शनिवार, मार्च 01, 2008

क्या बवाल मचा रखा है?? (भड़ास/मोहल्ला विवाद नहीं)

कहते हैं पुरानी यादें जब जरुरत से ज्यादा घेरने लगे तो वह आपकी प्रगती में बाधक होती हैं और यहाँ तो अपनी स्थितियों का आँकलन करता हूँ तो पाता हूँ बाधक तो दूर, हम तो इतना ज्यादा घिरे रहते हैं कि प्रगति का स्थान शायद अब तक पतन ने ले लिया होगा. इसी पतनशीलता के दौर से गुजरते तीन रोज पहले दिल्ली में था. फरीदाबाद से ग्रेटर नोयडा की तरफ जा रहा था. पूरा ट्रेफिक जाम. फरवरी की दोपहर मगर एक तो आपस में सटे वाहन, उस पर से तपता सूरज. गाड़ी का एसी अपने कर्तव्यों को बखूबी निष्पादित कर रहा था फिर भी गाड़ी को बहुत मुश्किल से एक बड़े अंतराल में मात्र कुछ इन्च खिसकता देख खीझ होना स्वभाविक ही था. हालात ऐसे कि लगा फिल्म जोधा अकबर देख रहे हैं. बार बार लगता कि अब खत्म हुई कि तब..मगर खत्म होने का नाम ही नहीं ले रही थी.

क्या फर्क है?? एक ही बात!!


jodhaakbar1

delhijam


ऐसा नहीं कि मैं अकेला ही खीझ रहा हूँ या परेशान हो रहा हूँ. मैने उसके चेहरे पर भी परेशानी के भाव देखे. गुलाबी टॉप्स, सर पर चढ़कर आराम करता धूप का चश्मा, शायद काफी देर लगाये लगाये थक गई होगी. खीझ और परेशानी का मिलाजुला असर यह रहा कि थकान ने उसे आ घेरा और उसने सीट पर सर टिका कर आँखें बन्द कर लीं. एकदम चुप, न कुछ बोलना और न कुछ सुनना, खूबसूरत लग रही थी.

आज एक अरसे बाद उसने रीता की याद दिला दी. खूबसूरत तो वो भी थी, इस तरह के माहौल में वो भी परेशान हो उठती और खीझ जाती मगर उसके और इसके स्वभाव में एक बहुत बड़ा व्यवहारिक अन्तर दिखा कि रीता अपनी सारी खीझ मुझ पर निकाल दिया करती. उसे हमेशा अपने बाजू वाली लेन ज्यादा तेजी से क्लियर होती नजर आती. वो मुझ पर नाराज होती, चिल्लाने लगती. मैं उसे समझाता कि न तो बाजू की लेन तेज है और न ही लेन बदलने से कोई फायदा होगा, मगर वो सुने तब न!! ऐसी ही कितनी आदतों के चलते हमारे रास्ते कब अलग हो गये, पता ही नहीं चला. शायद वो वाकई बाजू वाली लेन से बहुत तेजी से आगे निकल गई. खैर!! न जाने कहाँ होगी अब.

आज इसे देखता हूँ तो लगता है कितना शांत स्वभाव है. कैसे इतनी परेशानी के बावजूद भी आँखे मूँदें समय काट रही है. मैं एकटक उसे निहारता हूँ. न जाने किन विचारों में खोई वो एकाएक मुस्कराने लगी. उसके करीने से लिपिस्टिक लगे होंठ. मुस्कराते ही ऐसा लगा कि जैसे कोई फूल खिल उठा हो-गुलाब का ताजा खिला फूल.

मुझे खिले गुलाब बहुत पसंद हैं.

