को गुण्डों के आतंक से और पिटने से बचने के चक्कर में यह कहते सुना है कि भाई, हम तो आपके नाम के ही कायल हैं, क्या सिक्का जमाया है आपने एरिया में. ये लो, नाम के ही कायल हो गये और वो भी इसलिये कि क्या सिक्का जमाया है.

ऐसी कायलता चमचागीरी में भी देखने में आती है अपना काम साधने के लिए.

कोई अपने गुरु के ज्ञान का, कोई चेले के चेलत्व का, कोई इसका और कोई उसका कायल होते दिख ही जाता है. यहाँ तक की गुरु अपने गुरुत्व को बचाने और चेले को सहजने के लिए भी चेलत्व का कायल हो लेता है. वो भी जानता है कि अगर चेला ही नहीं रहा तो गुरु कैसा? एक दूसरे की पूरकता बनाये रखने के लिए भी इस कायलता रुपी सेतु को टिकाये रखना अपरिहार्य हो जाता है.

कायल होना और कायल करना अक्सर एकाकीपन भी दूर करता है. कायल किये और कायल हुए लोग एक दूसरे के करीब से आ जाते हैं, इस तरह से एक गैंग जैसा संगठन बन जाता है और फिर सामूहिकता की ताकत को कौन नकार सकता है. अगर कोई सामूहिकता की ताकत को नकार सके तो बताये, मैं उनकी अल्पबुद्धि का आजीवन कायल रहूँगा.

dandavat

मैं यह कतई सिद्ध करने की कोशिश में नहीं हूँ कि कायलता का कोई महत्व नहीं है. बहुत महत्वपूर्ण है किसी बात का कायल हो जाना या किसी को कायल कर देना किन्तु मेरा उद्देश्य मात्र यह है कि कायल होने या करने की महत्ता आंकते समय ये जरुर देख और परख लें कि कौन, किस बात पर, किससे और किसलिये कायल हुआ.

यूँ ही व्यर्थ खुश न हों मात्र किसी के कायल हो जाने पर या किसी को कायल करके. वरना कोई आपकी खुशी का ही कायल न हो जाये.

मेरी पसंद:

शोख अदा का उसकी, कायल हुआ जाता हूँ मैं,
एक नजर से उसकी, घायल हुआ जाता हूँ मैं.

-समीर लाल ’समीर’

(वैसे मेरी पसंद में दूसरों की रचना लगाई जाने की प्रथा है लेखन जगत में, मगर यहाँ हम खुद ही खुद के कायल होने के हिसाब से खुद की रचना लगा दे रहे हैं, कृप्या अन्यथा न लें.)

सुरक्षा कवच: यह आलेख मात्र हास्य विनोद के लिए लिखा गया है. कोई भी कायल व्यक्ति इसे अपने पर कटाक्ष न मानें और इसे पढ़कर मुझ पर कायल होने का मन हो आये तो व्यंग्यकारी की बजाय विनोदप्रियता टॉपिक के अंतर्गत कायल हों.

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बुधवार, अक्तूबर 21, 2009

वो झिलमिलाती यादें: विल्स कार्ड भाग ६

पहले की तरह ही, पिछले दिनों विल्स कार्ड भाग १ , भाग २ , भाग ३ ,भाग ४ और भाग ५ को सभी पाठकों का बहुत स्नेह मिला और बहुतों की फरमाईश पर यह श्रृंख्ला आगे बढ़ा रहा हूँ.

(जिन्होंने पिछले भाग न पढ़े हों उनके लिए: याद है मुझे सालों पहले, जब मैं बम्बई में रहा करता था, तब मैं विल्स नेवीकट सिगरेट पीता था. जब पैकेट खत्म होता तो उसे करीने से खोलकर उसके भीतर के सफेद हिस्से पर कुछ लिखना मुझे बहुत भाता था. उन्हें मैं विल्स कार्ड कह कर पुकारता......)

कल शाम खिड़की के बाहर नजर पड़ी तो देखा कि आसमान एकदम पास तक उतर आया है. हाथ बढ़ा कर जितना मन चाहे तारे तोड़ लूँ और अपने पास रख लूँ.

हाथ बढ़ा कर कुछ तोड़े भी, मगर हाथ कुछ नहीं आया. बस वो आसमान के संग ही चमकते हैं. समेटो तो कुछ हाथ नहीं लगता. उन्हें देखना, अहसासना, उनकी सुन्दरता का लुत्फ उठाना-बस इतना ही है हमारे लिए. वो जहाँ हैं वहीं के लिए हैं. वहीं से अच्छे हैं-एक खुशनुमा अहसास देते. पास लाने की और समेट लेने की कोशिश में अहसास भी जाता रहेगा. बस फिर एक अंधेरा बच रहेगा.

