मंगलवार, फ़रवरी 20, 2007

वो सुनाते रहे हैं दास्तां

कल पिछली पोस्ट पर लोगों के विचार सुनें, जबकि हम कह चुके थे कि पुनी पुनी बोले (शायद ऐसे लिखते तो ठीक रहता-बार बार बोले) मगर फिर भी हमने अपने आप से पूछा कि यह क्या है बार बार टिप्पणी टिप्पणी पर लिखते हो, मगर क्या करें. ब्लाग जगत है ही ऐसा. सब एक दूसरे की देखा देखी लिखते हैं, तो हम भी सोचे सब ही तो एक एक विषय पकड़ कर लिख रहे हैं तो हम भी अपना विषय बना लें, चिट्ठाकार, चिट्ठाकारी, चिट्ठाकारी के तरीके, टिप्पणियों और दाद का महत्व इत्यादि. हर टोक टिप्पणी को देख एक लतीफा याद आ गया:


एक बार एक कवि को तेज मोटर साईकिल चलाने के जुर्म में पुलिस ने रोक लिया और चालान बनाने लगा.

कवि बोला, हमें क्यूँ पकड़ रहे हो, उसको पकड़ो जो आगे भागा है.

पुलिस ने पूछा, उसको क्यूँ पकड़ें?

तब कवि बोला कि हमें अपनी कविता सुना कर भाग गया और अब हमारी नहीं सुन रहा.

पुलिस वाले ने उसे जाने दिया और चालान नहीं किया.

मगर यह दर्द सब थोड़े ही समझते हैं.


हमने तुरंत अपनी सारी पोस्टों का पुनः आंकलन किया. पाया कि हाँ हम टिप्पणियों की गाथा पर चार से ज्यादा बार लिख चुके हैं और सिरियल के तौर पर पहली बार लिख रहे हैं जिसके मात्र और मात्र दो भाग है और पुराने भी जोड़ लें तो ज्यादा से ज्यादा पाँच लगभग किसी बड़े चल रहे सिरियलस, जैसे वो २५ गीत की पायदानों वाला अपने मनीष भाई का, का २०%., बहुत ज्यादा नहीं. मगर शायद यह भी ज्यादा ही कहलाया.

हमने मन को झटकाया कि भाई, सब अपने प्रेमी बंधु है, अपनी बात कह रहे हैं, इसे वो राजकुमार के डायलाग वाला शीशे के घरों पर मारा पत्थर न समझो और फिर इसमें लतीफा काहे याद कर रहे हो. मन सीधा साधा है, मान गया. फिर लतीफा नहीं याद किया बस एक बहुत बड़े शायर राकेश खंडेलवाल जी के शेर याद करने लगा:




वो सुनाते रहे हैं दास्तां महीनों की
हमने लम्हे की सुनाई तो बुरा मान गये

थोपते आये हैं हम पर वो पसंदें अपनी
अपनी हमने जो बताई तो बुरा मान गये

एहतियातन लगाये हमने लबों पर ताले
आज ताली जो उठाई तो बुरा मान गये





हमने फिर मन को समझाया कि भाई, सब अपने सखा हैं ऐसा मत सोचो. फिर मान गया. मगर एक प्रश्न कर बैठा. कहने लगा, भाई साहब, यह बताईये कि जनवरी फरवरी में जब भी लोग कनाड़ा में मिलते हैं तो सिर्फ़ ठंड की बात क्यूँ करते हैं कि आज ज्यादा है, कल कम थी और कल और कम होगी. हमने कहा कि भाई, यह ठंड का देश है तो यहाँ ऐसी ही तो बात होगी. कोई गीत गजलों की महफिल में जाकर प्रेमचंद की बात तो करेगा नहीं या माईक्रो सॉफ्ट के दफ्तर में तो तकनिकी पर ही तो बात होगी, कोई बड़ापाव बनाने के तरीके पर तो बात चलेगी नहीं. मय्यत मे जाओ, तो जीवन मृत्यु की बात ही करनी पड़ती है, न कि शादी ब्याह या किसी के अलंकरण समारोह की.