न जाने कब खिसकते खिसकते हम जमुना पार उस मुहाने पर आ गये, जहाँ से दिल्ली और ग्रेटर नोयडा का मार्ग अलग हो जाता है. गाड़ी हवा से बात करने लगी. मैं आँखें बंद किये खिले गुलाब के फूल को सोचता रहा. शायद उसकी गाड़ी दिल्ली की तरफ निकल गई थी. न जाने कौन थी, कहाँ से आ रही थी मगर रीता की याद बरबस ही दिला गई. क्या यही पतनशीलता है??
फिर कल टीवी पर एक फैशन शो देख रहा था. रैम्प पर चलती सुन्दरियाँ. लगातार एक के बाद एक. सारे दर्शक टकटकी लगाये देख रहे थे. न जाने किस बात पर बीच बीच में ताली बजाते थे.
tops
सभी मॉडल न जाने किस डिजाईनर के कपडे पहने थीं. कम से कम उन सबके टॉप्स तो मुझे सरकारी नजर आये. अपने कर्तव्यों से बिल्कुल विमुख. ऐसा लगा जैसे जिस डेस्क पर उसे होना चाहिये उससे कहीं दूर कैन्टीन में चाय के साथ ठहाका लगाते. अन्तर मात्र इतना ही कि सरकारी कर्मचारी का इस तरह से अपने कर्तव्यों से विमुख होना जनता से गाली खिलवाता है और यहाँ इनके टॉप्स का अपने कर्तव्यों से विमुख होना ताली बजवा रहा था. कहते हैं यह प्रगति की निशानी है-एडवान्समेन्ट. मैं नहीं समझ पाया, पतनशील जो ठहरा. पुरानी यादों से घिरा रहने वाला.

खैर, मैं गर्त में जाऊँ या पहाड़ पर-क्या फर्क पड़ता है. मगर यदि दिल्ली के यातायात फस्सूवल (ट्रेफिक जाम) की हालत न सुधारी गई तो देश का विकास जरुर प्रभावित हो जायेगा. कुछ करो भाई-और फ्लाई ओवरर्स बना लो फटाफट. Indli - Hindi News, Blogs, Links

28 टिप्‍पणियां:

पुनीत ओमर ने कहा…

पुरानी यादें इतनी भी बुरी नहीं होतीं। अगर रीता जी की याद ना आयी होती तो शायद बोरियत भरे उन लम्हों में भी किसी इन्सान को इस सौन्दर्यलोलुपता के साथ देखने की नजाकत आप में ना आयी होती।

bhuvnesh sharma ने कहा…

सही कहा यही है आजकल की आधुनिकता पहनावे की न कि विचारों की.......

डॉ. अजीत कुमार ने कहा…

खिले गुलाब में शायद अबतक वो उतावलापन नहीं आया हो जो उसे मजबूरन दूसरी लेन में खीच ले जाए. शायद उसकी यादों पर अबतक वैसे जाले नहीं पड़े हों जिसे साफ कराने पर कुछ जाले चेहरे पर भी गिर जाएं.
धन्यवाद.

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` ने कहा…

समीर भाई कैसे हो आप ? बाबा रे ! दिल्ली शहर का ट्राफिक इतना बोझिल होता है क्या ?

Arun Arora ने कहा…

सही है जी ,लेकिन अगर बगल मे बैठी भाभीजी को आपके यादो की जरा सी भी खबर लग जाती तो पोस्ट और ज्यादा शानदार होती..:)अगर आप सच्ची स्च्ची लिखते तो..:)

अनिल रघुराज ने कहा…

समीर भाई, बाहर और अंदर की दुनिया के द्वंद्व को मिलाकर दिल को कचोटवाला संस्मरण लिखा है आपने। ऊपर से पतनशीलता की एक ठसक भी, बहस भी। वाकई बड़ा अच्छा लगा पढ़कर।

रिपुदमन पचौरी ने कहा…

कहाँ थे भाई, इतने दिन से कोज़ रहा हूँ आपको। अभी लौटना हुआ आपका या अभी तक छुट्टी ही मना रहे हैं।

जय हिन्द

PD ने कहा…

क्या कहूं कुछ समझ में नहीं आ रहा है.. मैं भी विचारों के किसी दरख्त में कुछ तलाशने लगा..

Sanjeet Tripathi ने कहा…

सही है पर क्या दर्जनों फ्लाईओवर बनाना ही इस ट्रैफिक समस्या का सुलझाव है?

अजय कुमार झा ने कहा…

udan tashtaree,
yakeenan aap is grah ke nahin hai. kamaal hai traafic jam. jodha akbar aur reetaa jee, sach kahoon to mazaa aa gayaa aapkee to shailee niraalee hai.