कितना स्वाभाव एक सा है इन सितारों का और मेरी पुरानी गठरी में टंके उन यादों के सलमों का. जब जब समेटने की कोशिश करता हूँ, पास बुलाता हूँ. हाथ कुछ नहीं लगता. हाँ, एक खालीपन का नया अहसास और पा लेता हूँ.किस काम का है ऐसा खालीपन-वैसे ही जैसा बिना सितारों वाला घुप्प काला आसमान.

उन्हीं यादों में वो यादें भी शामिल हैं जो चन्द विल्स सिगरेट की खाली डिब्बियों से बने कार्डों पर शब्द रुप में अंकित हैं. जिन्हें मैं प्यार से विल्स कार्ड बुलाता हूँ. किन्तु अंकन तो बस एक दस्तावेज है बिल्कुल वैसा ही जैसे यह सब यादें मानस पटल पर दर्ज हैं झिलमिल झिलमिल सी.

दस्तावेज पलटता हूँ..मानस पटल पर टटोल कर देखता हूँ, एक सुखद अहसास होता है. मुस्कराता हूँ और फिर लौट आता हूँ अपने उस आज में जो कल फिर खुशनुमा यादों का हिस्सा बनेगा. शायद यही तरीका भी है जिन्दगी जीने का और उन खुशनुमा अहसासों को खुशनुमा रखने का.

आज फिर ऐसे ही कुछ दस्तावेज..ऐसे ही कुछ पलों की यादें, जब इन्हें न जाने क्या सोचते और न जाने किन स्थितियों में बम्बई की मायानगरी के उस हॉस्टल के रुम मेटों की भीड़ से भरे वीरान कमरे के किसी कोने में बैठ दर्ज किया था. तब से अब तक के जिन्दगी के एक लम्बे सफर के बाद भी ये यादें वहीं खड़ी हैं और अक्सर अपने नजदीक होने का अहसास, हाँ सुखद एहसास दिलाती हुई झिलमिलाती हैं.

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~१~

जब घर में
भीड़ भाड़ थी
हर तरफ कोलाहल
मैं खोजता था
एक कोना...
जहाँ सन्नाटा हो..
कोई आवाज नहीं..
बस मैं और मेरी सोच..

कुछ कोशिश के बाद
मिल भी जाता था
मुझे एक कोना ऐसा..

आज जब घर में
सिर्फ सन्नाटा है
और मैं खोज रहा हूँ
कोलाहल...
कुछ भीड़ भाड़..

बहुत कोशिश कर
हार जाता हूँ मैं
नहीं मिलता
मुझे कोई कोना ऐसा...

कैसी विडंबना है यह!!

क्या यही जीवन है??

~२~

सब को खुश रखने की
ख्वाहिश मे..

न जाने कितने
दुख पाये हैं मैने..

न जाने कितने
आंसू बहाये हैं मैने...

~३~

पहाड़ सी ऊँचाई से
नीचे देख

डर जाता हूँ मैं...

वहीं से आया
हूँ मैं..

कैसे भूल जाता हूँ मैं!!

~४~

एक छूअन का

अहसास

तेरी...

हर वक्त

साथ लिए

फिरता रहा हूँ मैं...

उठ उठ कर

न जाने क्यूँ

गिरता रहा हूँ मैं...

~५~

मुड़ कर देखता हूँ

जब भी..

तू ही नजर आती है...

सुना था

किसी से...

जिन्दगी

यूँ ही कहर ढाती है...

~६~

एक

अहसास

तेरे पास होने का...

झूठ ही सही..

अपने खास होने का...

-समीर लाल 'समीर'

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रविवार, अक्तूबर 18, 2009

मारो...मारो!!!!

मारो मारो.....

पहचान का है...मारो मारो..बम मारो...

वो पचास की भीड़ मिल गई..एक ही पहचान का है..कोई बात नहीं..सबको मारो..धम...धम!!!

वो सवा सौ लोग..किसी को नहीं जानते..अरे, लेकिन उसमें से एक ने बम फेंका है...तुम भी सबको मारो..मारो मारो..धम धम....धमा धम...

यहाँ से मारो...वहाँ से मारो...

ये हालात हैं दिवाली पर...

लेख से मारो, टिप्पणी से मारो..ईमेल से मारो, ट्विटर पर मारो..आर्कुट पर मारो..फेस बुक पर मारो...एस एम एस से मारो.....

शुभकामना, बधाई..मंगलकामना....