हमने कहा कि भाई, यह ठंड का देश है तो यहाँ ऐसी ही तो बात होगी. कोई गीत गजलों की महफिल में जाकर प्रेमचंद की बात तो करेगा नहीं या माईक्रो सॉफ्ट के दफ्तर में तो तकनिकी पर ही तो बात होगी, कोई बड़ापाव बनाने के तरीके पर तो बात चलेगी नहीं. मय्यत मे जाओ, तो जीवन मृत्यु की बात ही करनी पड़ती है, न कि शादी ब्याह या किसी के अलंकरण समारोह की.


जहाँ हो, जिस वातावरण में हो, वहाँ बस वैसा ही व्यवहार करो. अब गये हो कवि सम्मेलन में और कहोगे कि यार, आप कविता अच्छी कर रहे हो मगर क्या आपको नहीं लगता कि कविता की बात ज्यादा हो गई. कुछ योग सिखाओ. अरे, यह भी कोई बात हुई. तब तो हरिद्वार ही जाओ, वहाँ भी तो तुम्हारा मन नहीं लगेगा कि बस हर समय योग योग, कुछ कविता सुनाओ. यह सब आपकी नहीं, मानव मन की खोट है. जिस वातावरण मे रहता है, उससे उस पार का वातावरण विचारता है. पंक्तियाँ याद आती हैं बच्चन जी की :

इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा.

इसे ही मन का विचलन कहते हैं. अरे भाई, जब तक इस पार हो, इस पार की देखो, मधु पिओ, उसके सानिध्य का आनन्द लो. जब उस पार जाओगे, तब तो वहाँ का हाल मालूम चल ही जायेगा.

दक्षिण भारत में रह कर सिर्फ़ गर्मी की बात की जाती है, बर्फ की करोगे तो लोग पागल कहते हैं और उससे कोई राहत भी नहीं मिलती. कभी यूगांडा में पकवान और व्यंजन की बात मत कर देना. सुना है, वो बहुत बुरा मानते हैं इस बात का. आकाल पड़ा हो, भुखमरी हो तो उससे उबरने के उपाय तलाशने होते हैं.

बच्चों को रोज रोज एक ही बात समझानी पड़ती है तब जा कर वो संस्कार सीखते हैं, न कि माँ डाक्टरेट हासिल करके बैठ जाती है कि अब बहुत सीखा चुकी. अब आने वाली संतानें उसका पुराना शोध पत्र पढ़कर ज्ञानी हो जायेगी. हर नये बच्चे के साथ बदलते समय के अनुरुप बदलाव कर वही कहानी दोहरानी होती है. यही अभिभावक का फर्ज है. जो इससे चुका, वो अपने कर्तव्यों का सही निर्वहन नहीं कर पाया, ऐसा मेरा मानना है.

वैसे कवि सम्मेलन में दाद कितनी भी मिलती रहे, जैसे जैसे सम्मेलन चढ़ता जाता है, दाद बढ़ती जाती है मगर कभी भी ऐसा नहीं माना जाया कि अब ज्यादा हो रही है.मेरा एक अंग्रेजी ब्लाग है, वहाँ तो बहुत ही ज्यादा हो रहा है, हर बार मैं एम एस एक्सल पर ही लिखता हूँ. :)