परमजीत सिहँ बाली ने कहा…

बहुत अच्छा लगा आप का संस्मरण।

अजित वडनेरकर ने कहा…

महीन महीन बातें। अच्छी पोस्ट ।

पंकज सुबीर ने कहा…

ये रीता कौन थी साहिब जरा कुछ खुल के बतलाओ
कहां पर था लगाया दिल हमें इतना तो समझाओ
भले भाभी के बेलन बाद में खा लेना मजे ले के
अभी तो उस परी रीता का ही किस्‍सा सुना जाओ

मीनाक्षी ने कहा…

समीर जी, एक ही पोस्ट में बहुत सी बातें पढ़ने समझने को मिल गईं..

Tarun ने कहा…

darjano flyover to pehle hi ban chuke hain, ab aur kitne banwaoge ya guiness book me delhi ka naam likhne ka irada karke gaye ho, tabhi lagta hain itna lamba tike ho udhar.

राज भाटिय़ा ने कहा…

समीर जी आप का लेख बहुत अच्छा लगा, ज्यादा अच्छी बात रीटा की लगी,ओर ममला भी समझ मे आ गया कि आप बार बार भारत क्यु जा रहे हे,

mamta ने कहा…

हमेशा की तरह बढ़िया और दिलचस्प लेख।

Waterfox ने कहा…

समीर भइया आप जब भी कुछ लिखते हैं दिल छू जाता है। हर एक की ज़िंदगी में कोई न कोई रीता होती है और बहुधा वो धूप की गरमी बर्दाश्त नहीं कर पाती। किसी की याद दिला दी आपने!
बहुत अच्छा लिखते हैं आप!

संजय बेंगाणी ने कहा…

रितामय ट्राफिक कथा यादो का सफर करवा गयी...

बेनामी ने कहा…

आपके आदेशानुसार पहले भी 'नेट प्रेक्टिस' के लिये आई थी, लेकिन पिछली तीन पोस्ट मे आपकी घुटन, फिर चोरी और फिर अफसोस पर कुछ कहने को नही था.. अब आप खुद अपने ओरिजिनल फार्म मे आ गये हैं तो हमने भी नेट प्रेक्टिस शुरु कर दी है. :)
" कम से कम उन सबके टॉप्स तो मुझे सरकारी नजर आये. अपने कर्तव्यों से बिल्कुल विमुख"
:) :)
बहुत खूब!
एक निवेदन और्-
"एक आइटेंटिटी चुनें"
इसे सुधार लें या फिर "पहचान" लिख लें.

zeashan haider zaidi ने कहा…

हमारी भविष्य की लाइफ का नाम - ट्रैफिक जाम.

Unknown ने कहा…

एक साथ इतनी चीजों पर नजर। भई वाह!

SahityaShilpi ने कहा…

यातायात फस्सूवल तो ठीक है पर ये उल्टा सीधा सोचना बंद कर दीजिये वरना अभी जो अरुण जी ने कहा है न वो सच होने में देर नहीं लगेगी. हाँ आप न बतायें तो अलग बात है :)

- अजय यादव
http://merekavimitra.blogspot.com/
http://ajayyadavace.blogspot.com/
http://intermittent-thoughts.blogspot.com/

समयचक्र ने कहा…

सरकारी कार्य प्रणाली के कारण विकास की दौड़ मे हमारा देश काफी पिछड़ गया है और बढ़ते जनाधिक्य के कारण हमारे देश की ट्राफिक व्यवस्था चरमरा गई है और रही फ्लाई ओवर ब्रिज बनने के बात यह अभी भी दूर की गोटी ही प्रतीत होती है . ट्रेफिक जाम .. चकाजाम ...सब जगह जाम ही जाम है इसे अपना दुर्भाग्य ही कह सकते है .