लेख वाला बम मारो, कविता वाला, व्यंग्य वाला..मगर मारो..बम..धम धम!!

हम भी जुटे रहे जमाने का चलन देख...धांय धांय...फेशनेबल तो हैं ही..इसलिए फैशन के मुताबिक चले...

कवि हैं और इस बात का गुमान भी है तो चार ठो पंक्तियाँ भी सजा लिए:

सुख औ’ समृद्धि आपके अंगना झिलमिलाएँ,
दीपक अमन के चारों दिशाओं में जगमगाएँ
खुशियाँ आपके द्वार पर आकर खुशी मनाएँ..
दीपावली पर्व की आपको ढेरों मंगलकामनाएँ!

-समीर लाल 'समीर'

भेजना शुरु..याने बम मारना शुरु...दो चार घंटे बमबारी की होगी उपर की तर्ज पर कि एकाएक सामने से किसी ने बम फेंका...

सुख औ’ समृद्धि आपके अंगना झिलमिलाएँ,
दीपक अमन के चारों दिशाओं में जगमगाएँ
खुशियाँ आपके द्वार पर आकर खुशी मनाएँ..
दीपावली पर्व की आपको ढेरों मंगलकामनाएँ!

-फलाना फलाना.....

लो अब हम क्या जबाब दें इन फलाना फलाना को...हम तो खुद ही यही बम फेंक रहे थे..???

लिखे, कि भईया यही चार ठो पंक्तियाँ हैं हमारे पास...तो वही वापस भेज रहे हैं बतौर शुभकामना. धर लो...धम धम...बम बम!!

फिर चार छः एस एम एस आ लिए भारत से...यही वाले..वो भी उनसे, जिन्हें हमने भेजा भी नहीं...देखते देखते कम से ४० मैसेज..इसी रचना के साथ...सबके प्रेषक वो..जिन्हें कम से कम हमने तो यह नहीं भेजा..

और सबसे मजेदार तो जब यह कार्ड पर चिपक कर आया (प्रेषक का नाम नामी होने के कारण पोंछ दिया है) तो हम तो झुक गये....हाय, काश हम ही कार्ड पर रच देते...इस कालजयी शुभकामनाओं को:

deepawali

अरे भाई, कोई तो क्रेडिट देता..तो चरण में गिर पड़ते....धन्य हुए यह चार पंक्तियाँ रच कर. अगली बार किसी को किसी त्यौहार पर लिखवाना हो तो सस्ते में लिख दूँगा. आप तो अपने ही हो. फिर आप भी बमबारी करना. :) हम भी कुछ कमा लेंगे..नाम की कमाई की उम्मीद तो अब जाती रही.


अपडेट २० अक्टूबर, २००९:

इस पोस्ट को अर्थ देती राजेश स्वार्थी जी की यह पोस्ट भी पढ़ें:

मारो..मारो...समीर जी, क्या मतलब है इसका?

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बुधवार, अक्तूबर 14, 2009

साईड मिरर-एक लघु कथा

उस दिन जब मंदिर से निकला तो तुम्हारी कार बिल्कुल मेरे कार के पीछे पीछे निकली.

एक ही हाईवे भी लेना था. मेरी कार आगे आगे और तुम्हारी पीछे.

मैं साईड मिरर से तुम्हें साफ साफ देख पा रहा था. साईड मिरर का मानो ऐसा एंगल सेट हो गया था कि बस तुम्हारी ड्राइविंग सीट को कवर करने के लिए ही लगा हो.

कितनी दूर तक यही सिलसिला चलता रहा. मेरी नजर बार बार साईड मिरर पर जाती और उसमें मुझे तुम, न जाने क्या सोचती, गाड़ी चलाती नजर आती.

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क्या पता तुम मुझे देख पा रही थी या नहीं. तुम्हारी नजरों से तो ऐसा नहीं लगता था. तुम जाने किस सोच में डूबी थी.

फिर तुम्हारे घर की तरफ जाने वाली रोड पर तुम मुड़ गई थी और मैं अपने घर जाने के लिए सीधा हाईवे पर चलता रहा.

याद है मुझे, जब मैने तुम्हें पहली बार देखा था. कितना बदल गया था मैं उस दिन के बाद से. जिन्दगी के मायने बदल गये थे और मैं तो मानो मैं रह ही नहीं गया. तुम तो इस बात को जानती भी नहीं.

जाने क्यूँ, उस वक्त के बाद से, जब से तुम हाईवे छोड़ कर अपने घर की तरफ मुड़ी, मेरी कार का साईड मिरर भी साईड मिरर नहीं रह गया, वो एक फोटो फ्रेम हो गया है. जब भी उसमें देखता हूँ मुझे बस तुम नजर आती हो-न जाने क्या सोचती, गाड़ी चलाती.