अब जैसे कनाड़ा में ठंड की बात न हो, यह संभव नहीं. भाजापाई और कांग्रेसी मिलें और मंदिर मज्जिद की बात न चलें, यह संभव नहीं. ठीक वैसे ही, जब हम चिट्ठाकरी की बात करें और टिप्पणी की बात न चले, वर्ड प्रेस की बात न चले, ब्लाग स्पाट की बात न चले, चिट्ठों के व्यवसायिकरण की बात न चले और बार बार न चले, वो संभव नहीं. सब मौज मजे की बातें हैं, मन बहलाते हैं सब हाल फिलहाल तो. रोज नये लोग जुड़ रहे हैं, वो कुछ पुराना उठा कर कम ही पढ़्ते है बल्कि रोज परोसा गया ही इतना होने लगा है कि वो ही पूरा पढ़ लें तो उनका साधुवाद. ऐसे में अगर किसी पुरानी बातों को जो आज भी उतना ही मायने रखती हैं, को नये अंदाज में पुनः अवलोकनार्थ पेश किया जाये तो मैं इसमें कोई बुराई नहीं समझता. मैं तो जब पहली बार इस बात को लाया था, तभी वो कई बार लोगों के द्वारा लिखी जा चुकी थी, मगर बदला हुआ अंदाज लोगों को भाया, ऐसा मुझे लगा. :)

मैं इसे ठीक उसी अंदाज में लेता हूँ कि जैसे किसी को तकनिकी पर लिखना पसंद है, किसी को राजनीति पर, किसी को फिल्मी गीतों पर, किसी को व्यवसायिकरण पर, किसी को यात्राओं पर और किसी को धार्मिकता पर, वैसे ही मुझे चिट्ठाकार, चिट्ठाकारी, चिट्ठाकरी के तरीके, टिप्पणियों और दाद का महत्व इत्यादि पर लिखने की उत्सुकता रहती है, यही मेरी पसंद है. इसका शायद विशेष कारण यह भी हो कि किसी को पसंद आये, न आये, इसके विवाद का कारण बनने की गुंजाईश थोड़ा कम ही रहती है और विवादित बातों से मैं थोड़ा किनारे होकर ही चलना पसंद करता हूँ.

मैं इसे ठीक उसी अंदाज में लेता हूँ कि जैसे किसी को तकनिकी पर लिखना पसंद है, किसी को राजनीति पर, किसी को फिल्मी गीतों पर, किसी को व्यवसायिकरण पर, किसी को यात्राओं पर और किसी को धार्मिकता पर, वैसे ही मुझे चिट्ठाकार, चिट्ठाकारी, चिट्ठाकरी के तरीके, टिप्पणियों और दाद का महत्व इत्यादि पर लिखने की उत्सुकता रहती है, यही मेरी पसंद है. इसका शायद विशेष कारण यह भी हो कि किसी को पसंद आये, न आये, इसके विवाद का कारण बनने की गुंजाईश थोड़ा कम ही रहती है और विवादित बातों से मैं थोड़ा किनारे होकर ही चलना पसंद करता हूँ.


यहाँ हम किसी महाकाव्य की रचना को संकल्पित होकर तो आये नहीं है. महाकाव्य तो क्या, खंड काव्य तक नहीं. न ही हम इस गुमान में हैं कि हम साहित्य की सेवा को तत्पर हैं. बस हिन्दी में लिखते हैं कि मौज मजा चलता रहे, भाषा के प्रसार पर जागरुकता बढ़े और सही मायने में बढ़ भी रही है. हर रोज नये चिट्ठाकार जुड़ रहे हैं, हिन्दी चिट्ठाकारी को नये आयाम मिल रहे हैं. शायद यही तो उद्देश्य भी है हम सबका. वो पूरा हो रहा है वरना तो गीत इत्यादि की म्यूजिक इंडिया जैसी अनेकों वेब साईटें हैं, वहीं जाकर सुन सकते हैं या मुशायरा डॉट ओ आर जी पर पहुँच शायरों की शेर एवं गजलें. क्यूँ चिट्ठे की जहमत पालें. क्या जरुरत है अगले पोस्ट की इंतजार करने की. बस यही न कि चलो आप क्या सोच रखते हैं यह देखा जाये. आप सब परिवार के अभिन्न अंग हैं, आपकी सोच ही परिवार को दिशा देती है और पहचान भी. यही सुगठित परिवार की पहचान भी है. मैने अपनी सोच से कुछ नहीं सोचा, ऐसा ही वेदों और पुराणों में लिखा है.