महावीर ने कहा…

भई वापस आगए हो या दुबारा से फस्सूवल में फंस गए हो। संस्मरण में मजा आ गया।

कंचन सिंह चौहान ने कहा…

उसे हमेशा अपने बाजू वाली लेन ज्यादा तेजी से क्लियर होती नजर आती. वो मुझ पर नाराज होती, चिल्लाने लगती. मैं उसे समझाता कि न तो बाजू की लेन तेज है और न ही लेन बदलने से कोई फायदा होगा, मगर वो सुने तब न!! ऐसी ही कितनी आदतों के चलते हमारे रास्ते कब अलग हो गये, पता ही नहीं चला. शायद वो वाकई बाजू वाली लेन से बहुत तेजी से आगे निकल गई. खैर!! न जाने कहाँ होगी अब.
उसे हमेशा अपने बाजू वाली लेन ज्यादा तेजी से क्लियर होती नजर आती. वो मुझ पर नाराज होती, चिल्लाने लगती. मैं उसे समझाता कि न तो बाजू की लेन तेज है और न ही लेन बदलने से कोई फायदा होगा, मगर वो सुने तब न!! ऐसी ही कितनी आदतों के चलते हमारे रास्ते कब अलग हो गये, पता ही नहीं चला. शायद वो वाकई बाजू वाली लेन से बहुत तेजी से आगे निकल गई. खैर!! न जाने कहाँ होगी अब.
उसे हमेशा अपने बाजू वाली लेन ज्यादा तेजी से क्लियर होती नजर आती. वो मुझ पर नाराज होती, चिल्लाने लगती. मैं उसे समझाता कि न तो बाजू की लेन तेज है और न ही लेन बदलने से कोई फायदा होगा, मगर वो सुने तब न!! ऐसी ही कितनी आदतों के चलते हमारे रास्ते कब अलग हो गये, पता ही नहीं चला. शायद वो वाकई बाजू वाली लेन से बहुत तेजी से आगे निकल गई. खैर!! न जाने कहाँ होगी अब.
उसे हमेशा अपने बाजू वाली लेन ज्यादा तेजी से क्लियर होती नजर आती. वो मुझ पर नाराज होती, चिल्लाने लगती. मैं उसे समझाता कि न तो बाजू की लेन तेज है और न ही लेन बदलने से कोई फायदा होगा, मगर वो सुने तब न!! ऐसी ही कितनी आदतों के चलते हमारे रास्ते कब अलग हो गये, पता ही नहीं चला. शायद वो वाकई बाजू वाली लेन से बहुत तेजी से आगे निकल गई. खैर!! न जाने कहाँ होगी अब.
उसे हमेशा अपने बाजू वाली लेन ज्यादा तेजी से क्लियर होती नजर आती. वो मुझ पर नाराज होती, चिल्लाने लगती. मैं उसे समझाता कि न तो बाजू की लेन तेज है और न ही लेन बदलने से कोई फायदा होगा, मगर वो सुने तब न!! ऐसी ही कितनी आदतों के चलते हमारे रास्ते कब अलग हो गये, पता ही नहीं चला. शायद वो वाकई बाजू वाली लेन से बहुत तेजी से आगे निकल गई. खैर!! न जाने कहाँ होगी अब.
उसे हमेशा अपने बाजू वाली लेन ज्यादा तेजी से क्लियर होती नजर आती. वो मुझ पर नाराज होती, चिल्लाने लगती. मैं उसे समझाता कि न तो बाजू की लेन तेज है और न ही लेन बदलने से कोई फायदा होगा, मगर वो सुने तब न!! ऐसी ही कितनी आदतों के चलते हमारे रास्ते कब अलग हो गये, पता ही नहीं चला. शायद वो वाकई बाजू वाली लेन से बहुत तेजी से आगे निकल गई. खैर!! न जाने कहाँ होगी अब.


aapne to bhavuk kar diya

रंजू भाटिया ने कहा…

दिल्ली का ट्रेफिक तो सुधरेगा या नही राम जाने पर आपका यह संस्मरण बहुत सी बातें कह गया :) आपकी हर यात्रा मंगलमय हो यही शुभकामना है !!

Dr.Bhawna Kunwar ने कहा…

बस समीर जी हमारी दिल्ली के ट्रैफिक की मत पूछो जब भी भारत जाना होता है तो बस ! मुझसे तो अब वहाँ गाड़ी भी नहीं चलायी जाती हाँलाकि जाना तो बस एक महीने के लिये ही होता तभी तो आधे ही काम हो पाते हैं ...