सोचता हूँ, दर्पण तो ऐसे नहीं होते है?

फिर सोचता हूँ, मैं भी ऐसा कहाँ था?

जानता हूँ सिर्फ साईड मिरर में देखकर न तो सड़क वाली गाड़ी चलाई जा सकती है और न ही जिन्दगी की. इन खुशनुमा अहसासों को संग लिए हमें आगे देखना होता है. आगे चलना होता है.

सब कुछ कितना बदल सा जाता है
जब भी तेरा चेहरा नजर आता है..

शाम फिर चाँद को झील मे छुपते देखा है.

-समीर लाल ’समीर’

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रविवार, अक्तूबर 11, 2009

बिखरे मोती का विमोचन एवं समीर लाल सम्मानित

आखिरकार ’बिखरे मोती’ का दीर्घ प्रतिक्षित विमोचन विगत ४ अक्टूबर, २००९ को गुरुदेव श्री राकेश खण्डेलवाल, वाशिंगटन, यू. एस.ए. के कर कमलों द्वारा गया चौहान बैन्केट हॉल, टोरंटो में समपन्न हुआ. इस अवसर पर श्री अनूप भार्गव एवं रजनी भार्गव जी, न्यू जर्सी, यू एस ए, मानोषी चटर्जी जी, शैलजा सक्सेना जी ने शिरकत की. श्रोताओं से खचाखच भरे हॉल में कार्यक्रम की शुरुवात मानोषी चटर्जी ने की. कार्यक्रम की अध्यक्षता अनूप भार्गव जी एवं संचालन श्री राकेश खण्डेलवाल जी ने किया.

कार्यक्रम के आरंभ मे प्रसिद्ध शायर फिराक गोरखपुरी जी की भांजी, मेरी दादी श्रीमति कनकलता जी ने अपने आशीर्वचन दिये एवं ’बिखरे मोती’ पर अपने विचार व्यक्त किये.

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मेरी दादी फिराक गोरखपुरी जी की भांजी श्रीमति कनक वर्मा

तदोपरान्त मनोषी चटर्जी ने अपनी गज़ल अपनी मधुर आवाज में गाकर श्रोताओं को मुग्ध कर लिया:

आपकी आँखों में मुझ को मिल गई है ज़िंदगी
सहरा-ए-दिल में कोई बाक़ी रही ना तश्नगी

रात के बोसे का शम्मे पर असर कुछ यूँ हुआ
उम्र भर पीती रही रो-रो के उस की तीरगी

उससे मिलके एक तुम ही बस नहीं हैरां कोई
है गली-कूचा परेशां देख ऐसी सादगी

आजकल दिखने लगा है मुझको अपना अक़्स भी
आजकल क्या आइना भी कर रहा है दिल्लगी

झुक गया हूँ जब से उसके सजदे में ऐ ’दोस्त’ मैं
उम्र बन के रह गई है बस उसी की बंदगी

चूँकि कार्यक्रम के साथ ही मेरे पुत्र एवं पुत्रवधु के प्रथम गृह-आगमन का समारोह भी रखा गया था. अतः सभी कवियों एवं कवियत्रियों ने विमोचन हेतु एवं वर वधु को अपने आशीर्वचन भी काव्यात्मक प्रस्तुत किए.


मनोषी के बाद रजनी भार्गव जी ने अपना काव्यपाठ किया. पूरा हॉल तालियों की गड़गड़ाहट से गुंजायमान हो गया.

सुरमई शाम चुपके से सुरमई हो गयी है शाम
रात ने सर रख दिया है काँधे पर
तारों ने बो दिये हैं चन्द्रकिरण से मनके वीराने में
धवल, चमकीली चाँद की निबोली
अटकी हुई है नीम की टहनी पर
नीचे गिरी तो बाजूबंद सी खुल जाएगी
सुरमई शाम
अनुपम और प्रगति के अनुराग
में ढल जाएगी।

उसके बाद शैलजा सक्सेना जी कविता ’सात फेरे’ ने सभी को अभिभूत कर दिया.

दो-दो खुशियाँ एक साथ हैं
घर और कलम प्रफुल्लित
इसी तरह से बढ़े वाटिका
गीत पुष्प हों प्रमुदित॥

अनुपम -प्रगति के लिये....