वैसे इन सारी बातों से एक बहुत पुराने विचार पर विराम लगा. मैं सोचा करता था कि क्यूँ डॉ. खुराना भारत छोड़ कर भाग आये और अमेरीका आकर अपना शोध किया और नोबल पुरुस्कार से सम्मानित भी हुये. शायद किसी ने कह दिया होगा कि डॉक्टरेट दे देते हैं मगर क्या ये जीन्स जीन्स ज्यादा नहीं हो रहा है, पापे??


मगर मन के संशय ने मुझे आज अपनी प्रवचन माला के भाग २ को लाने से रोक दिया. इसीलिये यह प्रविष्टी करनी पड़ी. प्रवचन माला २ मन का संशय के दूर हो जाने पर ही लाऊँगा, यह वादा रहा. आप तो मेरा स्वभाव जानते हैं. न
मैं किसी बात का बुरा मानता हूँ और न ही सामने वाले से आशा करता हूँ कि वो अन्यथा ले.किसी का दिल दुखे और मैं अपने मन की लिखता रहूँ, मैं उस स्वभाव का नहीं. इससे बेहतर मैं न लिखने को मानूँगा. इस हेतु जितने स्माईली लगाना हो, लगा देता हूँ. बस कोई दिल से न लगाना भाई कोई बात, जैसे हमने नहीं लगाई. एक उम्दा शायर हर्ष भाई की पंक्तियाँ याद आती हैं:



मंदिर मे रख दो रब को
मस्जिद मे राम ले लो।
चाहो तो माफ कर दो
या इंतकाम ले लो।


और



हम दर्द चाहते है हम जख्म मांगते है
इस दिल पे वार हो तो ताजा गजल सुनाये।
जो तीर तुमने छोड़ा अटका हुआ है थोड़ा
ये दिल के पार हो तो ताजा गजल सुनाये।


यह पोस्ट मेरे मन की न सही और न ही मेरी किसी भी पोस्ट से मेल खाती, मगर फिर भी छाप ही दें.

चलते-चलते: यह पोस्ट सिर्फ मौज मजे के लिये है, इस पर बहुत गहराई से शोध न किया जाये, यही निवेदन है. Indli - Hindi News, Blogs, Links

12 टिप्‍पणियां:

ePandit ने कहा…

गुरुदेव प्रवचन निर्बाध जारी रखें। ज्यादा फिलॉसफी में जा कर डूबने से कुछ नहीं मिलेगा। हम आपकी पोस्ट पढ़ते हैं आनंद लेते हैं और मौज ही मौज में आप काम की बात भी समझा देते हैं। यानि एक तीर से दो शिकार। जैसे आपने आज किया पोस्ट भी लिख ली और पाठकों की सहानुभूति लेकर वोट भी पक्का कर लिया। :)

mkt ने कहा…

पोस्ट पढ़ कर आनन्द आया। जिस पोस्ट को पढ़ने के बाद शोध करना पड़े, वह अनूप शुक्ल जी के अनुसार पूजनीय कहलाएगा, पठनीय नही।

बेनामी ने कहा…

एक सांस मे (शायद) पूरा लेख संजीदगी के साथ पढलिया आप कहते हैं कि ये सिर्फ मौज मस्ती के लिए लिखा है। आप ने हंसी ख़ूशी से बहुत सारी बातें उगलदीं आपकी बातों (लेख) मे जादू है समीरजी। यहां दुबई मे मार्च से लेकर अकटोबर तक भी यही सुनने को मिलता है कि आज गर्मी कम है ज़्यादा है शायद कल थोडा कम रहेगी :)

Divine India ने कहा…

सुनाई है दास्ता अपने दिल की…लेकिन यह क्या हम तो बैठे थे अगले प्रवचन के लिए आसन लगाकर्…और आप सोंचने लगे…।बहुत खुब!!!
धन्यवाद!!

बेनामी ने कहा…

अरे भाई, ये बहाने से दो किस्त की जगह तीन किस्त ठेल दी। हमें पता है कि दूसरी किस्त पोस्ट किये बिना मानोगे नहीं। पोस्ट करिये दूसरी वाली भी उसको भी झेला जायेगा। हम कोई ऐसे कवि नहीं हैं जो अपनी सुना के फूट लें। और हां, जिनकी बात कह रहे हैं आप गीतमाला वाले मनीष की तो भैये दोनों में तुलना नहीं करिये। वे दूसरों का प्रचार कर रहे हैं परमार्थ है उनका काम। आप अपना 'परचार' कर रहे हैं। बहरहाल, आप भी लिखो वे भी लिखें सब लोग लिखें ।हम सबको बांच रहे हैं।

Neelima ने कहा…

गम की दस्तां को मौज मजे में सुना गए आप भी .....और हां.. शुरूआती लाइनों में दाद -शब्द का इस्तेमाल आपने किया है यह अभिधा मे है या इसका कोई व्यंजनार्थ भी है ?

Mohinder56 ने कहा…

आप कि निर्बाधगति से लिखी हुयी रचनायें पढ कर मन आनन्दित हो जाता है. "आम के आम और गुठली के दाम" आनन्द् के साथ ज्ञानवर्धन भी.
आपने डा राकेश खंडेलवाल जी का जिक्र अपनी रचना में किया, बहुत बढिया रचनायें हैं उनकी. जब उन्होंने मेरी कविता पर अपनी टिप्प्णी छोडी तो समझिये बस लगा कि मेरा लिखना सफल हो गया. आप ने बिल्कुल ठीक कहा है कि कवि को भोजन से अधिक श्रोताओं की आवश्यकता होती है.

Pramendra Pratap Singh ने कहा…

जब आप कह ही रहे कि
चलते-चलते: यह पोस्ट सिर्फ मौज मजे के लिये है, इस पर बहुत गहराई से शोध न किया जाये, यही निवेदन है.

तो यही कहने को बचता है कि अच्‍छा लिखा है लिखते रहे। :)

बेनामी ने कहा…

सिर्फ़ इतना कहूंगी की बहुत अच्छा लगा पढ्कर.. गहराइ और हास्य दोनों क सही सामंजस्य..

ghughutibasuti ने कहा…

भाषा पर आपकी पकड़ गजब की है। किसी भी विषय पर लिखें पाठक को बाँधे रखते हैं। आशा है, आपको पढ़ते पढ़ते यह कला कुछ मैं भी सीख लूँ । स्माइली तो मुझे भी बहुत पसन्द हैं ।
घुघूती बासूती
ghughutibasuti.blogspot.com
miredmiragemusings.blogspot.com/

राकेश खंडेलवाल ने कहा…

हमने सोचा था करेंगे वो नये प्रवचन आ
पर वो आये औ' कथा दूसरी ही बाँच गये
हाँ कथा भक्त को उपदेश की न थी माना
पर कथा ऐसे कही एक समां बाँध गये
टिप्पणी कौन नहीं करता, कौन माहिर है
कोई आभास दिये बिन भी यही जाँच गये

Manish Kumar ने कहा…

समीर भाई आपका ये लेख पढ़ा । अब आपने समीक्षा,राजनीति, मीडिया, कविता, यात्रा, संगीत की तरह टिप्पण विवेचना को भी विषय मान लिया है तो मुझे कुछ नहीं कहना है । आपकी लेखन शैली चाहे वो व्यंग्य हो या संस्मरण और काव्य प्रतिभा (गजल हो या कविता) का सदा से कायल रहा हूँ और इसी वजह से पिछली टिप्पणी में ये कहना चाहा था कि इतने विषयों पर आपकी महारत है तो फिर..।
खैर, आपको विश्वास दिलाता हूँ कि आगे से मेरी कोई टिप्पणी आपको इतने पुनः आकलन के लिए मजबूर नहीं करेगी ।