मधुमय जीवन बने तुम्हारा
स्वप्न सुगंधित सब हो
रहे आस्था संबंध में
चंदन-चाँदनी मन हो॥

-*-
सात फेरे

डॉ. शैलजा सक्सेना

सात फेरे लिए तुमने
सात फेरे लिए मैंने
मन की सेज पर
हर रात, सुहाग रात।

तुम्हारे पुरुषार्थ ने
मेरी कल्पना की कोख में
सपनों का बीज बोया
और हम विश्वास का फल लिए
चढ़ते चले आए जीवन की कठिन सीढ़ियाँ
कुछ फूलों से लदी
कुछ रपटन से भरी
फिसलने को हुए तुम तो
हाथ थामा मैंने
गिरने को हुई मैं तो
हाथ पकड़ा तुमने।

सात फेरे लिए तुमने.......

सुहाग का सोना
तन से ज़्यादा रचा मन पर।
समय झरता रहा
हरसिंगार सा हमारी देहों पर
सोख ली वह गंध स्वयं में
गंध बढ़ रही है तुम्हारी
गंध बढ़ रही है मेरी

झील की लहरों सी
मुस्कान उठती है तुम्हारे होंठों से
और मेरी आँखों का सूरज छूने की होड़ करती है
साँसों में हवन-धूम भरती है
उस दिन जो लिए थे सप्तपदी-वचन
भूलने को हुए तुम तो
याद दिलाए मैंने
भूलने को हुई मैं
तो याद दिलाए तुमने।

सात फेरे लिए तुमने
सात फेरे लिए मैंने
मन की सेज पर
हर रात, सुहाग रात।।

poster

उनके बाद अनूप भार्गव जी ने अपने काव्यपाठ से समा बाँधा.

१.
प्रणय की प्रेरणा तुम हो
विरह की वेदना तुम हो
निगाहों में तुम्ही तुम हो
समय की चेतना तुम हो ।

२.
तृप्ति का अहसास तुम हो
बिन बुझी सी प्यास तुम हो
मौत से अब डर नहीं है
ज़िन्दगी की आस तुम हो ।

३.
सपनों का अध्याय तुम्ही हो
फ़ूलों का पर्याय तुम्ही हो
एक पंक्ति में अगर कहूँ तो
जीवन का अभिप्राय तुम्ही हो ।

४.
सुख दुख की हर आशा तुम हो
चुम्बन की अभिलाशा तुम हो
मौत के आगे जाने क्या हो
जीवन की परिभाषा तुम हो ।

५.
ज़िन्दगी को अर्थ दे दो
इक नया सन्दर्भ दे दो
दूर कब तक यूँ रहोगी
नेह का सम्पर्क दे दो ।

अनूप जी के बाद राकेश खण्डेलवाल जी ने अपना काव्यपाठ कर पुस्तक का विमोचन किया एवं शिवना प्रकाशन की ओर से पुस्तक की एक प्रति मेरी पुत्र वधु को भेंट की.

शुभ हो प्रणय पर्व हम सब मिल कर नूतन हर्ष संजोयें
अभिनन्दन के भाव आज हम भेंट कर रहे हैं स्वीकारो
भावी जीवन के सपनों की मधुपूरित खुशियों से
विविध रूप में र~मगा तुम्हारा वर्त्तमान सजाता हो

साथ ही अनूप और रजनी भार्गव, विकास और शैलजा सक्सेना, मानोशी छटर्जी और राकेश जी की ओर से राकेश जी ने वर वधु के लिए मंगलकामना करते हुए गीत प्रेषित किया:

सदा रहे मंगलमय जीवन
शुभ आशीष तुम्हें देते हैं
तुम्हें मुबारक गुल औ’ कलियाँ
रस भीगे दिन रस की रतियाँ
रसिक सुबह हो, शाम सुगन्धी
गगन बिखेरे रस मकरन्दी
जिसमें सदा खिलें नवकलियाँ
ऐसा चमन तुम्हें देते हैं
जो छू लें अन्त:स्तल तल को
घुटनलिप्त नभ के मंडल को
नयनों के बेसुध काजल को
हियरा के उड़ते आँचल को
फिर उच्चार करें गीता सा
ऐसे अधर तुम्हें देते हैं
जो बिखरे तिनकों को जोड़ें
मांझी को साहिल तक छोड़ें
अन्तर्मन को दिशा दिखायें
पथ में नूतन सरगम गायें
जो उड़ छू लें मंज़िल का सर
ऐसे पंख तुम्हें देते हैं
जो सपनों की अँगनाई में
मन की गुंजित शहनाई में
उषा की मॄदु अँगड़ाई में
घुल जाते हैं परछाईं में
इन्द्रधनुष नित बन कर सँवरें
ऐसे पंख तुम्हें देते हैं.
सदा रहे मंगलमय जीवन
शुभ आशीष तुम्हें देते हैं.

समीर लाल सम्मानित:

इसी अवसर पर वाशिंगटन हिन्दी समिति यू एस ए द्वारा हिन्दी भाषा एवं हिन्दी चिट्ठाकारी की विशिष्ट सेवा के लिए मुझे ‘साहित्य गौरव’ के सम्मान से विभूषित किया गया एवं शिवना प्रकाशन, सिहोर के द्वारा से ’शिवना सारस्वत सम्मान’ से अलंकृत किया गया. श्री अनूप भार्गव जी ने इस मौके पर दोनों सम्मान पत्रों का अंग्रेजी मे अनुवाद कर उन कनेडियन मेहमानों को सुनाया जिन्हें हिन्दी नहीं आती थी.

मास्साब पंकज सुबीर जी, हटीला जी और कासट जी को इस मौके पर विशेष रुप से याद किया गया जिनके अथक प्रयास से यह ’बिखरे मोती’ का संकलन मूर्त रुप ले पाया.

साहित्य गौरव शिवना सारस्वत सम्मान
sammanusblog sammanshivblog

इसके बाद मेरे द्वारा सभी के आभार प्रदर्शन एवं काव्यपाठ के बाद विमोचन का कार्यक्रम समाप्त हुआ और मेरे पुत्र एवं पुत्रवधु के प्रथम गृह-आगमन का समारोह शुरु हुआ.


मेरे द्वारा पढ़ी गई रचना:

sam

चाँद गर रुसवा हो जाये तो फिर क्या होगा
रात थक कर सो जाये तो फिर क्या होगा.

यूँ मैं लबों पर, मुस्कान लिए फिरता हूँ
आँख ही मेरी रो जाये तो फिर क्या होगा.

यों तो मिल कर रहता हूँ सबके साथ में
नफरत अगर कोई बो जाये तो फिर क्या होगा.

कहने मैं निकला हूँ हाल ए दिल अपना
अल्फाज़ कहीं खो जाये तो फिर क्या होगा.

किस्मत की लकीरें हैं हाथों में जो अपने
आंसू उन्हें धो जाये तो फिर क्या होगा.

बहुत अरमां से बनाया था आशियां अपना
बंट टुकड़े में दो जाये तो फिर क्या होगा.

ये उड़ के चला तो है घर जाने को ’समीर;
हवा ये पश्चिम को जाये तो फिर क्या होगा.

-समीर लाल ’समीर’

नोट: विडियो अभी उपलब्ध नहीं हो पाये हैं. समय समय पर मौका देखकर लगाये जायेंगे. इन्तजार करिये.

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बुधवार, अक्तूबर 07, 2009

ये क्या हो रहा है?

अब फुरसत हुए तो इत्मिनान से बैठकर सोचता हूँ.

आज कल जो हालात हुए हैं, मजहब के नाम पर जो दंगल मचा है, उसे देख कुछ कहने को मन है:

किसको खुदा औ’ भगवान की जरुरत है,
आज हमको यहाँ,  इंसान की जरुरत है..

-समीर लाल ’समीर’

बस, इस पर इतना ही. बाकी तो मौन साधा हुआ है. सब समझदार हैं फिर भी न जाने क्यूँ?

paani

अभी एक दो दिन पहले ही कहीं पढ़ता था कि कविता क्या है?

बहुत से बड़े बड़े धुरंधर कवियों से लेकर बुद्धिजीवी साहित्यकारों ने इस विषय पर अपनी अपनी विचारधारा कविता और दीगर माध्यमों से रखी है.

मैने भी कोशिश की कि अपनी तरफ से कविता पर भी कुछ कहें. सबने कहा है तो हम भी कहें. जो कहा वो आप भी पढ़िये. साहित्यकर तो हैं नहीं फिर भी कोशिश करने पर रोक तो है नहीं सो कर दी.. आप बताओ कि कैसी है?

कविता क्या है ?

कविता है,

शब्दों मे व्यक्त
भावों की अभिव्यक्ति
जीने की शक्ति
समाज की संरचना
मानवियता की रचना
ईश्वर की अर्चना
कुरितियों पर वार
आशा का संचार

कविता  है
मन के भाव
कड़ी धूप में
पेड़ की छांव
संजोये हुए अहसास
और गहरे अँधेरे में
चमकती हुई आस

कविता है
संस्कृति की वाहक
भ्रांतियों की निवारक
और क्षुब्ध ह्रदय में
चेतना की कारक
कविता है
एक समर्पण
दिल का सच्चा दर्पण
निस्सीम ऊँचाई
अंतहीन गहराई

कविता
मिटाती है संशय
बढ़ाती है
आदि से अंत का परिचय
जगाती है निश्चय
और
अमावस में
लाती है सूर्योदय
कविता है
पूर्ण सॄष्टि
लौकिक और
अलौकिक दृष्टि

इसका रचयिता कवि

कभी हँसाता
कभी गुदगुदाता
तो
कभी रुलाता
सूरज की सीमा
के पार ले जाता
फिर भी
अक्सर
भूखा ही सो जाता

-समीर लाल ’समीर’

नोट: ४ तारीख का कार्यक्रम बहुत बढ़िया से हो गया. जल्द ही रिपोर्ट देते हैं.

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शुक्रवार, अक्तूबर 02, 2009

ताऊ कौन है आखिर??

गुरु गुड़ रह गया और चेला शक्कर हो गया.

हमें देखो, तीन साल छः महिने हो गये कलम घिसते घिसते, तब कहीं जाकर कुछ ३४२ पोस्टें और एक रिकार्ड १५००० टिप्पणियाँ हासिल कर पाये और हमारे चेले ’ताऊ’ को देखो: १ साल से जरा ही उपर और ४०४ पोस्ट और शामिल हो गये आज गुरुजी के १५००० कल्ब में. हिन्दी ब्लॉग जगत में दूसरा बंदा, गुरु जी की राह पर चुपचाप चलता.

आज अनूप शुक्ला जी ने १५००० वीं, आशीष खण्डेलवाल जी ने १५००१ वीं टिप्पणी की ताऊ की प्रेमलता पाण्डे जी के परिचयनामा वाली ४०४ वीं पोस्ट पर.

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चेला है कि काम्पटिटर!! हर जगह अड़ी दे रहा है और कुछ कहो तो कहता है कि गुरु जी, सब आपका सिखाया है. क्या कहें..सिवाय इसके कि भईये ताऊ, बहुत बधाई ले ले और अब तो तू ही आगे आगे चल. हम न तो तेरी स्पीड से दौड़ पायेंगे और न ही तेरी पार पा पायेंगे.

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बचपन में मैं तिवारी सर जैसा बनना चाहता था. आठवीं में हमें गणित पढ़ाते थे. देखते देखते हम सी ए हो गये और तिवारी सर तब भी आठवीं में ही गणित पढ़ाते थे. मिलने गये तो इस तरक्की को देख उनका सीना फूला नहीं समाता था. यही होता है जब चेला तरक्की कर जाये. आज वही हालत अपनी पाता हूँ जब ताऊ का गुणगान सुनता हूँ, उसे आगे बढ़्ते देखना प्रसन्नता देता है.

कभी आंकलन करने की भी कोशिश करता हूँ कि इतने कम समय में इतनी लोकप्रियता.

कई बार तो उल्टा डर लगता है कि अगर उसने गुरु मानना बंद कर दिया तो अपने तो कौड़ी के भाव न रह जायें. प्रशंसक मूँह फेर लें तो आप कौन और मैं कौन!

सब चकित रहते हैं कि आखिर यह ताऊ है कौन? कैसा दिखता होगा? कहाँ रहता होगा और क्या करता होगा? सेलिब्रेटिज़ के लिए दिमाग में ऐसे प्रश्न आना बहुत स्वभाविक है.

ताऊ, मैं हो सकता हूँ, आप हो सकते हैं, कोई भी हो सकता है. जो भी आदर्शों का पालन करे, ज्ञान और भाषा के विकास में सार्थक योगदान करे, सबसे प्रेम करे, सबको यथोचित सम्मान दें, मानव से ही नहीं, पशुओं से भी और अन्य सभी प्राणियों से प्यार करे, वो ही ताऊ हो सकता है. सबका प्रिय, सबका चहेता और सबके दिलों में बसने वाला.

इतने कम समय में इतनी लम्बी लोकप्रियता की यात्रा करना, इतने लोगों को साथ जोड़ कर चलाना, कभी सबको जीवन की राह दिखाने वाला गंभीर मग्गा बाबा, कभी खिलंदड़ा प्यारा ताऊ, तो कभी चुलबुली रामप्यारी, कभी हीरामन, कभी सैम-इतने सारे लोकप्रिय किरदार निभाते निभाते अथक चलते रहना, यह कोई आसान कार्य नहीं.

एक बहुत बड़ा तबका ताऊ की ऐसी बढ़त देख खुश होता है तो एक तबका स्वभाविक ईर्ष्या भी पाल बैठता है. मगर अजब यह शक्शियत, कभी चेहरे पर कोई शिकन नहीं, कभी किसी से कोई मलाल नहीं.

ताऊ की खिलंदड़ी, ताऊ पहेली, ताऊ पत्रिका, राम प्यारी की पहेलियाँ और उसके चुलबुले क्लयू, ताऊ की शोले, परिचयनामा और जाने क्या क्या सबको लुभाते आये हैं.

इतना ज्ञान बांट देने के बाद भी ताऊ से जब मैने ताऊ की शोले की शूटिंग के दौरान पूछा कि इतना ज्ञान कहाँ से लाते हो, तो बड़ी सज्जनता से कहने लगा: हमारे यहाँ एक पान की दूकान पर तख्ती टंगी है , जिसे हम रोज देखते हैं. उस पर लिखा है: कृपया यहाँ ज्ञान ना बांटे , यहाँ सभी ज्ञानी हैं. बस इसे पढ़ कर हमें अपनी औकात याद आ जाती है और हम अपने पायजामे में ही रहते हैं एवं किसी को भी हमारा अमूल्य ज्ञान प्रदान नही करते हैं.

और फिर आगे ताऊ कहता हैं: वैसे जिंदगी को हल्के फुल्के अंदाज मे लेने वालों से अच्छी पटती है. गम तो यो ही बहुत हैं. हंसो और हंसाओं , यही अपना ध्येय वाक्य है.

और वाकई स्टूडियो ब्लॉगिस्तान में ताऊ के साथ ’ताऊ की शोले’ के सेट पर मेरे साथ और जितने भी कलाकार थे, सब ताऊ के साथ पूरी शूटिंग के दौरान खूब हँसे, हँसाये. काम का बोझ पता ही नहीं चला और भाग १ बन कर कम्पलिट भी हो गई.

ताऊ से जब यह पूछा गया कि कोई नया प्रोजेक्ट जहेन में हैं तो बड़ी ही गंभीरता से ताऊ बोला कि वैसे तो ढ़ेरों है. आप समय आने पर देखोगे लेकिन लगभग जो फाइनल हैं वो हैं: ’ताऊ की शोले भाग २’ और ’ताऊ रेडियो’.

मैं चौंका : ’ताऊ रेडियो’..तब पता चला कि इसमे रोज एक निश्चित समय पर ’ताऊ चिट्ठाजगत के गरमागरम समाचार पॉडकास्ट करके सुनायेगा कि किस ब्लॉग पर क्या चल रहा है. साथ ही वह न्यूज रेडियो समाचार पत्र की तर्ज पर लिखित में रहेगी ताकि लोग लिंक क्लिक कर सकें.’ संवाददाताओं की नियुक्ति जारी है. निश्चित ही भविष्य को लेकर ताऊ बहुत आशान्वित है.

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कुछ लोगों को लग सकता है कि यह बात तो वैसी ही हो गई जैसे कि मैं तेरी पीठ खुजाऊँ और तू मेरी खुजा. जब ताऊ ने आपका १५ हजारा लिखा तो आप काहे नहीं लिखोगे, तो ऐसा ही मान लो और खिजियाते हुए बधाई दो. :)

आज इस विशिष्ट मौके पर आईये ताऊ का अभिनन्दन करें, उन्हें १५००० टिप्पणियाँ प्राप्त होने पर बधाई दे और इसी गति से आगे बढ़ते रहने के लिए शुभकामनाएँ दें.

ताऊ, बधाई हो!!!

नोट मे सूचना:

आज इसके अलावा भी मेरे जीवन की दो महत्वपूर्ण सूचनायें हैं:

तारीख ४ अक्टूबर, दिन रविवार को मेरी पुस्तक ’बिखरे मोती’ का विमोचन मेरे गुरुवर श्री राकेश खण्डेलवाल, वाशिंग्टन, अमेरीका द्वारा किया जाना है. इस अवसर पर सायं ५ से ७ बजे तक एक कवि सम्मेलन का आयोजन किया गया है जिसमें माननीय श्री अमेरीका से ही कवि अनूप भार्गव, रजनी जी भी शिरकत कर रहे हैं. साथ ही कनाडा से मानोषी चटर्जी, शैलजा सक्सेना और सुमन धई जी (साहित्य कुंज पत्रिका वाले) होंगे. मैं तो खैर रहूँगा ही. :)

कवि सम्मेलन के उपरांत ७ बजे से पार्टी का आयोजन है बेटे और बहु के कनाडा प्रथमागमन पर.

यह घटनायें अद्भुत हैं मेरे लिए, आप सबका स्नेह आपेक्षित है.

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